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'बहुत भेदक, कुशाग्र और कल्पनाशील पुस्तकें ही बचेंगी'

नई दिल्ली में जन्मीं साहित्यिक पत्रकारिता से लंबे समय तक संबद्ध रहने वालीं गगन गिल नब्बे के दशक में ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ के साथ अपनी अभूतपूर्व उपस्थिति से हिंदी कविता के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ने वाली सुपरिचित कवि हैं। ‘मैं जब तक आई बाहर’ कविता-संग्रह के लिए उन्हें वर्ष 2024 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1 फ़रवरी से 9 फ़रवरी के बीच नई दिल्ली के प्रगति मैदान (भारत मंडपम) में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में आज—5 फ़रवरी 2025 को—दिल्ली विधानसभा चुनाव मतदान के चलते अवकाश घोषित किया गया है। इस अवकाश को पुस्तक मेले का मध्यांतर मानते हुए और भाषा तथा पुस्तक-प्रेमियों के मन में पुस्तक मेले के प्रवाह से निर्मित अनुभूति को अविचलित करने के लक्ष्य से यहाँ प्रस्तुत है—गगन गिल से विजयलक्ष्मी पांडेय की पुस्तक मेला केंद्रित यह विशेष बातचीत :

आप अपने पहले विश्व पुस्तक मेले की पहली स्मृति के बारे में बताइए। तब और अब में आपको क्या परिवर्तन दिखता है?

सन् 1984 या 85 रहा होगा । पुस्तक मेले की ही नहीं, तब कौन-सी किताबें ख़रीदी थीं, यह भी स्मृति में एकदम ताज़ा है। इतालो काल्विनो, गाब्रिएल गार्सीया मार्केस, ब्रूस चैटविन। वैकोम मुहम्मद बशीर, अशोक मित्रन। एक भारी-भरकम थैला, मुद्रिका की भीड़ भरी बस, प्रगति मैदान की धूल-धक्कड़, अथाह जन-समुद्र, एक थकी युवा लड़की की सपनीली मुस्कराहट।

अब वह सादा-सा प्रगति मैदान ही नहीं रहा। भीड़ बढ़ गई है, भीड़ का स्वभाव भी। अब वहाँ गाड़ी में भी मुश्किल से ही पहुँच सकते हैं। युवा लोग शायद मेट्रो में अपने किताबों भरे थैले लिए लौटते होंगे। एक पाठक के हाथ में किताबों से भरा थैला। इससे बड़ा कोई सुख नहीं, जादू नहीं। जिसने इसे जाना है, वह भी नहीं बता सकता।

एक रचनाकार के नज़रिये से आपको आज के साहित्य में सबसे अधिक उल्लेखनीय बात क्या लगती है?

ज़्यादातर निराशा ही होती है। जब लोग बिना पढ़े लिखने लग जाते हैं, तो उनकी बात बहुत दूर तक नहीं जाती। त्वरित लेखन, उससे भी त्वरित वाहवाही। 

पुस्तक मेले इस बदहवास महत्वाकांक्षा में अड़ंगा लगाते हैं। आप जब किसी अच्छी, सच्ची किताब के पास पहुँचते हैं, वह अपने मौन में भी आपको आपकी भटकन दिखा देती है। एक क्षण को ही सही, आप थमते हैं। ऐसी तेज रफ़्तार में एक पल को ही रुक पाना, अपनी स्थिति की विडंबना देख लेना, यही क्या कम है!

आप अपने लेखन की प्रेरणा और ऊर्जा कहाँ से पाती हैं?

प्रेरणा मानवीय स्थिति से पाती हूँ, ऊर्जा प्रकृति से। 

प्रकृति के बिना मानव-जीवन की कल्पना असंभव है, भले हमने उसे अपने जीवन से कितना ही गौण कर दिया हो। एक ठंडी साँस ले पाना, यह नेमत है। हम इसके बारे में कितना कम सोचते हैं!

पढ़ने में आपकी रुचि कैसे जगी?

कथाओं से। आगे क्या हुआ, इसे जानने की उत्सुकता से। बचपन में सुनते थे कि आधी कहानी सुनकर सो गए तो सपने में चुड़ैल आती है । कभी-कभी मेरे पिता रात को आधी कहानी पढ़कर छोड़ देते थे। चुड़ैल से बचने की कवायद में बहुत जल्दी मैं पढ़ना सीख गई। ऐसा सीखी कि किताब में छिपी चुड़ैल ने मुझे ही पकड़ लिया। एक के बाद दूसरी किताब। म्युनिसिपल लाइब्रेरी, स्कूल लाइब्रेरी, घर की लाइब्रेरी। मैं कब बड़ी हुई, यह भी शायद मेरे माता-पिता से पहले लाइब्रेरी की किताबों ने देखा होगा।

आप अपनी कुछ पसंदीदा पुस्तकों के विषय में बताइए?

इधर, देवदत्त पटनायक, विलियम डालरिम्पल की किताबें पढ़ना अच्छा लगता है। शशि थरूर भी। जब तक विषय और लिखने का तरीक़ा दोनों ही अप्रत्याशित न हों, मैं अब किताब शुरू नहीं कर पाती। थोड़ा बहुत चखने के बाद वह ख़ुद ही छूट जाती है।

लोर्का, स्वेताएवा, टॉलस्टॉय, बुनिन, टॉमस मान, ब्रॉडस्की, कोएट्जी, हरिभजन सिंह, टैगोर, के. सच्चिदानंदन, दिलीप चित्रे, आगा शाहिद अली, हेलेन सिक्सू, ह्राबाल आज भी उतना ही भाते हैं, जितने वर्षों पहले।

प्रतिदिन बदलते तकनीकी युग में आप पठन–संस्कृति का क्या भविष्य देखती हैं?

बहुत भेदक, कुशाग्र और कल्पनाशील पुस्तकें ही बचेंगी। त्वरित लेखन की बाढ़ का एक गुणकारी पक्ष होगा–पाठक बहुत जल्दी अच्छे-बुरे लेखन में अंतर करना जान जाएँगे। एक ठीक-ठाक किताब जो, हमारे समय की जटिलताओं से उतना ही न्याय कर सके, जितना साधारण मनुष्य की नियति से। लिखना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।

आपकी दृष्टि में पुस्तक मेलों की क्या प्रासंगिकता है?

पुस्तक मेले जीवन के मायावी स्थल हैं। वंडरलैंड। यहाँ न सिनेमा के पोस्टर हैं, न लुभाने वाले चेहरे। जो भी है, वह किताब के पन्नों पर छपा है। आप लिपि न जानते हों तो उसका रहस्य और भी ज़्यादा है।

कुछ है, जो सिर्फ़ किताब में है। न वह संगीत में है, न नाटक में। कोई कुछ बोल नहीं रहा, मगर कह रहा है। सिर्फ़ आपसे, जो इस समय उसका पन्ना पलट रहे हैं। दो-चार मिनट में ही फैसला होना है, आप उसकी बात सुनने के लिए रुकेंगे या कि आगे बढ़ जाएँगे। हमें कौन-सी चीज़ें, कौन से विषय, कल्पनाएँ रोक लेती हैं, इसे जानना समझना हो तो पुस्तक मेले का कोई विकल्प नहीं। जाने-अनजाने हम एक ज्ञान-परंपरा का हिस्सा तो हैं ही। पुस्तक मेले के अनुभव के बिना आप इसे कैसे समझेंगे!

पुस्तक-पठन के संबंध में नई पीढ़ी को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

ख़ूब पढ़िए, चाहे कचरा ही पढ़िए। हमें अच्छी ही नहीं, बुरी किताबें भी बनाती हैं। अच्छे-बुरे में आप अंतर भी तभी कर पाएँगे जब दोनों को जानेंगे। जीवन में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता। जो हमारे काम का नहीं होता, वह स्वतः खाद बन जाता है। उसे फेंकना नहीं पड़ता, वह स्वयं फिंक जाता है।

बिना डरे ख़ूब पढ़िए। जो भी मिले। जिधर भी आपकी रुचि आपको ले जाए। किताब में भले कचरा हो, वह आपको ज्ञान देकर ही जाएगी।

आपकी दृष्टि में पढ़ने की संस्कृति आने वाले समय में किस रूप में बदलेगी?

पढ़ने की संस्कृति काफ़ी हद तक बदल चुकी है। ई-बुक का अनुभव हम ले चुके। ऑडियो बुक का भी। जीवन की आपाधापी में हम कानों में ईयर फोन लगाए किताब सुनते रहे। अपने फोन और कंप्यूटर स्क्रीन पर हमने किताबें पढ़ लीं, माइक्रो फ़िश को बड़ा करके पुरातन किताबों में कहाँ क्या था, देख लिया। मगर आज भी काग़ज़ पर छपे हुए शब्द को छूने का, पेन या पेंसिल से उस पर निशान लगाने का कोई विकल्प नहीं। मनुष्य ने पेपायरस पर लिखा, ताड़ पत्र पर लिखा, काग़ज़ पर ब्रेल में लिखा। लिखे हुए शब्द को छू लेने के अनुभव का कोई विकल्प नहीं।

पुस्तक संस्कृति को आगे बढ़ाने में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत की भूमिका को आप किस रूप में देखती हैं?

पुस्तक संस्कृति को आगे बढ़ाने में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की बड़ी केंद्रीय, प्रशंसनीय भूमिका रही है। हम भूल जाते हैं कि आज भी हमारी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग क़स्बों में, गाँवों में रहता है। पुस्तक के कम दाम उसके लिए बहुत मायने रखते हैं, उस पर दी जाने वाली छूट बहुत बड़ा आकर्षण होती है।

कुछ वर्ष पहले तक मैं जिस इलाक़े में रहती थी, पटपड़गंज में, वहाँ राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की पुस्तक बिक्री वैन देखा करती थी। उसे लेकर स्थानीय लोगों में बहुत उत्साह था। मालूम नहीं, अभी वह फेरी वाली वैन चलती है कि नहीं। वह हमारे शहरों-क़स्बों में ज़रूर चलनी चाहिए। बल्कि हो सके तो राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को इसका एक अलग विभाग बनाना चाहिए। इनका टाइम टेबल रहना चाहिए। अभी उस स्तर की पहुँच नहीं है। अगर इस पर ध्यान दिया जाए तो राष्ट्रीय पुस्तक न्यास एक केंद्रीय भूमिका में आ सकता है।

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