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इस चर्चा में सब कुछ पुराना होकर भी नया था

पहली कड़ी से आगे...

क्लबहाउस की दुनिया को बनाने वालों लोग ग़म-ए-रोज़गार से ऊबे हुए लोग थे—वे अजीब लोग थे! वे इतने अजीब थे कि अब उन्हें एक नॉस्टेल्जिया की तरह याद किया जा सकता है। जो अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी बोलने, सुनने को मजबूर थे या हो जाते।

इस जमात में सबसे पहली ख़ेप कवियों, शाइरों, लेखकों की थी। कहना ग़लत नहीं होगा कि फ़ेसबुक पर उनके सफल अतिक्रमण के बाद यहाँ पहला मारका फ़तेह उन्होंने ही किया। “वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है”—की तर्ज़ पर वे दाख़िल हुए और समूचा क्लबहाउस लिट्-फ़ेस्ट में तब्दील हो उठा।

उर्दू के नामचीन शाइरों ने एक रूम बनाया था—हमशाख़! यह किसी दुबई मुशायरे या लखनऊ मुशायरे की तर्ज़ पर ही था। यहाँ सदारत निज़ामत और कृतज्ञता-ज्ञापन भी वैसा भी था। शाइर, निज़ाम और हज़रात भी वैसे ही थे। अदब भी कुछ वैसा ही था। 

इसमें कुछ अलग था तो वो थी दाद देने की परंपरा! आह-वाह और तालियों की जगह नई तकनीक ईजाद की गई—माइक ब्लिंकिंग! ऐसा इसलिए कि दाद देने में एक तो वक़्त बहुत ज़ाया होता, दूसरा तालियों और आह-वाह का शोर अदबियत की दुनिया के मेयार को ज़रा कम ही करता।

सुख़नफ़हम लोगों के लिए शाइरी ऐसी ही तमाम मुख़्तलिफ़ नशिस्तें थीं—जो उन दिनों देर रात तक सक्रिय रहती थीं। शाम-ए-सुख़न, महफ़िल-ए-सुख़न, सुख़नवर आओ सुनाएँ, सरहद पार की शाइरी, हलक़ा-ए-उर्दू, लफ़्ज़ों का हुज़ूम। 

इसमें उर्दू का शाइरी का सबसे प्रामाणिक रूम था—रेख़्ता; जहाँ अदब की दुनिया के तमाम नए-पुराने लोग मौजूद थे, जिसके सदस्यों की संख्या तक़रीबन दस हज़ार थी।

इसी आवाज़ की दुनिया में सहकारिता के अर्थ से ठीक-ठाक परिचित अपनी आठ वर्षीय शोध-प्रबंध की योजना के बीच फ़ोन करके कवि हुए रिसर्चर भी थे। जिन्होंने फ़ोन पर ही और कइयों को कवि बनाने की एक सफल मुहिम छेड़ रखी थी और वे वादा कर आए थे कि उन्हें मुख्यधारा की कविता में वे ज़रूर ले आएँगे। वे शिवपाल यादव की राजनीतिक सहकारिता से प्रभावित थे और उससे कविता की दुनिया तामीर कर रहे थे।

इस कविता की दुनिया में भी कवियों-आयोजकों ने चुन-चुनकर रूम और हाउस बनाए थे—कविता का शहर, क़लम से कविता, कविता की संगत, सिंगापुर की हिंदी कविताएँ, क से किताब—क से कविता, कविता-पान, समकालीन कविता... इतने रूम्स कि ‘नहीं गनबे को आये हैं!’ कहना ग़लत न होगा कि कविता का सबसे मामूली पाठ ओपन-माइक पर नहीं, क्लबहाउस पर ही हुआ।

इसी क्रम में कविता-फ़ोरम जैसा रूम जो अब भी वहाँ किसी खंडहर की शक्ल में पड़ा है। जहाँ फैले अँधेरे को ‘सोन मछली-सा अँधेरी रात को पीता हुआ’ कोई दीया अब नहीं जल रहा। इसकी शुरुआत अनुराग अनंत ने की थी और वह लिखने-पढ़ने वालों की एक सामयिक बैठकी भी सुनिश्चित कर आए थे, जहाँ कविताओं की मुख्यधारा के लोग कम, पार्ट-टाइम कवि और फुल टाइम पत्रकार हुए लोग ज़्यादा थे।

एक ऐसा ही रूम चलते-चलते यूँ ही अनायास खोज लिया गया था—काव्यांगन। कविता की दुनिया में हो रहे कुछ नवातुरों ने अपनी कविता यहाँ सिर्फ़ इसलिए जमा कर दी थी कि वहाँ आलोचक दादा हुआ कोई व्यक्ति, अपनी आवाज़ में बेस भरते हुए उन्हें तसल्ली-बख़्श कर रहा था। वत्सला पांडेय जिन्होंने हाल ही में कवि-सम्मेलनों की दुनिया में प्रवेश पा लिया था—वह मॉडरेटर हुआ करती थीं। वह नई पीढ़ी के कुछ अच्छा नहीं कर पाने से हताश निराश-सा महसूस कर रही थीं।

इन तमाम बहसों के बीच कविता जो कि प्रगतिवाद और नई कविता से होते हुए नामकरण के अभाव में किसी समकालीन ठीहे पर थी—थम गई थी। उसको आटे के जैसा गूँथ दिया गया, रोटी की तरह बेल दिया गया और माड़ पसाकर भात की भाँति उबाल दिया गया। अब उसे रबड़ की तरह खींचा जा रहा था। 

वह अपनी संपूर्ण ताक़त के साथ विन्यस्त हो रही थी। विज्ञान-अध्येताओं को उसकी तान और इलास्टिक लिमिट के बारे में ठीक समुचित ज्ञान था, इसलिए वे सब मिलकर उसे यौवन दे रहे थे। यह तान शब्द किसी घर्घर नाद की तरह कविता में उपस्थित था और लगातार गूँज रहा था। 

गीति-कवि उसे अर्धरात्रि में मालकौंस की तरह अलाप रहे थे। उनके पास अलंकार और छंद के रूप में सिर्फ़ अनुप्रास और घनाक्षरी थी, जिसे उन्होंने किसी मंत्र की तरह आत्मसात कर लिया था। वेदना, पीड़ा, दुख, प्रेम, जीवन की असंगति, मिलन-विछोह सब उनकी चाकरी में लगे थे और ‘नक़ली कवियों की वसुंधरा’ लहलहा रही थी।

इन सबसे इतर गीत-गुंजन की दुनिया के सनत-सनंदन-सनत्कुमार-गीतकार-गीतऋषि ज्ञान प्रकाश आकुल जब पिंगल की नियमों की दुहाई दे मात्रा पतन को अपराध बता रहे थे, तो बग़ल के रूम में दोहे की दुनिया के वितान को तानता हुआ कोई मनमीत सोनी किसी रचित दीक्षित से बह्र, छंद और मात्राओं की गणितीय व्याख्या माँग रहा था। 

यह मनमीत सोनी के मनमीत ‘चुरूवी’ होने और साहित्य में उसके दिवालिया होने के बहुत पहले की बात है। यह उस समय की बात है, जब वह अपने समकालीन गरिष्ठ-वरिष्ठों को अपने दोहे से लुभा रहा था। फ़ेसबुक पर सेनेटाइजर शीर्षक से अट्ठाईस क्षणिकाओं की शृंखला लिख आई हर्षिता पंचारिया क्लबहाउस पर स्वस्तिवाचन कर रही थीं। 

मैथिल लड़कियाँ मिथिला पेंटिंग पर बात करते-करते थक जा रही थीं। उनका दम फूल जाता तो वे अचानक शारदा सिन्हा के गीत गाने लगती थीं—“बलमुआ हो नील रंग चुनरी रंगईबे...”

यह सब कुछ इसी नएपन की चर्चा में हो रहा था।

मास्टर्स की दुनिया से ऊब गए स्नातक यूपीएससी अखाड़े में सिविल सर्विसेज़ की बहस में ओल्ड राजेंद्र नगर की दुनिया में ब्रह्मांड भर का सिलेबस बाँच रहे थे। प्री की दुनिया से जूझ रहे मॉडरेटर थे। मेन्स की सदिच्छा से भरे हुए स्पीकर्स और केवल  पीसीएस के बारे में सोचने वाले लिसनर्स थे।

इस बीच कविता-पान से ऊबकर आए हुए लोग सरिता रस्तोगी के ढाबे यानी रूम की तरफ़ भागते हुए रसानुभूति कर रहे थे, जहाँ व्यंजनों के उद्भव, क्रमिक विकास और भोजन शैली के बीच पकौड़े के क़रारेपन पर बहस नहीं बहसे थीं।

इस चर्चा में सब कुछ पुराना होकर भी नया था।

यहाँ समाजशास्त्र की नई परिभाषाएँ, अर्थव्यवस्था की मुश्किलें, सरकार की नीतियाँ, साहित्य में स्कोप, मैं लिखना चाहता हूँ... से लेकर लिखने की समस्याएँ... तक , लोकतंत्र में लोक और तंत्र की प्रतिशतता आदि... आदि  सब कुछ था। यहाँ छंद पर कुमकुम नहीं—बहस थी। इस क्रम में दोहे पर बहसें थीं, ग़ज़ल पर बहसें थीं, स्वास्थ्य पर बहसें थीं, रसोई पर बहसें थीं—“धूप में घोड़े पर बहस” बिल्कुल न थी। इस समय में इस समय का क्या हुआ... जानेंगे अगली कड़ी में। तब तक के लिए परदा गिरता है। बने रहिए... 

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अगली बेला में जारी...

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