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भाषा में पसरती जा रही मुर्दनी

लेखक-पत्रकार प्रियदर्शन द्वारा अरुंधती राय की नई पुस्तक ‘मदर मेरी कम्स टु मी’ की भूमिका को संदर्भ में रखते हुए लिखा गया एक संक्षिप्त लेख पढ़ा, जिसमें यह बात कही गई कि हमारी भाषा अब स्थिर हो रही है। वह आगे नहीं बढ़ रही। उसमें बदलाव नहीं हो रहे, जो कि भाषा के विकास और उसकी उपयोगिता के लिहाज़ से एक अप्रिय स्थिति है। हम इस पर थोड़ा विचार करें तो शायद इसके बहुत से कारणों में से कुछ को उजागर करने में सफल हो सकते हैं।

अगर भाषा की उन्नति को जाँचने की कसौटी उस भाषा के साहित्य को माना जाय तो हिंदी की वर्तमान दशा दयनीय तो क़तई नज़र नहीं आती। आज के समय में अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों से लेकर नए लेखक लेखन में सक्रिय हैं। किताबों की बिक्री भले ही रिकॉर्ड बनाने से चूक रही हो, लेकिन विविध विषयों पर नए नज़रिए को सामने रखती हुई किताबें लिखी जा रही हैं और उन पर प्रायोजित या सहज चर्चाएँ भी हो रही हैं। आजकल साहित्य के अनेक उत्सव एक के बाद एक आयोजित होते रहते हैं। युवा वर्ग भी अपनी मज़बूत दावेदारी के साथ साहित्य के इस परिदृश्य में उपस्थित दिखता है।

किंतु जब प्रश्न भाषा की नवीनता और उसकी गतिशीलता का है, तो मुझे लगता है कि भाषा के ये गुण आम जीवन में उसके प्रयोग करते रहने से ही बने रह सकते हैं। यह दो लोगों या कुछ लोगों के समूह में होने वाली बातों का तरीक़ा ही है जो भाषा की गतिशीलता को कायम रख सकता है। लेखन में हम जो भी कर रहे हैं, वह सायास नहीं है। वहाँ पर भाषा को सुंदर या अलग बनाए जाने के जो प्रयोग हो रहे हैं, वे किताब के पन्नों तक ही सीमित रहते हैं। किसी किताब से कोई नया शब्द निकलकर समाज की भाषा का हिस्सा बनेगा, इसकी संभावना बहुत कम है। नए शब्दों का सृजन या पुराने शब्दों के अर्थों में विस्तार या बदलाव, ये सब लोगों द्वारा अपनी भाषा में बात करते हुए ही संभव है।

यह नए युग की समस्या है कि यहाँ बातें कम हो रही हैं। आम बातचीत, बोलचाल के अवसर कम हो रहे हैं। अगर अवसर कम नहीं हो रहे तो बात करने की सहज प्रवृत्ति कम होती जा रही है। मुझे याद आता है कि पहले ट्रेन या बस से सफ़र के दौरान दो अजनबी लोग घंटों बात करते रहते थे। अब ये सफ़र एक मुर्दनी से भर गए हैं। इस मुर्दनी को दोनों अजनबी अपने कानों में लगे स्पीकर पर चल रहे पॉडकास्ट से तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

नए शब्दों का सृजन औचक होता है। वह किसी पढ़ाकू व्यक्ति के बस की बात नहीं है। वह तो स्वतः बातचीत के दौरान किसी नई स्थिति की सटीकबयानी के लिए अचानक बोलने वाले के मुँह पर आता है। नया शब्द बस के कंडक्टर के पास, पान की गुमटी पर खड़े लोगों की बातचीत में या फिर सिलेंडर की लाइन में लगे लोगों के बोलने से निकलता है। अब क्योंकि इन लोगों ने चुप रहते हुए समय काटना सीख लिया है, तो भाषा का शब्दकोश भी जस-का-तस पड़ा हुआ है।

कितना भी बड़ा लेखक हो, वह भाषा के मौखिक स्वरूप को हूबहू अपने लेखन में नहीं उतार सकता। लेखन में मौखिक भाषा का फ़िल्टर्ड स्वरूप विद्यमान है। वह भाषा पाठक के पढ़ने के लिहाज़ से गढ़ी गई है। उसमें समय उस तरह से उपस्थित नहीं है जैसा आमने-सामने, रोज़मर्रा की बातचीत के दौरान रहता है। मौखिक भाषा के डायनामिक्स को लेखन में उतारना वैसे भी पूरी तरह संभव नहीं है। माना कि साहित्यिक आयोजन बहुत हो रहे हैं और उनमें चर्चाएँ-बातचीत हो रही है, पर यह लेखकों की नपी-तुली भाषा में हो रही बातचीत है। इसमें नई परिभाषाएँ व्याख्यायित होती हैं, आलोचना के लिए नए शब्दों या नई श्रेणियों का निर्माण होता है, लेकिन उससे व्यापक तौर पर भाषा की नवीनता में कोई वृद्धि होती हो, ऐसा मानना मुश्किल है।

भाषा का एक बहुत बड़ा नुक़सान नई तकनीक ने भी किया है। उसने लोगों से बोलने के अवसर छीन लिए हैं, क्योंकि अब ट्रेन का टिकट बिना किसी से कुछ कहे मोबाइल पर बुक किया जा सकता है तो टिकट काउंटर पर लाइन में लगे हुए या फिर काउंटर पर बैठे व्यक्ति से दो मिनट में हो जाने वाली पाँच बातें अब नहीं हो रही हैं। ऐसे ही डाकिया, अख़बार वाले और दूध वाले की बातें हमारी बातों से कम हो गई हैं। इन बातों की कमी को ज़ोमैटो, अमेज़ॉन, फ़्लिपकार्ट और ब्लिंकिट के डिलीवरी मैन भरने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वहाँ बातों में ओटीपी, डिलीवरी, कैश, ऑफ़र और रिप्लेसमेंट जैसे शब्दों से ज़्यादा कुछ नहीं है।

टीवी पर चलने वाले समाचारों, डिबेट्स में रही बातों या नेताओं के भाषणों से भाषा नवीन नहीं होगी। भाषा को स्थिर होने से रोकने का एकमात्र उपाय उसे बोलना है। जहाँ-जहाँ मौन पसर गया है, जिन जगहों पर रील्स और पॉडकास्ट घुस आए हैं, जिन बातों की जगह स्टॉक, म्यूचुअल फ़ंड और सेबी ने ले ली है, हो सके तो वहाँ हाल-चाल पूछने की बातों को फिर से स्थापित करिए और भाषा में पसरती जा रही इस मुर्दनी को तोड़ने में अपना योगदान दीजिए।

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