लोक : ओरी से उतरती अंतिम बूँद का परब
अंकित दुबे
13 अक्तूबर 2025

आँगन की वह जगह जहाँ छप्पर का पानी धरती पर ढरता है, उसे ‘ओरी’ कहते हैं। कवि मलिक मोहम्मद जायसी कहते हैं—‘बरिसै मघा झँकोरि झँकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी॥’ ओरी का इससे सुंदर बिंब और क्या होगा। अनवरत और निरंतर, पानी का बूँद-बूँद झरना।
‘बँड़ेरी’ वह जगह है, जहाँ से छप्पर की ढलान शुरू होती है। यह दो विपरीत दिशा के ढलानों को जोड़ता है। जैसे जीवन के दो पक्ष, बाहर की ओर चुआ पानी ‘गमन’ और आँगन की ओर का पानी ‘आगमन’ सूचित करता हो। लेकिन जाना भी तो आने के लिए है, हम हिंदू चूँकि पुनर्जन्म की अवधारणा मानते हैं—जो गया वह लौटता है। बूढ़ा जाता है, बालक बन लौटता है। जीवन नया-पुराना होता रहता है।
बरखा के महीनों में एक घर के लिए पानी की पूरी यात्रा बँड़ेरी से ओरी तक की है। उसके बाद वह जल आँगन को धोता हुआ, नालियों में निकल जाता है। जीवन की गति भी कुछ ऐसी ही ठहरी, बँड़ेरी से ओरी की ओर चलती धरती पर ढर जाने वाली।
असंभव को संभव करने की बात होती है, तब लोक ने इसी के ऊपर एक कहावत बना ली ‘ओरी के पानी बँड़ेरी चढ़ल’—अर्थात् जो नहीं हो सकता उसका होना। मगर अब तो न छप्परों वाले घर हैं और न उसमें ओरी-बँड़ेरी-आँगन बचे हैं। फिर पीढ़ियों से घर के इस ढाँचे के साथ चलती आ रही कहावत का क्या हो! आस्तित्व का संकट।
हमने अपना पुराना घर देखा है, ठीक कहावतों वाला। नया घर पक्का था, पानी समतल पक्की छत से आँगन की ओर आता था, ओरी-बँड़ेरी के बग़ैर सीमेंट के खंभों से लगी खड़ी लंबवत नालियों से बह कर चार कोनों से आँगन में ढरने वाली। नए घर में आँगन था। बनवाने वाले को मालूम था कि आँगन ही न रहा तो उसमें आकर बैठने वाली संस्कृति किस ठौर जाएगी।
समतल छत में रहने वालों में जैसे जीवन को लेकर सोच बदल गई। अब गमन-आगमन वाली बात शायद जाती रही है। पड़ाव जाते रहे हैं। सबकुछ एक समान समतल चलता है। समतल जीवन भी जैसे एक। वन लाइफ—जो करना है, इसी में करना है। करना क्या है, देह-नेह सबका जितना हो सके सुख ले लेना है, क्योंकि ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’।
बरखा के तीन महीने बीतते ही जब आसिन (आश्विन) का महीना आता है, ओरी के नीचे बैठना मना हो जाता है। अचानक से यह जगह जैसे अछूता, अनुल्लंघनीय और पवित्र हो जाती है। पूर्वजों का स्थान जो है, बैठो तो पुरखे पीछे से चिकोटी काटने लगते हैं। काटते तो कभी महसूस न हुआ, मगर दादी ऐसा ही बतातीं। कई बार तो उनकी आँख बचाकर जानबूझ कर बैठते कि कोई चिकोटी काटता है कि नहीं। जब नहीं काटता तब लगता कि दादी औल-फौल बकती हैं। उनका बुढ़ापे से सठिया जाना तब और साबित होता, जब एक हाथ और आगे बढ़ कर कहतीं कि सप्तमी को तुम्हारे दादा आएँगे, परदादा और लकड़दादा भी, अपनी-अपनी पत्नियों के साथ। वे कहतीं कि उन्हें देखने के लिए चार बजे सुबह जगे रहना।
माँ के साथ सोने और जगने वाला, उनका आँचल पकड़ कर चलने वाला बालक कैसे न जगता। माँ जब उठतीं और ओरी के पास लालटेन जलता, नींद की बोझिल आँखों के साथ मद्धम रौशनी में सबकुछ रहस्यमय मालूम होता। जब वे ‘सतपुतिया’ के पत्तों पर दही-चिवड़ा ‘ओठगन’ चढ़ातीं और पुरखों के नाम लेतीं, अजब लगता। मगर तब भी वे दिखाई नहीं देते। ‘सरगहि’ का प्रसाद खाकर सोते तब दिन चढ़ते ही कहीं जाकर आँख खुलती। रात कोई नहीं दिखा, ठगा-सा महसूस होता। ऊपर से दादी पूछ कर ग़ुस्सा दिला देतीं कि ‘अपने दादा को देखे रात?’
अम्मा का दिन भूखे-प्यासे बीतता, ‘जिउतिया’ का व्रत। पूरे दिन चिल्हो-सियारो के साथ किन्हीं जिउतबाहन नाम के देवता का नाम सुनते। अम्मा को बेलपत्र पर धूप-तिल-घी और जौ रख कर बहाते देखते। बरियार का पौधा बाँधते देखते और मंत्र की तरह भगवान को इसकी सूचना भेजते-सुनते—
‘ए अरियार
त का बरियार
जा के भगवान जी से कहिय समुझाय
बबुआ के माई जिउतिया बा’
अगले दिन की सुबह उसी ओरी की दीवार पर घी और सिंदूर का लेप देखते। खीर चढ़ते, धूप का धुआँ उठते देखते। माँ बच्चों के नाम से गाँठें लगाकर जिउतिया का धागा पहनतीं। कभी न सड़ने वाले अनाज ‘केराव’ के दाने को अपने हर एक बच्चे का नाम लेकर पानी की घोंट देकर निगल जातीं। व्रत पूरा होता।
आज वही रात है, कुछ घंटों में भोर होगी। परदेसी जीवन की विडंबना लिए वह सब देखने से महरूम हूँ। पुरखों के आने वाली भोर। उनके न दिखने पर मनगढ़ंत कहानी सुनाने के लिए दादी को कोसने का समय।
अब वह उत्सुकता कैसी! अब तो जवान हैं और जवानी भी समझदारी आने के साथ जाने लगी है। अब कौन बहला सकता है कि पुरखे अपनी जगह ख़ाली करवाने के लिए चिकोटी काट कर उठा देंगे। दादी के साथ दादा और अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उनके पहले के मेरे पुरखे आएँगे, यह अवैज्ञानिक बात कौन माने! अब तो यह सब पट्टी पढ़ाने वाली दादी भी नहीं, वह बूढ़ी तो और नहीं दिखेगी। अपनी थोथी कहानियों के साथ कपूर-सी जैसी कहीं उड़ गई।
बालपन गया, युवावस्था आई और अब जवानी की फ़सल पककर तैयार है। अब तो हम सब जान-समझ गए हैं। आस्था की जगह तर्क और भावुकता की जगह बुद्धिमत्ता ने ले ली है। विकास के क्रम में काश हम जोड़ पाते! हम एक की जगह दूसरे के हवाले ही तो करते रहे हैं! बचपन की जगह जवानी, जवानी की जगह बुढ़ारी और बुढ़ारी की जगह मौत। मगर कैसा हो कि जवानी में बचपना मिला हो, बुढ़ापे में जवानी सटी हुई हो और मौत के बाद ज़िंदगी की एक संभावना कहीं घुले। हमारे लोक ने इसी विकास को माना है जो एक को अपदस्थ कर दूसरे को नहीं लाता बल्कि दोनों को आपस में मिला देता है। इसने मौत और जीवन की एक मिली-जुली अवस्था भी इज़ाद की हुई है।
मेरे भीतर ‘ओरी का पानी बँड़ेरी’ चढ़ आया है। विकासक्रम प्रश्नचिह्नित लगता है, लोक का सिद्घांत मन में भर गया है। तर्क और भाव में, प्रतीक और अनुपस्थित में जैसे संवाद हो रहा है। वे मेरे पूर्वज हैं जो बरखा ऋतु के अंतिम महीने की आख़िरी बूँद के साथ बँड़ेरी से ओरी की तरफ़ आकर चू गए हैं। आँगन में जो पानी गिरा है, वह हम और हमारे साथ जीवित परिजन हैं।
ओरी सच में उन्हीं की जगह है, जिनके बीतने से हम आए हैं। वे चिकोटी काटें-न-काटें हमें उनकी जगह पर नहीं बैठना है। इस बरसात की अंतिम बूँद में उनका अक्स देखना है। ओरी से बूँदों के झरने में जीवन-मरण के क्रम की अनवरत निरंतरता का संधान करना है। उन सबको नमन करना है...
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