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हम ‘प्यार’ को काम समझे, वह ‘काम’ को प्यार!

नब्बे का दशक मेरे लिए रूमानी-दौर रहा। कठोर हिदायतों और ताक़ीदों के बाद भी मैं नज़र बचाकर इश्क़िया किताबों में सिर दिए रहती। पढ़ाई की किताबों में छिपाकर दम-ब-दम ‘मिल्स एंड बून’ (Mills & Boon) के रूमानी उपन्यास पढ़ते हुए अपने आप चेहरा गुलगूँ हो उठता। यही वह सुहाना समय था जब कमसिन लड़कियाँ शादी-ब्याह में हरे दुपट्टे पहनकर दीदी के दीवाने देवरों से चुहल करने लगी थीं और बेबाक लड़के ‘पलट-पलट’ की टेर लगाकर फ़लाँ लड़की को प्यार है या नहीं के शक को पुख़्ता करना सीख रहे थे। 

उन दिनों एनरिक इग्लेसियस (Enrique Iglesias) के जादू से क्वचित ही कोई कन्या अछूती रही हो। इसी काल में पॉप गायकी में रिकी मार्टिन (Ricky Martin) अग्नि पुंज की तरह अवतरित हुए। चकाचौंध रौशनी के वर्तुल में माथे पर दिलफ़रेब गुलझट डालकर गाते और उँगलियों को ख़ास अंदाज़ में घुमाकर तालियों के साथ गर्दन में ख़म देकर नाचते इस स्पेनिश गायक की अदाओं के वलवले मच गए। रिकी मार्टिन को देख पहली बार मेरा दिल मुहब्बते-मानूस हुआ। मैं आठों पहर, चौंसठ घड़ी उस अलबेले गायक के ख़याल बाँधने लगी। जैकेट की जेब में वॉकमैन ठूँसकर और कानों पर हल्के हैडफ़ोन चढ़ाए मार्टिन के अनचीन्हे स्पेनिश बोलो पर मेरे हाथ-पाँव थिरकते रहते। यह दीगर बात है कि जल्द ही इस ख़बर ने मेरे साथ-साथ लाखों और प्रेमिकाओं के दिलों को रेज़ा-रेज़ा कर दिया कि मार्टिन समलैंगिक हैं और एक हसीन मर्द के प्यार में गिरफ़्तार हैं। 

ख़ैर प्यार नाम की शै से अपना तआरुफ़ हुआ ही जाता था कि एकाएक प्यार के शीशमहल को ग़ारत करने को एक और पत्थर आ पड़ा। जबकि मेरे चहुँ ओर प्यार गमक रहा था, मैंने एक पत्रिका के किसी आलेख में अमेरिकी रसायनशास्त्री माइकल लेबोबिट्ज़ (Michael Liebowitz) का अतीव निष्ठुर बयान पढ़ा। माइकल के दिमाग़ में ज़रूर कोई ख़लल रहा होगा कि वह यह कह बैठे—“प्रेम ऐसी कोई संवेदना या संवेग नहीं है, जिसका रासायनिक फ़ॉर्म्युला केमेस्ट्री लैब में तैयार न किया जा सके।” 

हे परमात्मा! यह कैसी बात है! मैं कुछ देर को उदास हो गई कि सोचने भर से मदहोश कर देने वाला प्यार महज़ कुछ रसायनों का यौगिक है! आह! यह वैज्ञानिक कैसे घामड़ होते हैं। ‘ढाई आखर प्रेम के’ सचमुच पढ़े होते तो ऐसी अगड़म-बगड़म बातें कही होती भला! किंतु वहीं उदासी के संग कहीं एक ख़ुशी भी हुई कि इस अटकलपच्चू की बात अगर सच हुई तो अच्छा ही होगा। कितनी भली कल्पना है कि दुनिया के सारे मंदिरों-मस्जिदों और कलीसों को प्यार बनाने वाली तजुर्बागाहों में बदल दिया जाए। हर चौक, हर कूचे, हर नुक्कड़, हर मुहल्ले में ऐसी प्रयोगशालाएँ हों, जहाँ बिना विराम दिन रात प्यार की दवाएँ बना करें। घृणा की जानलेवा बीमारी के प्रतिरोध में प्यार का रसायन एक वैक्सीन की तरह इंजेक्ट हो। फिर तो बात ही क्या सब तरफ़ बस प्यार ही प्यार! 

इस दौरान मैंने इधर-उधर से बहुत कुछ जान लिया। मसलन कि ऑक्सीटोसिन (Oxytocin) निकटता का रसायन है जो आलिंगन करने, स्पर्श करने, हाथ थामने और सटकर बैठने को प्रेरित करता है। यह कि डोपामिन (Dopamine) दिल की धड़कन को तेज़ कर देता है। यह भी कि एक और रसायन फिनाइल-इथाइल-एमाइन (Phenyl Ethyl Amine) आपको प्रेमी से मिलने के लिए उद्यत करता है। जागती आँखों से ख़्वाब दिखाता है। साथ ही यह ‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’ जैसे ख़ुशनुमा जज़्बात से भर देता है। इसी रसायन के बलबूते प्रेमी-प्रेमिका रात भर फ़ोन पर (इन दिनों चैट पर) बतियाते हैं। नॉर-एपिनेफ्रि़न (Norepinephrine) रसायन एड्रीनेलिन (Adrenaline) हार्मोन का उत्पादन करता है, जो प्रेमी के आकर्षण में रक्तचाप को बढ़ा देता है। यह देह के ताप में वृद्धि कर हथेली में पसीने छुड़वा देता है। शरीर में थरथराहट और बेचैनी भर देता है। इतना ही नहीं यही रसायन प्यार में कुछ कर गुज़रने की पर्याप्त हिम्मत भी देता है, जिसके वशीभूत आप जोखिम उठाकर भी अपने प्रेमी से मिलने चल पड़ते हैं। प्यार में दरिया खोद देना और मिट्टी के कच्चे घड़े पर उफनती नदी पार कर मिलने जाने जैसा दु:साहस इसी रसायन से संभव होता है। लेकिन समय के साथ यह सब दिमाग़ से उतर गया और माइकल लेबोबिट्ज़ की बात आई गई हो गई। 

नब्बे के आख़िरी बरसों में एक छोटी-सी नीली गोली ने दुनिया भर में धूम मचा दी। प्रसिद्ध फ़ार्मास्युटिकल कंपनी ‘फ़ाइज़र’ (Pfizer) ने इसे ‘वियाग्रा’ (Viagra) के नाम से बाज़ार में उतारा और लाखों-करोड़ों मर्द ख़ुशी से पगला गए। उनके लिए यह प्यार की दवा थी। मैंने सोचा बहुत मुमकिन है कि नादान माइकल ‘काम’ को ही प्रेम समझते रहे हों। दो दशकों से ‘वियाग्रा’ रिकार्डतोड़ बिक रही है। इस तहलके के बाद वियाग्रा की तर्ज़ पर जायडस (Zydus) कंपनी भी ‘यूडेज़ायर’ (Udzire) नाम की दवा लाई। मज़े की बात यह थी कि ‘वियाग्रा’ के जैसे ही इसे भी दिल के किसी मर्ज़ के लिए बनाया गया था। 

कुछ समय बाद ‘फ़ाइज़र’ ने ‘फ़ीमेल वियाग्रा’ भी ईजाद किया, लेकिन प्रेम की ही तरह प्रेम के लिए औरतों को भी किसी नक़ली कारण की ज़रूरत नहीं थी। ‘फ़ीमेल वियाग्रा’ पूरी तरह नाकारगर साबित हुई। बेकार के उलझेड़ों में जीवन छीज रहा है। नफ़रत और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है। मेल मिलाप की कोई दवा नज़र नहीं आती। 2002 की एक शाम जब गुजरात में गोधरा धू-धू जल रहा था, सिक्किम में बारिश के साथ भारी बर्फ़बारी हो रही थी। पहली बार मधु के दो प्याले मेल-मुहब्बत के नाम पर इस ख़याल के साथ टकराए थे कि ‘बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला...’ आख़िरकार एक रोज़ यह बात भी झूठी निकली।

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