दादू दयाल के दोहे
झूठे अंधे गुर घणें, भरंम दिखावै आइ।
दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥
इस संसार में मिथ्या-भाषी व अज्ञानी गुरु बहुत हैं। जो साधकों को मूढ़ आग्रहों में फँसा देते हैं। सच्चा सद्गुरु मिलने पर प्राणी ब्रह्म-तुल्य हो जाता है।
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हस्ती छूटा मन फिरै, क्यूँ ही बंध्या न जाइ।
बहुत महावत पचि गये, दादू कछू न बसाइ॥
विषय-वासनाओं और विकारों रूपी मद से मतवाला हुआ यह मन रूपी हस्ती निरंकुश होकर सांसारिक प्रपंचों के जंगल में विचर रहा है। आत्म-संयम और गुरु-उपदेशों रूपी साँकल के बिना बंध नहीं पा रहा है। ब्रह्म-ज्ञान रूपी अंकुश से रहित अनेक महावत पचकर हार गए, किंतु वे उसे वश में न कर सके।
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संबंधित विषय : माया
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दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव।
तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥
विरह के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप बने संतों की चरण-वंदना करनी चाहिए। ऐसे ब्रह्म-स्वरूप संतों के दर्शन करने की मुझे लालसा रहती है। जहाँ-तहाँ उन्होंने अपने चरण रखे हैं, वहाँ की धूलि को अपने सिर से लगाना चाहिए।
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जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।
अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥
जहाँ आत्मा है, वहीं ब्रह्म है। वह सर्वत्र परिव्याप्त हैं। यदि साधक आंतरिक वृत्तियों को ब्रह्ममय बनाए रहे, तो ब्रह्म सूर्य के प्रकाश के समान दिखाई पड़ने लगता है।
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मीरां कीया मिहर सौं, परदे थैं लापरद।
राखि लीया, दीदार मैं, दादू भूला दरद॥
हमारे संतों ने अपनी अनुकंपा से माया और अहंकार के आवरण को उघाड़कर (मुक्त कर) हमें ब्रह्मोन्मुख कर दिया है। ब्रह्म-लीन रहने से हमें ब्रह्म-दर्शन हो गए हैं। ब्रह्म से अद्वैत की स्थिति में साधक अपने सारे कष्ट भूल जाते हैं।
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भरि भरि प्याला प्रेम रस, अपणैं हाथि पिलाइ।
सतगुर के सदकै कीया, दादू बलि बलि जाइ॥
सद्गुरु ने प्रेमा-भक्ति रस से परिपूर्ण प्याले अपने हाथ से भर-भरकर मुझे पिलाए। मैं ऐसे गुरु पर बार-बार बलिहारी जाता हूँ।
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मीठे मीठे करि लीये, मीठा माहें बाहि।
दादू मीठा ह्वै रह्या, मीठे मांहि समाइ॥
ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त संतों ने मधुर सत्संग का लाभ देकर साधकों को आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त कर दिया। जो साधक उस सत्संग का लाभ उठाकर मधुर हो जाता है, वह मधुर ब्रह्म में समा जाता है।
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केते पारिख जौंहरी, पंडित ग्याता ध्यांन।
जांण्यां जाइ न जांणियें, का कहि कथिये ग्यांन॥
कितने ही धर्म-शास्त्रज्ञ पंडित, दर्शनशास्त्र के ज्ञाता और योगी-ध्यानी रूपी जौहरी, ब्रह्मरूपी रत्न की परख करते हैं। लेकिन वे अज्ञेय ब्रह्म के स्वरूप को रंच-मात्र भी नहीं जान पाते। फिर वे ब्रह्म संबंधी ज्ञान को कैसे कह सकते हैं।
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दादू बिरहनि कुरलै कुंज ज्यूँ, निसदिन तलफत जाइ।
रांम सनेही कारनैं, रोवत रैंनि बिहाइ॥
विरहिणी कह रही है—जिस प्रकार क्रौंच-पक्षी अपने अंडो की याद में रात-दिन तड़पता है, उसी प्रकार ब्रह्म के वियोग में मैं रात-दिन तड़प रही हूँ। अपने प्रियतम का स्मरण करते और रोते-रोते मेरी रात बीतती है।
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आसिक मासूक ह्वै गया, इसक कहावै सोइ।
दादू उस मासूक का, अलह आसिक होइ॥
जब प्रेमी और प्रेमिका (प्रेम-पात्र) एक रूप हो जाते हैं, तो वह सच्चा इश्क़ कहलाता है। इस अद्वैत की स्थिति में स्वयं ईश्वर उसके प्रेमी और विरहिणी प्रेमिका (प्रेम-पात्र) बन जाते हैं।
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दादू रांम सँभालिये, जब लग सुखी सरीर।
फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर॥
तू यौवन और स्वास्थ्य से संपन्न और सुखी है। ऐसी स्थिति में तुझे राम-नाम का स्मरण कर लेना चाहिए। जब शरीर जर्जर, वृद्ध और रोग-ग्रस्त हो जाएगा, तब तू कुछ भी करने योग्य नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में तुझे पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा।
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इक लख चंदा आणि घर, सूरज कोटि मिलाइ।
दादू गुर गोबिंद बिन, तो भी तिमर न जाइ॥
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भँवर कँवल रस बेधिया, सुख सरवर रस पीव।
तह हंसा मोती चुणैँ, पिउ देखे सुख जीव॥
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दादू सिरजन हार के, केते नांव अनंत।
चिति आवै सो लीजिए, यूँ साधू सुमिरैं संत॥
ब्रह्म के अनंत नाम हैं। संतों-सिद्धों ने अपनी रुचि के अनुसार निष्काम भाव से उन नामों का स्मरण करके ब्रह्म-प्राप्ति का प्रयास किया है।
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संबंधित विषय : सुमिरन
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दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।
पीव मिलन के कारनैं, मैं जल भरिया रोइ॥
ना बहु मिलै न मैं सुखी, कहु क्यूँ जीवनि होइ।
जिनि मुझ कौं घाइल किया, मेरी दारू सोइ॥
इस संसार में मेरे जैसा कोई दु:खी नहीं है। प्रियतम की विरह-वेदना के कारण, रोते-रोते मेरे नेत्र हमेशा अश्रुओं से भरे रहते हैं। न वे (प्रियतम) मिलते हैं, न मैं सुखी होती हूँ। फिर मेरा जीना कैसे संभव हो सकेगा? जिन्होंने अपने विरह-बाण से मुझे घायल किया है, वही ब्रह्म (उनका साक्षात्कार) मेरी औषधि हैं। अर्थात् वही मेरी वेदना को दूर करने वाले हैं।
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दादू हरदम मांहि, दिवांन, सेज हमारी पीव है।
देखौं सो सुबहांन, ए इसक हमारा जीव है॥
हमारी प्रत्येक साँस रूपी दीवान (बैठक) पर प्रियतम की सेज बिछी हुई है (अर्थात् प्रत्येक साँस के साथ हम पवित्र प्रभु के विरह का अनुभव करते रहते हैं)। प्रभु का विरह-युक्त प्रेम ही हमारा प्राणाधार है।
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दादू इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग॥
ईश्वर की जाति, रंग और शरीर प्रेम है। प्रेम ईश्वर का अस्तित्व है। प्रेम करो तो ईश्वर के साथ ही करो।
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पहली श्रवन दुती रसन, तृतीय हिरदै गाइ।
चतुरदसी चेतनि भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ॥
साधना की चार अवस्थाएँ हैं। पहली राम-नाम का महात्म्य सुनना, दूसरी जिह्वा से नाम-स्मरण करना, तीसरी हृदय में राम-नाम का अजपा-जाप करना और चौथी चेतनशील होकर रोम-रोम से नाम का निरंतर जाप करना। इनसे जीव का ब्रह्म से अद्वैत संबंध स्थापित हो जाता है।
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दादू नूरी दिल अरवाह का, तहाँ बसै माबूंद।
तहाँ बंदे की बंदिगी, जहाँ रहै मौजूंद॥
जीवात्माओं के शुद्ध अंत:करण में प्रभु निवास करते हैं, जिस अंत:करण में प्रभु निवास करते हैं, उसी में भक्त की सच्ची उपासना होती है।
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पीव पुकारै बिरहणीं निस दिन रहै उदास।
रांम रांम दादू कहै, तालाबेली प्यास॥
विरहिणी अत्यंत बेचैनी और दर्शनों की लालसा से अपने प्रियतम को पुकार रही है। दादू कहते हैं कि वह रात-दिन राम-राम रटती हुई दर्शन की प्यास में खिन्न बनी रहती है।
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दादू भँवर कँवल रस बेधिया, सुख सरवर सर पीव।
तहाँ हंसा मोती चुणैं, पीव देखें सुख जीव॥
जैसे कमल-पुष्प के मकरंद से आकृष्ट होकर भ्रमर उसका रस-पान करता है, वैसे ही हमारा मन रूपी भ्रमर सहस्त्रदल कमल में प्रविष्ट होकर परम ब्रह्मरूपी सुख-सरोवर का चिंतनानंद रूप रस-पान करता है और जैसे मानसरोवर में किल्लोल करते हुए हंस मोती चुनते हैं वैसे ही हमारा साधक-मन सहस्त्र दल कमलरूपी सरोवर में अवगाहन करके अद्वैत भावनारूपी मोतियों को चुनकर तृप्त होता रहता है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा को परम ब्रह्म के दर्शनरूपी सुखों की अनुभूति होती रहती है।
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आसिकां रह कबज करदां, दिल वजां रफतंद।
अलह आले नूर दीदंम, दिलह दादू बंद॥
प्रेमियों का रास्ता अपनाते हुए, आसुरी प्रवृत्तियों को मन से बाहर निकालकर, देवतुल्य गुणों को अपनाया जाए। परम श्रेष्ठ परमात्मा के स्वरूप का दर्शन करने के लिए मन का निग्रह किया जाए। ये ही ईश-विरह के प्रमुख लक्षण हैं।
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दादू आसिक रबु दा, सिर भी डेवै लाहि।
अलह कारणि आप कौं, साड़ै अंदरि भाहि॥
जो प्रभु के सच्चे प्रेमी होते हैं, वे उनकी प्राप्ति के लिए अपना सिर भी उतारकर देने को तत्पर रहते हैं। वे प्रभु-प्राप्ति के लिए अपने अंदर के सभी प्रकार के विकार, अहंकार आदि को विरहाग्नि में जला देते हैं।
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संबंधित विषय : भक्ति
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दादू नमो नमो निरंजन, निमसकार गुरुदेवतह।
बंदनं श्रब साधवा, प्रणामं पारंगतह॥
हे निरंजन देव! आपको मेरा नमन है। देवतुल्य गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ। सभी संत जनों की वंदना करता हूँ। संसार की असत्यता से विमुख होकर सत्य-ब्रह्म के स्वरूप को जानने वाले पारंगतों को भी मेरा प्रणाम है।
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दादू दीवा है भला, दीवा करौ सब कोइ।
घर में धर्या न पाइये, जे कर दीवा न होइ॥
ज्ञान-दीप जलाना उत्तम है। सभी को यत्न करना चाहिए कि गुरु के ज्ञान-दीप से अपना आत्म-ज्ञान दीप जलाएँ। जब तक गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान उसे प्रज्वलित नहीं करता, तब तक मात्र शास्त्र-ज्ञान से यह दीपक नहीं जलता।
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संबंधित विषय : नीति
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दादू सतगुरु सौं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
दया भई दयाल की, तब दीपक दीया जगाइ॥
मेरे सतगुरु मुझे सहज भाव से मिले। मुझे अपने गले से लगा लिया। उनकी दया से मेरे हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित हो गया अर्थात् उसके प्रकाश से मेरा अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो गया।
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संबंधित विषय : गुरु
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वदन सीतल चंद्रमां, जल सीतल सब कोइ।
दादू बिरही रांम का, इन सूं कदे न होइ॥
चंदन, चंद्रमा और जल की प्रकृति शीतल होती है। इनसे सर्प, चकोर और मीन को असीम तृप्ति (शांति) मिलती है। लेकिन जो ब्रह्म-वियोगी हैं, उन्हें इन पदार्थों से शांति (तृप्ति) नहीं मिल सकती है।
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संबंधित विषय : वियोग
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दादू रांम तुम्हारे नांव बिनं जे मुख निकसै और।
तौ इस अपराधी जीव कूँ, तीनि लोक कत ठौर॥
हे राम! आपके नाम के बिना जो कोई शब्द मुख से निकलता है, तो वह महा अपराधी होता है। ऐसे अपराधी को तीनों लोकों में भटकने पर भी कोई सुख नहीं मिलता है।
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संबंधित विषय : सुमिरन
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दादू सतगुरु मारे सबद सौं, निरखि निरखि निज ठौर।
रांम अकेला रहि गया, चीति न आवै और॥
सतगुरु ने अपने शब्द-बाणों से मेरे सभी पापों, दोषों और विकारों को चुन-चुनकर नष्ट कर दिया है। अब मेरे निर्मल चित्त में ब्रह्म ही शेष रह गए हैं, किसी और के लिए स्थान बचा ही नहीं है।
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साहिब जी के नांव मां, सब कुछ भरे भंडार।
नूर तेज अनंत है, दादू सिरजनहार॥
प्रभु के नाम-स्मरण करने पर किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता। लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार के पदार्थ साधक को सुलभ रहते हैं तथा सृष्टिकर्ता प्रभु के असीम प्रकाश का उसे साक्षात्कार हो जाता है।
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सब सुख मेरे सांइयां, मंगल अति आनंद।
दादू सजन सब मिले, जब भेटे परमांनंद॥
ईश्वर ही हमारे लिए समस्त सुख हैं। वे ही मंगल करने वाले और आनंददायी हैं। परमानंदरूप प्रभु से मिलना ही संसार के समस्त सज्जनों से मिलना होता है।
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दादू देव दयाल की, गुरू दिखाई बाट।
ताला कूँची लाइ करि, खोले सबै कपाट॥
दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात।
दीया जग में चाँदना, दीया चालै साथ॥
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संबंधित विषय : नीति
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जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै-सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव॥
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अनेक चंद उदय करै, असंख सूर परकास।
एक निरंजन नाँव बिन, दादू नहीं उजास॥
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काया अंतर पाइया, त्रिकुटी के रे तीर।
सहजै आप लखाइया, व्यापा सकल सरीर॥
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मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकास।
दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास॥
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सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावन जोग।
दादू ऐसा परम गुर, पाया कहिं संजोग॥
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परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू बंदनं॥
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मुझ ही में मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ।
आतम सों परआत्मा, परगट आणि मिलाइ॥
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संबंधित विषय : भक्ति
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सब ही ज्ञानी पंडिता, सुर नर रहे उरभाइ।
दादू गति गोबिंद की, क्यों ही लखी न जाइ॥
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अति गति आतुर मिलन कौं, जैसे जल बिन मीन।
सो देखै दीदार कौं, दादू आतम लीन॥
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राम नाम उपदेस करि, अगम गवन यहु सैन।
दादू सतगुर सब दिया, आप मिलाये ऐन॥
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गैब माहिं गुरदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धर्या, देख्या अगम अगाध॥
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रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव।
दादू अवसर अब मिलै, यह बिरहिनि का भाव॥
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साचा सतगुर जे मिलै, सब साज सँवारै।
दादू नाव चढ़ाइ करि, ले पार उतारै॥
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सबद दूध घृत राम रस, मथि करि काढ़े कोइ।
दादू गुर गोविंद बिन, घट-घट समझि न होइ॥
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दादू गुर गरुवा मिलै, ता थैँ सब गमि होइ।
लोहा पारस परसताँ, सहज समाना सोइ॥
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सतगुर पसु माणस करै, माणस थें सिध सोइ।
दादू सिध थें देवता, देव निरंजन होइ॥
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देवै किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।
दादू साधै सुरति को, सो गुर पीर हमार॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere