भारत भवन और ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की पांडुलिपियाँ
शशांक मिश्र
11 सितम्बर 2025
जब हमने तय किया कि भारत भवन जाएँगे तो दिन शाम की कगार पर पहुँच चुका था। ऊँचे किनारे पर पहुँचकर सूरज को अब ताल में ढलना था। महीना मई का था, लिहाज़ा आबोहवा गर्म थी। शनिवार होने के बावजूद लोगों की उपस्थिति इक्का-दुक्का रही होगी। अनुमानतः मौसम के चलते, यह मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रेलवे स्टेशन और बस अड्डा छोड़ शहर भटकने का पहला अवसर बना था।
साल था 2023—महामारी की लंबी छाया पीछे हट रही थी और लोग धीरे-धीरे अपने चेहरों से मास्क उतार रहे थे। अब जबकि हर बड़े शहर की ‘टॉप 10 जगहें’ यूट्यूब पर चटख़ारेदार थंबनेल के साथ मौजूद हैं, ‘औचक’ का सुख लगभग दुर्लभ हो चुका है। कहीं जाने से पहले उसके बारे में कुछ भी जानकारी न होना, कई मायनों में सुखद होता है। वर्षों से रखीं वस्तुओं पर जब आपकी नज़र पड़ती है, तो नई दृष्टि मिलती है; यह सुख को खोदकर गहरा कर देती है, उसे बने रहने के और क्षण देती है। सारा खेल भी सुख के क्षण लंबे खींचने का ही तो है। ख़ैर...
भारत भवन का सिर्फ़ नाम सुना था लेकिन यूट्यूब, गूगल आदि पर तस्वीरें-वीडियो नहीं देखी थीं। यह अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे; हर सूर्यास्त का घटनाक्रम नियत है, लेकिन मायने यह रखता है कि आप किस स्थान पर, किस भाव के साथ, किस व्यक्ति के संग लंबी गोधूलि का हिस्सा हैं।
बहरहाल, भारत भवन में यह लौटे पहर (वह समय जब कामगार खेतों से घर वापस आ रहे होते हैं) का वक़्त था जोकि जमुहाई और ज़रूरी झपकियों के लिए आरक्षित था। रूपांकर (ललित कला संग्रहालय) के रखवाले देशभर की लोक और आदिवासी कला को सुरक्षित रखने के बोध के साथ सुस्ता कर उठे ही थे। कलाकृतियों को हाथ की जगह मन से छूने की नसीहत देकर और तस्वीरें लेने पर मौखिक पाबंदी लगाकर, वे फिर से कुर्सीबद्ध हो गए। मानो समय और कला के बीच संतुलन बनाए रखना उनका स्वाभाविक कर्तव्य था। तो हमने बिना किसी पूर्व योजना के भूलभुलैया जैसे जहाँ-तहाँ पदचिह्न छोड़े और कुछ पसंद की जगहों पर ठिठक गए और मिनटों तक ठिठके खड़े रहे।
हमारे आलस्य में भी एक छिपी हुई, जानी-पहचानी योजना रहती है
—मुक्तिबोध
जहाँ देर तक ठिठके खड़े रहे उसके क़रीब एक पुस्तकालय था। दरवाज़ों-खिड़कियों पर काँच का कवच लेकिन फिर भी शांति बनाए रखने की निहित अपेक्षा थी, सो बनाई भी गई। हॉल का दरवाज़ा बड़े ताल की ओर खुलता है। हॉल में कई प्रसिद्ध कवियों की सचित्र कविताएँ दीवारों पर फ़्रेम में टंगी हैं। सिर्फ़ अटकलें ही हैं कि समय-समय पर काल-परिस्थिति-सत्ता-प्रासंगिकता के आधार पर नयेपन के लिए फ़्रेम चमकाने के लिए कवि ही बदल दिए जाते हों, यथार्थ चाहे जितना बैसाखी के सहारे खड़ा होकर जीवित रह ले—उसे एक-न-एक दिन इतिहास होना ही पड़ता है।
यहीं पुस्तकालय से कुछ गज़ की दूरी पर मुक्तिबोध की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ रखी हैं। कांच के नीचे, सहेजी हुई—अकेले में। दिन के उजाले और ‘अँधेरे में’।
एक शख़्स था, उसकी एक वायरल तस्वीर है—मुँह में लगी सुलगी बीड़ी है। ये एक कालजयी कवि—‘मुक्तिबोध’ का भौतिक विवरण है। पूरा नाम गजानन माधव मुक्तिबोध।
2018 में जब दिल्ली आया तो उससे पहले भोपाल जा चुका था, लेकिन भारत भवन नहीं गया था। तब यहाँ दिल्ली में पहली बार पुस्तकालय में मुक्तिबोध को पढ़ा था। फिर जितना और पढ़ा, उतनी और कचोट हुई। संवेदना और मनुष्यता में इज़ाफ़ा भी हुआ।
पत्नी, बच्चे, समाज और रोज़मर्रा की तकलीफ़ों के बीच लंबी कविता के धनुर्धर मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में लिखा था—“मैं एक ज़बरदस्त जीवन जीना चाहता हूँ, बिजली से भरा जीवन। धूप में एक असीम भूरे रंग के क्षेत्र के रूप में सुनहरा जीवन। एक ऐसा जीवन जिसमें इच्छाओं का पूरा किया जाता है।”
ट्यूबरकुलोसिस (तपेदिक) से भारत में लाखों जानें जा चुकी हैं। हर साल जाती हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जिस वर्ष प्राण छोड़े, उसी साल एक और मौत हुई थी। मुक्तिबोध की। सिर्फ़ 47 वर्ष का जीवन।
ज़बरदस्त और बिजली भरे जीवन की चाह में जो खपा, घटा, बीता—वह बाह्य और आत्म संघर्ष के बीच का पुल है। जो हर संजीदा पाठक के लिए एकाकी की पहली सीढ़ी है।
मुक्तिबोध का जीवन—झेल लेने की अमान्य परिभाषा है।
मुक्तिबोध का जीवन—समाज, व्यवस्था, प्रेम आदि के लघुउत्तरीय प्रश्न का दीर्घउत्तरीय जवाब है। यह भी ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता कि मुक्तिबोध का संघर्ष ज़्यादा गहरा या गाल के गड्ढे। अशोक वाजपेयी ने उन्हें ‘गोत्रहीन कवि’ बताया था और बाद में ‘निराला 2.0’।
मैं कविताओं से बचता था, अभी भी बचता हूँ लेकिन मुक्तिबोध ने प्रक्रिया में फँसा दिया था। मुक्तिबोध कविता कला में ‘Enjoy The Process’ के महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं। उनकी कविताएँ जीवन की गुरु हैं। मुक्तिबोध प्रिय हैं। मुक्तिबोध अमर हैं।
आदमी दुनिया में सुख-दुख भोग के बदले सिर्फ़ कार्बन फुटप्रिंट्स ही छोड़कर नहीं जाता, क्योंकि सवाल अब तक वही है जो मुक्तिबोध ने उछाला था—
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!
तो अगली बार आप जब भोपाल जाएँ, तो भारत भवन ज़रूर जाएँ। प्रांगण में भटकें, मुक्तिबोध से मिलें, मुक्तिबोध को पढ़ें, मुक्तिबोध को याद रखें।
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