युद्ध और प्रतिशोध का 'अंधा युग'
रहमान 08 सितम्बर 2024
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग-अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 3 और 4 सितंबर को धर्मवीर भारती द्वारा रचित काव्य नाटक ‘अंधा युग’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :
‘अंधा युग’ धर्मवीर भारती द्वारा रचित एक काव्य नाटक है। यह महाभारत युद्ध के अंतिम दिन की घटनाओं पर आधारित है। युद्ध से प्राचीरें खंडहर हो चुकी हैं, नगर जल रहा है और कुरुक्षेत्र लाशों और गिद्धों से ढका हुआ है।
कौरव सेना के कुछ विचलित योद्धा शोक और क्रोध से भरे हुए हैं। वे प्रतिशोध लेने के लिए, कुछ निर्णायक करने के लिए तरस रहे हैं और उस वक़्त भी अश्वत्थामा की निंदा करने से इनकार कर देते हैं। जब वह ब्रह्मास्त्र छोड़ता है, जो कि संपूर्ण पृथ्वी को नष्ट कर सकता है। इसके बजाय, वे युद्ध के लिए कृष्ण को दोष देते हुए, उन्हें श्राप तक दे देते हैं।
हालाँकि कृष्ण—करुणा और संवेदना की पुकार हैं और उन्हें दुनिया में जो कुछ भी अच्छा और न्यायपूर्ण है, उसका अवतार माना जाता है। शांति सुनिश्चित करने में विफल होने के बावजूद, कृष्ण पूरे नाटक में मौजूद हैं और जो कुछ भी नैतिक और पवित्र है, उसकी व्याख्या करते हैं।
देश के विभाजन के तुरंत बाद लिखा गया यह नाटक आधुनिक भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण नाटकों में से एक माना जाता है, और हिंसा और आक्रामकता की राजनीति पर गहराई से विचार करता है। नाटक अंततः उस नैतिक कथन की पुष्टि करता है कि हिंसा का प्रत्येक कार्य अनिवार्य रूप से पूरे समाज को बदनाम करता है।
किसी भी चीज़ का अंधापन संपूर्ण जगत के लिए हानिकारक है। नाटक ‘अंधा युग’ आम जनमानस की चेतना पर अपने भीतर के बर्बर पशु को पहचानने के लिए गहरा प्रहार करता है।
‘अंधा युग’ द्वारा धर्मवीर भारती ने विश्वव्यापी संत्रास, कुंठा, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध में जल रहे पात्रों के माध्यम से जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया है। उन्होंने अतीत के माध्यम से वर्तमान का यथार्थ और आधुनिकता बोध को एक साथ दर्शाया है। यह दिखाता है कि युद्ध की समस्या पूरे विश्व की समस्या है।
धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ नई कविता की प्रतिनिधि रचना है। यह रचना नई-कविता की काव्य संवेदना, शिल्पगत नवीनता की परिचायक है। यह सृजनात्मकता और आधुनिक संवेदना का निरूपक काव्य नाटक भी है।
नाटक ‘अंधा युग’ संसार के समाप्त होने से पूर्व तक, अनंत बार आमजनमानस को ध्यान कराता रहेगा कि वह मनुष्य है, और मानव रूप में ईश्वर ने जन्म देकर कुछ मानवीय मूल्यों से उसे सहेजा है। मानवीय मूल्यों की राह पर जीवन निर्वाह करने के बजाय आज मनुष्य किसी-न-किसी चीज़ के अंधेपन में डूबा हुआ है। प्रकृति अलग-अलग समय में अपने विकराल रूप में आकर उसे पुनः मनुष्य होने का भान कराती है, किंतु मानव जाति का यह दुर्भाग्य है कि वह पुनः सवेदना-विहीन हो जाता है।
वर्तमान समय में हिंसा का केवल रूप बदला है, प्रवृति नहीं। आधुनिक समय में भी लोगों के भीतर एक तरह का अंधापन व्याप्त है, लेकिन उन्हें इस बात की ख़बर जीवन भर नहीं होती। आज मानव और पशु को पृथक करना कठिन है। बल्कि मनुष्य को पशु के समकक्ष खड़ा करना भी पशुओं की अवहेलना है। पशु तो जीवन से लेकर मरण तक केवल खाते हैं, पीते हैं, और सोते हैं। वे सरहदे नहीं बनाते, उनमें किसी चीज़ को लेकर मोह नहीं होता, वे किसी चीज़ को पा लेने के अंधेपन का शिकार नहीं हैं, मनुष्य है।
आज मानव जाति अपने सबसे दूषित रूप में है। संवेदना-विहीन हो चुका समाज हत्याओं और बलात्कारों से धूल धूसरित हो चुका है। आदमियों के भीतर का पशु बाहर आकर अलग-अलग रूप में हर दिन किसी बूढ़े याचक रूपी मनुष्य की किसी-न-किसी रूप में हत्या करता है। लेकिन हमें इस बात की तनिक भी चिंता नहीं होती है। हम सब ‘अंधा युग’ नाटक के उन किरदारों की भाँति हो गए हैं, जिन्हें केवल प्रतिशोध दिखता है।
‘अंधा युग’ के सभी पात्र या तो प्रतिशोध की आग में जल रहे हैं, या फिर धर्म स्थापना के लिए मानवीय मूल्यों की बलि चढ़ा रहे हैं। आधुनिक समय में ये सारी चीज़ें विकास, विस्तार और नवयुग के नवनिर्माण ने ले ली हैं। जिसके अंधेपन में हम सब प्रकृति को पूरी तरह से भूलकर केवल नवनिर्माण में लगे हैं। जिसका बुरा प्रभाव आज संपूर्ण मानव-जगत पर पड़ रहा है।
इससे पहले कि हस्तिनापुर की तरह हमारी पृथ्वी भी सूनी हो जाए, लोग क्षणभंगुर और संवेदनहीन हो जाए, हवा और पानी ज़हरीली हो जाए। अपने भीतर के उस नुकीले पंजे वाले जानवर की पहचान कर उसे मारकर पुनः मनुष्य बन जाते हैं। जैसे अंततः अश्वत्थामा बन गया था, अपने बर्बर पशुवत कृत को त्यागकर, अपने कर्म का प्रायश्चित कर। हमें भी स्वयं का अवलोकन करना चाहिए कि कहीं किसी रूप में राई के दाने के बराबर भी हम वैसे तो नहीं...
‘अंधा युग’ में कृष्ण उपस्थित थे। जिन्होंने समय-समय पर सबको यह भान कराया कि वो कौन हैं? उसके कर्तव्य क्या हैं? और उन्हें इस संसार में मानव रूप में किस लिए जन्म मिला है? आज भी ईश्वररूपी प्रकृति समय-समय पर अपनी भाषा में हमें यह ध्यान कराती है कि हम मनुष्य हैं, हमारा कर्तव्य मानवीय मूल्यों की अवहेलना करना नहीं है। उसे सहेजकर हमारी आने वाली पीढ़ी को सौंपना है।
अंधापन किसी भी तरह का हो, वो भयावह है। किसी भी तरह के अंधेपन से हृदय काला हो जाता है। हमें चिंतनशील होकर स्वयं के साथ अपने आस-पास के लोगों का परीक्षण करना होगा कि हमारे हृदय में रक्त-संचार हो रहा है या फिर हमारे अंधेपन की कालिख धड़कनों में समाई हुई है।
हम सब ईश्वर के बच्चे हैं, ईश्वर कण-कण में विद्यमान हैं। हमें आवयश्कता है, ईश्वर के उस रूप को पहचानने की। कृष्ण महाभारत युद्ध के पूर्व, मध्य, और अंत तक उपस्थित रहे। हमारी प्रकृति भी हमारे होने से पहले से है और हमारे ख़त्म हो जाने के बाद तक रहेगी। इसलिए हमें हमेशा यह ध्यान रहना चाहिए कि हमारे अपराध को, हमारे अंधेपन को कोई देख रहा है, जो जननी है, उसकी ही गोद में प्रलय साँस ले रही है। प्रकृति यदि जीवन देती है, तो विनाश भी उससे संभव है। कृष्ण को मिले श्राप की भाँति हमारे द्वारा दिए विष को जल, पृथ्वी और वायु चुपचाप अपने भीतर समाहित कर रहे हैं। लेकिन कब तक?
राम गोपाल बजाज के निर्देशन में धर्मवीर भारती द्वारा रचित नाटक ‘अंधा युग’ की एक झकझोर देने वाली प्रस्तुति देखने को मिली। मंच पर अभिनय कर रहे कलाकारों ने जिस सशक्तता के साथ अपने किरदार के माध्यम से आधुनिक समय की मानवीय मूल्यों और लोगों की क्षणभंगुरता पर चोट किया, वह शायद वर्तमान समय के लिए बहुत आवश्यक है।
नाटक में कई ऐसे दृश्य हैं, जो हमारी चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं और उसे अभिनेताओं ने जिस सामर्थ्य से निभाया वह अद्भुत था। मंच पर साधारण सेट और अर्थपूर्ण प्रकाश परिकल्पना से युद्ध की विभीषिका और किरदारों की बर्बरता के साथ दर्शकों के लिए नाटक को जिस संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया गया, उसके लिए निर्देशक और अभिनेता सहित सभी लोग बधाई के पात्र हैं। हालाँकि कहीं-कहीं पर नाटक की डोर छूटती और गति थोड़ी धीमी होती प्रतीत होता है, लेकिन बावजूद इसके नाटक अपने अंत तक दर्शकों को बाँधे रखने में सफल रहा।
नाटक के आरंभ से लेकर अंत तक प्रेक्षागृह में दर्शक ख़ामोश बैठे रहे। यह नाटक की सफलता का प्रतीक है। गांधारी बनी रीता देवी और शिल्पा भारती ने एक माँ की ममता और ममत्व के अंधेपन को दर्शकों के सामने मज़बूती से पेश किया। वे दृश्य और संवाद अभी भी मस्तिष्क में हिलकोरे मार रहा है...
जब संजय से अश्वत्थामा की बर्बरता को गांधारी सुन रही थी। उस बर्बरता से गांधारी को जो सुख मिल रहा था। वह देखना आपको क़तई सुखद नहीं लगेगा। संजय बने आलोक कुमार आज मज़बूती से निकल कर आए। विदुर बने अंकुर सिंह ने अपने चरित्र को संपूर्ण रूप से चरितार्थ किया। धृतराष्ट्र बने सतीश, कृतवर्मा वर्मा बने नवीन सिंह, कृपाचार्य बने सुमन कुमार और युयुत्सु बने अनंत शर्मा ने अपने किरदारों को बख़ूबी निभाया। अश्वथामा बने विक्रम का अभिनय, अश्वत्थामा की वेदना और बर्बर पशुवत कृत को जिस संवेदनशीलता से विक्रम ने निभाया, वह उन्हें एक समृद्ध अभिनेता की सूची में ला खड़ा करता है।
‘अंधा युग’ नाटक हर युग में लोगों को अपने अंधेपन को जानने, उसे समझने और उसके दुष्प्रभाव के बारे में बताता रहेगा। मानव सभ्यता का निर्माण संवेदना से हुआ है और यह संवेदना से ही संचालित भी होती है। मानव जगत का विनाश किसी भी तरह के अंधेपन से हो, इससे पहले हमें अपनी संवेदनशीलता की रक्षा करनी चाहिए। स्वयं के भीतर नमी बनाएँ रखने के लिए हिंसा, प्रतिशोध और अन्य संवेदनहीनता वाले कर्मों के बजाय स्नेह, क्षमा और कर्म पथ को अपनाना चाहिए। मानवीय मूल्यों से हम मानव बने रह सकते हैं।
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