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स्पर्श : दुपहर में घर लौटने जितना सुख

सोमवार से बहाल हुई दिनचर्या शुक्रवार शाम की राह तकती है—दरमियान का सारा वक़्त अनजाने निगलते हुए। एक जानिब को कभी लगा ही नहीं कि सुख शनिवार का नहीं, उसके पास जाने की हल्की तलब का होता है। कितना मुश्किल है—यह याद कर पाना कि आख़िरी बार दुपहर में घर कब लौटे थे!

लौटना अपने आपमें भरपूर सुख है। लौटना—पुरानी स्मृति से, किसी दुख के बीच से, चलते दफ़्तर से या भविष्य की चिंता से। तिस पर दुपहर में लौटना। 

दिन—एक छोटे बच्चे से जबरन पढ़वाई गई 1 से 100 तक गिनती जितना होता है और सुख इतना क्षणिक कि गिनती पढ़ता बच्चा 96-97 आते-आते फिर एक बार फेफड़ों में साँस भरने के लिए रुका हो।

ऊपर लिखे शब्दों और तस्वीर में अनिरुद्ध [नसीरुद्दीन शाह] और कविता [शबाना आज़मी] हैं। हल्की सर्दी और धूप है। दुपहर का वक़्त है। 

Photograph फ़िल्म का एक संवाद याद आता है :

“फ़ोटोग्राफ़ मैडम,
गेटवे के साथ ताज, मैडम
इंस्टैंट
सालों बाद जब आप ये फ़ोटो देखेंगी तो आपको आपके चेहरे पर यही धूप दिखाई देगी...”

शायद यह धूप... वही सालों बाद वाली धूप है।

सई परांजपे की ‘स्पर्श’ सन् 1980 में आई—जिस साल उनकी ‘साज़’ आई, उसी साल में। 

यह धूप 29 की फ़रवरी के अतिरिक्त दिनों को मिला देने के बाद कुल जमा देखे दिनों से अलग दिखी। 

विचार-विमर्श में यही विडंबना हावी रही कि धूप मतलब गर्म। जबकि यथार्थ इसके उलट है। वह स्मृति, बीते दिन; बीती दुपहरों की हल्की धूप है, जिससे मन को ‘ठंडक’ मिलती है। 

अनिरुद्ध दृष्टिहीन हैं और एक अंधविद्यालय चलाते हैं। उनके अनुरोध पर कविता संस्था से जुड़ती हैं और बच्चों को पढ़ाने के काम में लग जाती हैं। यह सामान्य शिक्षण नहीं है। दृष्टिहीन छात्रों के बीच फिर से बच्चा बन जाने जैसा ‘सूक्ष्म’ कार्य है, जिसमें विशाल जतन लगता है। कविता न केवल इसे स्वीकारती हैं, वह सहजता की नई परिभाषा गढ़ते हुए उन बच्चों को अपनी आँखों से दुनिया दिखाती हैं। स्नेह के साथ-साथ सावधानी भी, ताकि बच्चों को तनिक भी ‘कमतर होने’ का एहसास न हो।

‘स्पर्श’ में एक दृश्य है :

अनिरुद्ध और कविता इसी दुपहर में लौटते हैं—कविता के घर। वह कविता के घर में दुबारा घुमावदार सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। अनिरुद्ध ने पिछली बार सीढ़ियाँ हाथ में छड़ी लिए और सुर पकड़कर चढ़ी थीं। इस बार कविता साथ हैं। कविता दो कॉफ़ी बना लाती हैं। सिगरेट जलाने, ऐश-ट्रे रखने और कॉफ़ी पकड़ने के बीच अनिरुद्ध के हाथ का स्पर्श फूल चढ़े फ़्रेम से होता है, जिसमें कविता के दिवंगत पति की तस्वीर लगी है। 

पैंतालीस साल पुरानी इस फ़िल्म में दृश्यों के साथ-साथ प्यार, दुलार, खीझ, दुख, सुख, उदासी, अकेलापन, करुणा, आत्म-ग्लानि और ख़ूब मौन भी है।

हमेशा ऐसा लगता रहा है कि दुनिया ने नौ स्थायी भावों को सूचीबद्ध कर अपना पल्ला झाड़ लिया है। 

आप जब ऐसी फ़िल्में देखते हैं—कुछ ऐसा महसूस करते हैं जो इन नौ में से नहीं है। 

आप मौन हो जाते हैं। 

निर्मल वर्मा ने ‘शब्द और स्मृति’ शीर्षक एक निबंध में लिखा है :

“मौन एक तरह की हताश ख़ामोशी है, जो संप्रेषण की असमर्थता के कारण उत्पन्न होती है।”

बेचारा होने से ख़तरनाक बेचारा समझे जाने की खीझ होती है। अनिरुद्ध के अंधकारमय जीवन का यही मौन है। कविता को दुख की आदत हो गई थी। लेकिन फिर नवजीवन अंधविद्यालय मिला, अनिरुद्ध मिले तो कुछ छँटा-बढ़ा, और कुछ जगह बनी।

सई परांजपे इस स्थिति के लिए फ़िल्म में कविता से संवाद बुलवाती हैं : 

“फिर एक दिन
ऐसा लगा
मानो धूप निकल आई हो...”

स्पर्श को देखने से पहले और बाद की दुनिया क़तई एक जैसी नहीं है। यह पकड़कर झकझोर देने जैसा है; ताकि कुछ देखने, सुनने, सहने और यात्रा करने की जगह बन सके।

और
यात्रा सिर्फ़
“ख़ाली प्याला, धुंधला दर्पण, ख़ाली-ख़ाली मन” 
से 
“छलका प्याला, उजला दर्पण, जगमग मन आँगन” 
तक है। 

इसके बीच मौसमों का समुच्चय है। 
दुरुस्त चलते रहने की प्रार्थनाएँ हैं।
रिश्तों में समझे जाने की आकांक्षा है।
अच्छी स्मृतियों का मोह है।
और दुपहर में घर लौटने की इच्छा है।

••• 

‘स्पर्श’ यहाँ देख सकते हैं : YouTube

 

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