दादू दयाल की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 30
झूठे अंधे गुर घणें, भरंम दिखावै आइ।
दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥
इस संसार में मिथ्या-भाषी व अज्ञानी गुरु बहुत हैं। जो साधकों को मूढ़ आग्रहों में फँसा देते हैं। सच्चा सद्गुरु मिलने पर प्राणी ब्रह्म-तुल्य हो जाता है।
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जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।
अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥
जहाँ आत्मा है, वहीं ब्रह्म है। वह सर्वत्र परिव्याप्त हैं। यदि साधक आंतरिक वृत्तियों को ब्रह्ममय बनाए रहे, तो ब्रह्म सूर्य के प्रकाश के समान दिखाई पड़ने लगता है।
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मीरां कीया मिहर सौं, परदे थैं लापरद।
राखि लीया, दीदार मैं, दादू भूला दरद॥
हमारे संतों ने अपनी अनुकंपा से माया और अहंकार के आवरण को उघाड़कर (मुक्त कर) हमें ब्रह्मोन्मुख कर दिया है। ब्रह्म-लीन रहने से हमें ब्रह्म-दर्शन हो गए हैं। ब्रह्म से अद्वैत की स्थिति में साधक अपने सारे कष्ट भूल जाते हैं।
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दादू बिरहनि कुरलै कुंज ज्यूँ, निसदिन तलफत जाइ।
रांम सनेही कारनैं, रोवत रैंनि बिहाइ॥
विरहिणी कह रही है—जिस प्रकार क्रौंच-पक्षी अपने अंडो की याद में रात-दिन तड़पता है, उसी प्रकार ब्रह्म के वियोग में मैं रात-दिन तड़प रही हूँ। अपने प्रियतम का स्मरण करते और रोते-रोते मेरी रात बीतती है।
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मीठे मीठे करि लीये, मीठा माहें बाहि।
दादू मीठा ह्वै रह्या, मीठे मांहि समाइ॥
ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त संतों ने मधुर सत्संग का लाभ देकर साधकों को आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान की मधुरता से युक्त कर दिया। जो साधक उस सत्संग का लाभ उठाकर मधुर हो जाता है, वह मधुर ब्रह्म में समा जाता है।
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