यथार्थ का जादू और जादुई यथार्थवाद
सुशीलनाथ कुमार
06 फरवरी 2025

‘अम्बर परियाँ’ बलजिंदर नसराली का तीसरा उपन्यास है। इससे पहले पंजाबी में उनके दो उपन्यास आ चुके हैं। उन्होंने कहानियाँ भी लिखी हैं। उनके दो कहानी संग्रह ‘डाकखाना खास’ और ‘औरत की शरण में’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। ‘अम्बर परियाँ’ हिंदी में व्यवस्थित ढंग से प्रकाशित होने वाली बलजिंदर नसराली की पहली किताब है। इससे पहले उनकी कुछेक कहानियों का हिंदी में अनुवाद हुआ है। उपन्यास और कहानी के अलावा उन्होंने अंडमान का एक यात्रा-वृत्तांत भी लिखा है। वह समकालीन पंजाबी साहित्य में एक जाना-पहचाना नाम हैं।
‘अम्बर परियाँ’ एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। इसका हिंदी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है। इसकी कथा नायक अम्बरदीप या अम्बर के जीवन को आधार बनाकर बुनी गई है। कहानी की शुरुआत अम्बर के अतीत के फ़्लैशबैक से होती है। कैसे बचपन में वह अकेला-अकेला रहता था। उसके बहुत ज़्यादा साथी नहीं थे। एक निहंग बाबा का भाषण सुनकर किस तरह छोटी उम्र में ही उसका रुझान किताबों को पढ़ने की तरफ़ बन गया था। किताबों ने उसके एकांत की रिक्तता को भर दिया। छोटी-सी उम्र में कहानी और उपन्यास पढ़ने की आदत लगने से उसका कोमल बालमन घर-परिवार और गाँव-समाज में फैली तमाम तरह की रूढ़ियों, धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास को कुछ-कुछ समझने लगा था।
‘अम्बर परियाँ’ के नायक के संपूर्ण जीवन में न सिर्फ़ किताबों की केंद्रीय भूमिका रही, अपितु साहित्य पढ़ने के रुझान ने ही उसके जीवन के हर मोड़ और द्वंद्व में निर्णयकर्ता का काम किया।
बचपन में गाँव और स्कूल के बच्चे उसे ‘अर्जन का’ (लड़का) कहकर चिढ़ाते थे। चिढ़ाना इसलिए क्योंकि अर्जन उसके ताऊ का नाम था, उसके पिता जीवित थे। चूँकि उसके ताऊ का रंग साँवला था और पिता का रंग गोरा, इसलिए अपनी साँवली चमड़ी को देखकर उसे समझ आता था, क्यों सभी बालक उसे ताऊ का छोरा होने की संज्ञा देकर चिढ़ाते थे। गाँवों में अक्सर ही देखा जाता है कि एकाधिक भाइयों के परिवार में जिस भाई की शादी नहीं होती, उसका अपनी भाभी के साथ मूक स्वीकृति का संबंध होता है। ऐसा होने के पीछे मूल वजह भाइयों की संपत्ति का बँटवारा होने से रोकना होता है। या ऐसे भी कह सकते हैं कि ऐसा होने से दोनों भाइयों की ज़मीन-जायदाद शादीशुदा भाई के बच्चों की हो जाती है।
बालमन में पैदा हुए दो हीनताबोध बाक़ी की सारी उम्र अम्बर का पीछा नहीं छोड़ते। एक तो अनब्याहे ताऊ और अपनी माँ की संतान होना और दूसरा अपनी चमड़ी का साँवला रंग।
अपनी माँ और ताऊ के (अवैध) संबंधों से उपजा यही संदेह और हीनताबोध उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमज़ोरी बन जाता है। समय के साथ यही बोध मनोविकृति का रूप ले लेता है। शेक्सपियर के नाटकों कई पात्र भी इन्हीं अवैध संबंधों से उपजे संदेह से जूझते हैं, जैसे हैमलेट को संदेह होता है कि उसकी माँ का उसके चाचा के साथ संबंध है। ओथेलो को संदेह है कि डेसडेमोना गुप्त रूप से इयागो से प्रेम करती है।
इस हीनताबोध का दूसरा पक्ष भी इसी से जुड़ा हुआ है। उसका रंग अपने पिता के गोरे रंग की बजाय ताऊ के साँवले रंग से मिलता है। चमड़ी के काले रंग को लेकर मन में उपजा हीनताबोध अम्बर का दूसरा मानस है। उपन्यास की पूरी कहानी में उसके जीवन में आई सभी स्त्रियों के प्रति उसके आकर्षण की एक बड़ी वजह उन सभी का गोरे रंग का होना रहा है। इसी के परिणामस्वरूप वह जीवन भर मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर ‘चमड़ी के गौर और साँवले वर्ण के द्वंद्व’ का शिकार रहता है।
मानव संस्कृति और शक्ति संरचना में त्वचा के रंग का विशिष्ट महत्त्व रहा है। यूरोप और अमेरिका की पश्चिमी दुनिया (कॉकेसाइड) की प्रजातीय श्रेष्ठता में गौर वर्ण की केंद्रीय भूमिका रही। इसी तरह उपनिवेशवाद और सौंदर्य प्रसाधनों के व्यापक बाज़ार की स्थापना में चमड़ी के रंग से उपजे श्रेष्ठताबोध की केंद्रीय भूमिका रही। अमेरिका और अफ़्रीका में लंबे समय तक चले श्वेत और अश्वेत के संघर्ष के केंद्र में यही प्रजातीय श्रेष्ठता की भावना थी। यही मुख्य कारण रहे, जिनके प्रभाव ने विश्व में गोरी चमड़ी का वर्चस्व स्थापित किया। अतः उपन्यास के नायक में त्वचा के रंग की वजह से उपजा हीनताबोध, इस द्वंद्व को व्यक्ति के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर घटित होते हुए दिखाता है।
त्वचा के रंगभेद को आधार बनाकर लेखक ने आर्य और द्रविण जातियों के मेल से उपजी वर्णसंकर नस्ल पर भी प्रकाश डाला है। इस दृष्टि से ‘अम्बर परियाँ’ इतिहासबोध को लेकर चलने वाली कथा है।
लेखक बलजिंदर नसराली के अनुसार ‘अम्बर परियाँ’ की कथा में उन्होंने जादुई यथार्थवाद का प्रयोग किया है। किस तरह अम्बर की दादी सोते-सोते स्वर्गलोक चली जाती है, वहाँ वह अम्बर के दादा से मिलती है। अपने पति से बात करते हुए अम्बर की दादी को पता चलता है कि गाँव के एक पड़ोसी पर उनके कुछ रुपए उधार थे जो पड़ोसी ने वापस नहीं किए। हालाँकि उधार के रुपयों की बात इतनी पुरानी थी कि अम्बर के पूरे परिवार में यह बात संभवतः किसी को पता नहीं थी। जब दादी जागने के बाद यह घटना घरवालों को सुनाती है, तो वे लोग इस बात की तफ़्तीश करने के लिए पड़ोसी से बात करते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि यह बात सच थी। सारे लोग दंग रह जाते हैं। लेकिन अम्बर को पता है कि उधार के रुपयों वाली बात दादा ने मरने से पहले दादी को बताई थी। दादी के मरकर स्वर्गलोक जाने और दादा से मिलने वाली बात दादी की कपोल कल्पना का परिणाम थी। इसी तरह अपनी प्रेमिका ज़ोया के साथ अंतरंग क्षणों में वह परीलोक की यात्रा करता है। उसका वर्णन अम्बर ने किया है। पर दादी की नींद की तरह यह घटना भी अम्बर की कपोल कल्पना होती है।
अगर जादुई यथार्थवाद की विधा की बात की जाए तो कहानी का जादुई पक्ष कथावस्तु के यथार्थ धरातल का अपरिहार्य घटक होता है, जैसे मार्केज़ के ‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ में इंसान में पूँछ का होना और कुछ अन्य बातें कथावस्तु का स्वाभाविक और पूर्णकालिक हिस्सा हैं, न कि समय के किसी एक बिंदु पर नायक या किसी पात्र की कपोल कल्पना से उपजा घटनाक्रम।
‘अम्बर परियाँ’ के नायक के जीवन में अलग-अलग समय पर उसकी अपनी माँ और दादी से इतर चार-पाँच स्त्रियों का आगमन होता है। इन सभी स्त्रियों के जीवन में, वह गोरे रंग से उपजे अपने हीनताबोध और किताबों के प्रति अपने रुझान के कारण प्रवेश करता है। त्वचा के गोरे रंग और अपनी माँ और ताऊ के अवैध संबंध से मन में उपजे हीनताबोध के कारण वह शुरू से ही सबसे अलग-थलग रहने लगा था। किताबों ने न सिर्फ उसके जीवन में पसरे ख़ालीपन को भरा, बल्कि उसने अपने अंदर किताबें पढ़ने को लेकर श्रेष्ठताबोधजनित एक मनोग्रंथि विकसित कर ली, जिसके सामने चमड़ी का गोरा रंग सहित व्यक्तित्व के तमाम गुण उसे बौने लगने लगे। बचपन की प्रेमिका चरनी के अलावा ज़ोया, अवनीत, राबिया और नादिरा सभी देखने में गौर वर्ण वाली सुंदर स्त्रियाँ हैं। चरनी को छोड़कर सभी स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हैं और किसी-न-किसी कारण से उनमें पुरुषों के प्रति उपेक्षाभाव है। इन सबके बावजूद ये सभी किसी-न-किसी समय अम्बर के जीवन का अहम हिस्सा बनती हैं और सभी के लिए अम्बर ताउम्र याद रहने वाला एहसास बन जाता है। पत्नी के रूप में किरनजीत एक अन्य स्त्री है जो विवाह-संबंध के माध्यम से अम्बर के जीवन में प्रवेश करती है। अन्य स्त्रियों से इतर किरनजीत के प्रति उसके मन में कभी वह प्रेम भाव नहीं जागता है। यद्यपि वह हर वह कार्य करता है जो स्त्री को बराबरी का दर्जा देने वाले व्यक्ति से अपेक्षित होता है। वह किसी भी स्त्री के प्रति कभी भी आक्रामक नहीं होता है। अपनी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए भी स्त्रियों के ऊपर ख़ुद को थोपता नहीं है।
निःसंदेह पति-पत्नी के रिश्ते में वह किरनजीत के लिए मानसिक यातना का कारण बनता है, लेकिन अपनी इच्छा को वरीयता देने के साथ सभी स्त्रियों की इच्छा को भी महत्त्व देता है। बचपन के हीनताबोध और पढ़ने से विकसित हुआ स्वतंत्रताबोध उसके अंदर अलग-थलग रहने के भाव को प्रबल कर देता है। इसकी परिणति पत्नी और प्रेमिका से पृथक एकांत में होती है। जहाँ वह पत्नी-बच्चों और प्रेमिका से पृथक रहते हुए भी कहीं निर्वासन में नहीं जाता है।
समाज में हमारे आस-पास बहुत से लोग होते हैं जो अंतर्मुखी प्रवृत्ति वाले होते हैं। उनका वैचारिक पक्ष आस-पास के लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय होता है। किस तरह त्वचा के साँवले रंग जैसी बचपन की छोटी-छोटी बातें व्यक्ति के अंदर एक ऐसी मनोग्रंथि विकसित कर देती हैं, जिससे व्यक्ति ताउम्र दूरी नहीं बना पाता। यहाँ तक कि मनोग्रंथि से उपजे मनोभाव उनके जीवन की पूरी रूपरेखा निर्धारित करते हैं। इस संदर्भ में बलजिंदर नसराली ने ‘अम्बर परियाँ’ के माध्यम से मानव व्यक्तित्व के कई मनोवैज्ञानिक पक्षों को परत-दर-परत उजागर किया है। पंजाबी साहित्य जगत में जादुई यथार्थवाद के प्रयोग का संभवतः यह पहला प्रयास है। भाषा शैली में प्रवाह और अलंकारिक भाषा से पूर्ण यह उपन्यास अनूदित होने के बावजूद मूल रूप से हिंदी की रचना प्रतीत होता है। इस शानदार रचना के लिए बलजिंदर नसराली बधाई के पात्र हैं। मनोवैज्ञानिक द्वंद्वों, सामाजिक बाध्यताओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के तनाव एवं प्रेम के अतिरिक्त इस उपन्यास में बहुत से पक्ष हैं जो पाठक को आत्ममुग्ध करते हैं।
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