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‘मुक्तिबोध’ की परम अभिव्यक्ति ‘विद्रोही’

मुक्तिबोध का रहस्यमय व्यक्ति जो उनके परिपूर्ण का आविर्भाव है, वह रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ है। मुक्तिबोध के काव्य में बड़ी समस्या है—सेंसर की। वहाँ रचना-प्रक्रिया के तीसरे क्षण में ‘जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि’ सक्रिय हो जाती है, कवि पर तमाम दबाव काम करने लगते हैं, जिससे अभिव्यक्ति जिन शब्दों में करनी थी, उनको ‘सेंसर’ करना पड़ता है। इसके अलावा कई अन्य जगह मसलन ‘एक लंबी कविता का अंत’ और ‘सड़क को लेकर एक बातचीत’ में मुक्तिबोध निम्न मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग की सौंदर्य अभिरुचि का अंतर और उसके कारण कविता पर सेंसर और संपादकों द्वारा ‘आवेश काटने’ की माँग मुक्तिबोध दिखाते रहे हैं। इस सबके परिणामस्वरूप मुक्तिबोध भाषा और भाव के द्वंद्व को सुलझाने में इस तरह दयनीय महसूस करते हैं कि कह उठते हैं—

कहते हैं लोग-बाग बेकार है मेहनत तुम्हारी सब
कविताएँ रद्दी हैं।
भाषा है लचर उसमें लोच तो है ही नहीं
बेडौल हैं उपमाएँ, विचित्र हैं कल्पना की तस्वीरें
उपयोग मुहावरों का शब्दों का अजीब है
सुरों की लकीरों की रफ़्तार टूटती ही रहती है।
शब्दों की खड़-खड़ में ख़यालों की भड़-भड़
अजीब समाँ बाँधे है!!
गड्ढों भरे उखड़े हुए जैसे रास्ते पर किसी
पत्थरों को ढोती हुई बैलगाड़ी जाती हो।
माधुर्य का नाम नहीं, लय-भाव-सुरों का काम नहीं
कौन तुम्हारी कविताएँ पढ़ेगा

एक अन्य जगह मुक्तिबोध इतना अधिक हताश हैं कि अपने मित्र से प्रश्न पूछते हैं—‘‘क्या मैं अपनी हिंदी सुधार सकता हूँ? उसे सक्षम, सप्राण और अर्थ-दीप्त कर सकता हूँ।’’ 

मुक्तिबोध जानते थे कि उनमें आवेश है—‘परंतु है गंभीर आवेश’—सेंसर लगाने वालों को आवेश से चिढ़ थी। ये सेंसर समाज, नैतिकता, बाज़ार, राजनीति, संस्कृति व संपादक सब ओर से हैं। इन सब व्यवस्थाओं को उच्च मध्यवर्ग क़ब्ज़ाए हुए है, अतः उसे निम्न मध्यवर्गीय क्रोध और आवेश कविता में जमता नहीं है। लेकिन मुक्तिबोध जानते थे, ‘‘अरे इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा काम नहीं चलेगा।’’ लेकिन ‘मस्तिष्क की शिराओं में तनाव दिन रात था’ कि ‘अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे’।

मुक्तिबोध के यहाँ कल भूखे रह जाने का डर है। परिवार के भटकने का डर भी, इसलिए ‘वह मेहतर मैं हो नहीं पाता...’ तब ‘तीन-तीन बहनों का भाई’ रमाशंकर जिसका भी अपना परिवार है, पूँजीवादी व सामंतवादी शोषण और मिथकीय कुतर्कों से असहमति दर्ज करते हुए सीधा भिड़ जाता है और मुक्तिबोध का मेहतर बन जाता है। लगता है कि जैसे मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की वेशभूषा और दशा वर्णित है—

किंतु वह फटे हुए वस्त्र क्यों पहने है?
उसका स्वर्ण वर्ण मुख मैला क्यों?
वक्ष पर इतना बड़ा घाव कैसे हो गया?
उसकी इतनी भयानक स्थिति क्यों है?
रोटी उसे कौन पहुँचाता है?
कौन पानी देता है?
फिर भी उसके मुख पर स्मित क्यों है?
प्रचंड शक्तिमान क्यों दिखाई देता है?

विद्रोही को कविता छपवाने की चाह नहीं है, आत्मविश्वास के साथ कहते हैं—‘हक़ीक़त वही है जो मैं कह रहा हूँ’ कोई द्वंद्व नहीं है, जबकि विद्रोही इन तमाम सेंसर आदि साज़िशों से परिचित हैं—

तुम कहने कहाँ देते हो कवि को 
कि जिसके पास कहने के अलावा 
और कोई काम नहीं है 

विद्रोही मुक्तिबोध के मेहतर हो गए हैं। कबीर की तरह समाज, राजनीति और बाज़ार के प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ हैं, उनकी घोषणा है—

ऐसे वैसे के झगड़े में 
सर तेरे भी हैं 
सर मेरे भी 

जब तक मूर्खता होती रहेगी—कुतर्क गढ़े जाते रहेंगे, तब तक विद्रोही विरोध के लिए बिना किसी दबाव के वचनबद्ध रहेंगे। ‘अब दबने से दब न सकता हुस्न-ए-इंक़लाब’—कहते हुए विद्रोही हर सवाल के जवाब देने की घोषणा करते हैं। सब अंधपनों को निशाने पर लिए हैं विद्रोही—‘धर्म का फूटे’ कुएँ से जो ‘धर्म का फूटा लोटा’ भरा जा रहा है। ‘उधार का गुड़, मेहमानों का अरवा, चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर’—विद्रोही इससे व्यथित हैं। ‘खीर खाकर बच्चे’ जनने जैसे मिथकीय छद्म भाषणों से लेकर ‘धर्म की किताबों में, घासों का गर्भवती हो जाना’, विद्रोही के मस्तिष्क को भाता नहीं है। विद्रोही ने मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशजों द्वारा बनाई गई ‘हायरार्की’ (सोपानक्रम)—‘उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गाँव / और जब नहीं चलता इससे भी काम / तो धर्म के मुताबिक़ / काट लेते हैं एकलव्यों का अँगूठा’—को बिना चश्मे के नंगी आँखों से देख लिया है। विद्रोही धर्म की हर उस आज्ञा को अपनी कविता में बेनक़ाब कर रहे हैं, जो उम्मीद कर रहे हैं कि ‘महसूस करें कि भगवान् गंदे में भी गमकता है’।

किसकी हिम्मत है? इतनी बेबाकी से, कृषि-क्रांति के बाद से शोषण की जो परत जम रही है उस पर सीधा आघात कर दे। कोई सेंसर विद्रोही को रोक नहीं पा रहा है। हालाँकि उनके जीते जी उनकी कविताएँ इस ‘बास्टर्ड सोसायटी’ में किसी संपादक द्वारा छापी नहीं जा सकीं, क्योंकि संपादक अपने कल की भूख से चिंतित हैं। महसूस होता है कि विद्रोही ने मुक्तिबोध की परम अभिव्यक्ति-सा रूप धारण कर लिया हो। 

विद्रोही की कविता सामंतवाद और पूँजीवाद के ख़िलाफ़ वर्ग-संघर्ष की राजनीति से प्रेरित कविता मात्र नहीं है। उनकी कविता में लीक और बंधन से लेकर किसी भी प्रकार अन्याय का विरोध है। उनके वर्ण या जाति का प्रश्न उठाया गया है जहाँ—‘बाभन का बेटा बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है’ और स्त्री-मुक्ति का प्रश्न भी है जहाँ—‘क़ानून के मुताबिक़ / दे दिया जाता है सीताओं की ख़रीद-फ़रोख़्त का लाइसेंस...’ विद्रोही अपने समय के हर अन्याय के ख़िलाफ़ विवाद में कूदने जाते हैं।

सदियाँ बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाक़ी रह जाती है 
ख़ून की शिनाख़्त,
गवाहियाँ बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गाँव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि काग़ज़ात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।

सेंसर से पीड़ित कवि-हृदय राजनीति व व्यवस्था से सर्वाधिक ख़ौफ़ खाता है। राजनीति के सामने विद्रोही अपनी खुली छाती लेकर बंदूक़ उठाए चले गए हैं। ‘रीगन’, ‘इंदिरा’,  ‘सोनिया चाची’ ‘अटल चाचा’ का सीधा वर्णन है उनकी कविताओं में। व्यवस्था मिथकों पर टिकी है—युवाल नोआ हरारी ने यह बात अपनी किताब में लिखी ही है। मिथक जो काल्पनिक हैं, इस काल्पनिकता को सीधे शब्दों में विद्रोही ने सामने रख दिया है—

डरो नहीं पेड़ों से पेड़ों में भूत नहीं होते  
डरो नहीं मंदिरों से मंदिरों में देवता नहीं होते

तथाकथित धार्मिक जन जिनके मस्तिष्क में मध्यकालीन मवाद भर हुआ है, उनका विद्रोही को तनिक भी डर नहीं है—

क्या है पैग़म्बरी का क्या किताबों का हुआ 
क्या हुआ अल्लाह का मजहबों का क्या हुआ 

कच्छप, नरसिंह, गाय, गीता, गंगा, गायत्री, परशुराम—‘इस तरह पुत्र पिता का हुआ और पितृसत्ता आई’—और हनुमान—‘मगर मेरे बेटे हनुमान तेरी पूँछ न जली’—सभी के दुरुपयोग को विद्रोही ने सामने लाकर रखा दिया है।

आधुनिक काल में अंध आस्था बाँटती हिंदी कविता और साहित्य अकादेमी बटोरते कवियों की हिम्मत नहीं है कि यह कह सकें—

ये ख़ुदा का हल्ला झूठा है 
ये मेरा हाजी कहता है
लुकमे के लिए लुक़मान अली 
अल्ला-अल्ला चिल्लाता है 

विद्रोही युवाओं के दिलों पर राज करने वाला कवि है, क्योंकि उसने अपनी पब्लिक से निष्ठा निभाई है—‘मेरी हिम्मत नहीं है मेरे दोस्तों अपनी पब्लिक का कोई हुकुम मेट दूँ...’ 

विद्रोही की पब्लिक उस ‘बास्टर्ड  सोसायटी’ से अलग कबीर का ख़ून लेकर पैदा हुई है।
विद्रोही के माथे पर सिलवटें हैं, मुँह पर कोई औदात्य नहीं है जो सुरक्षा और कल की भूख से चिंतित लोगों को मुग्ध कर सके और उन्हें अपना ग़ुलाम बना सके। विद्रोही की शक्ल मुक्ति देती है। विद्रोही जब बोलते हैं, तो उसमें पीड़ा है, आवेश है। मुँह से फिचकुर निकलता है। यह किसी भी दिल्ली वाले उच्च मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए ग्राहय नहीं है। वे विद्रोही द्वारा दी जा रही असुरक्षा से डरते हैं। विद्रोही किसी भी प्रकार की सुरक्षा देने का दावा नहीं करते, इसलिए उनके साथ चलने में घर को जलाने की माँग है। विद्रोही कहते हैं—‘मैं इतना भयानक हो गया हूँ कि लोग मुझे छूना नहीं चाहते...’

मुक्तिबोध की दूरदर्शिता मरने के बाद ख़ूब सराही गई। हर चौथे आलोचक ने उनको उद्धृत करके लिखा कि ‘पार्टनर अब फ़ाशिज़्म आ जाएगा’, उनकी फ़ैंटेसी में जनक्रांति के दमन निमित्त लगे ‘मार्शल लॉ’ का चित्र उभारा गया। अगर बिना किसी फ़ैंटेसी के आप इसे सुनना चाहते हैं (पार्टनर अब फ़ाशिज़्म आ जाएगा) तो मेहतर यानी विद्रोही की तरफ़ आइए—

हमारा महान् देश… तब पिट चुका होगा
लुट चुका होगा 
बिक चुका होगा
कालांतर में इस देश को 
ख़रीद सकता है 
अमरीका नहीं इटली का एक लंगड़ा व्यापारी 
त्रिपोली।

आज जब गांधी के हत्यारे उनकी समाधि पर फूल चढ़ा रहे हैं, तो उन्हें नग्न कर रही है, विद्रोही की कविता—

दंगों के व्यापारी 
कोई फ़ादर-वादर नहीं मानते 
यही लोग अब्राहम लिंकन को भी मारे 
यही महात्मा गांधी को भी 

सभी सेंसरों से मुक्त—ख़ूनी को ख़ूनी कह रहे विद्रोही की ये कविताएँ ‘बड़ों के ख़िलाफ़ भाँजी लाठी हैं’ और विद्रोही—

वह खोई हुई परम अभिव्यक्ति
अनिवार आत्मसंभवा!

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