युगलान्यशरण के दोहे
महा मधुर रस धाम श्री, सीता नाम ललाम।
झलक सुमन भासत कबहुँ, होत जोत अभिराम॥
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यथा विषय परिनाम में, बिसर जात सुधि देह।
सुमिरत श्री सिय नाम गुन, कब इमि होय सनेह॥
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जानकीवल्लभ नाम अति, मधुर रसिक उर ऐन।
बसे हमेशे तोम तम, शमन करन चित्त चैन॥
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जो भीजै रसराज रस, अरस अनेक बिहाय।
तिनको केवल जानकी, वल्लभ नाम सहाय॥
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तैल धार सम एक रस, स्वांस-स्वांस प्रति नाम।
रटौं हटौं पथ असत से, बसौ रंग निज धाम॥
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रसने तू नव नागरी, गुनन आगरी नाम।
क्यों न भजै संकोच तजि, सजि मन मोद ललाम॥
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लता लवंग कदंब तर, तर दृग पुलकित गात।
जयति जानकी सुजय जय, जपिहों तजि जग नात॥
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श्री रघुनंदन नाम नित, करे जो कोटि उचार।
ताते अधिक प्रसन्न पिय, सुनि सिय एकहु बार॥
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सखी किंकरी भाव भल, धारि सुर सने नित्त।
रमो निरंतर नाम सिय, निज हिय खोल सुचित्त॥
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अंध नयन श्रुति बधिर वर, बानी मूक सुपाय।
याहू ते सत गुन हरष, कबहुँ नाम गुन गाय॥
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दीपसिखा निर्वात जल, लहर हीन तेहि भाँति।
कब ह्वै है मन नाम जप, जोग-रहित भव भ्रांति॥
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पर पति मगध नव नागरी, रचत जौन विधि नेह।
चलत बदत सोवत सोई, इमि कब नाम सनेह॥
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पाँच क्लेश ब्यापै नहीं, चित न होय विक्षेप।
जो जगमग सतसंग मिले, तन मन सन निर्लेप॥
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हेरत तब महबूब छबि, छाई छटा रसाल।
लखत-लखत नख सिख मधुर, भई लीन सुधि त्याग॥
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नख सिख निरखत ही रहो, नवल ललन गुन गाय।
विषम विशिष लागे नहीं, सौष सरस सरसाय॥
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रूप-जीविका वपु यथा, पल-पल सजत सिंगार।
मम मन कबहूँ नाम छबि, सजिहै सरस सँवार॥
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सिय बल्लभ समबंध शुभ, सेशी शेष विचार।
देही देह अखंड नित, नाता नेह निहार॥
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श्री सरजू तट पुलिन मधि, निसा उजारी माँह।
हे सिय कहि कब बिवस ह्वै, रहिहों दुति द्रुम छाँह॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere