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शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी और ‘फ़ानी बाक़ी’

आज का दिन मेरे महबूब शहर इलाहाबाद के महबूब साहित्यकार और आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की जन्मतिथि है। वह आसमां में चमकते हुए तारों में से एक हैं, जिसे मैं आज के दिन देखना चाहता हूँ। इलाहाबाद के साहित्यिक गलियारे उन प्रिय लोगों को याद करते हैं, जिन्होंने इलाहाबाद को ‘इलाहाबादीयत’ दी। मुझे उम्मीद है कि उन्हें आज मेरा शहर ज़रूर याद कर रहा होगा। इलाहाबाद में रहते हुए भी उन्हें कभी देख नहीं पाया, लेकिन उनके दुनिया से विदा होने के बाद उनकी किताब ‘फ़ानी बाक़ी’ के लोकार्पण पर उनके अशोक नगर स्थित घर गया, जहाँ उनकी रूह अभी भी उनके पुस्तकालय की एक-एक किताबों में मौजूद थी। उस जगह को देख कोई भी अभिभूत हो जाए।

मैं उन्हें कैसे याद करूँ? यह सवाल मेरे मन में कई महीनों से चलता रहा। मैं उनके बारे में, उनसे संबंधित किसी तरह का संस्मरण या कुछ भी लिख नहीं सकता हूँ। एक दिन किताबों पर जमी धूल झाड़ते हुए, उनकी अंतिम किताब पर नज़र गई तो मन खिल गया। मुझे उन्हें याद करने का एक बहाना आख़िर मिल ही गया। यह किताब ‘फ़ानी बाक़ी’ थी, जो उनके दुनिया से रुख़सत होने के तीन वर्ष बाद हिंदी में आई। यह उनकी एक लंबी कहानी ‘फ़ानी बाक़ी’ और उनके अधूरे उपन्यास ‘गोमती की महागाथा’ का संयुक्त संग्रह है। यह मूलतः उर्दू में लिखी गई है, इसका हिंदी अनुवाद शुभम मिश्र और उनके अधूरे उपन्यास का अनुवाद रियाजुल हक़ ने किया है।

‘फ़ानी बाक़ी’ एक ऐसी कहानी है जो ब्रह्मांड की उत्पत्ति, विनाश के रहस्यों के कथानक के इर्द-गिर्द और जीवन चक्र से मानव-मुक्ति के पथ से होकर गुज़रती है, इसमें शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक ऐसे कल्पित जगत की रचना की है, जिसमें मनुष्य सृजन के गोमुख की खोज करता है। वह भौतिक संतापों की जकड़न से मुक्ति मार्ग तलाशता है। इस अंतहीन यात्रा के ऐसे कई अंतर्द्वंद हैं, जिन्हें कहानी में उजागर किया गया है।

यह ब्रह्मांड के कई रहस्यपूर्ण सवालों और सृष्टि के सृजनकर्ता के अस्तित्व की तलाश करती हुई मानव की दार्शनिक बहसों को सामने रखती है। इसको वैसे तो पाँच भागों में विभाजित किया गया है, लेकिन इसकी धरातलीय पृष्ठभूमि तीन भागों में बंटी हुई है। इसमें पहला भाग वह है, जहाँ कहानी एक सूत्रधार के माध्यम से आगे बढ़ती है। दूसरा भाग वह है, जिसमें केरल पुत्र का ज़िक्र है। तीसरा भाग वह‌ है, जहाँ इसका अंत होता है, यह हिमालय का कोई क्षेत्र है।

इसकी शुरुआत में जंबू द्वीप की पौराणिक उत्पत्ति और उसकी भौगोलिकता का वर्णन किया गया है। यह वर्णन आलंकारिक शैली में है, जो भाषाई चमत्कार की तरह पाठक के सामने आता है। कहानी का फ़लक बहुत विस्तृत है। यह आरंभ होती है—उत्तर भारत के किसी दियारे से और आगे बढ़ते हुए सुदूर दक्षिण केरल पहुँचती है। वहाँ से सूदूर उत्तर हिमालय प्रदेश में यात्रा करती है।‌ यह वर्तमान से शुरू होकर अतीत में हज़ारों साल पीछे चली जाती है। इसमें शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी भारत की विविधता, उसकी बनावट और उसके आध्यात्मिक स्वरूप को भी व्याख्यायित करते हुए उसे सामने रखते हैं। यह कहानी भारत के दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना करती है। यह जितनी रोचक है, उतनी ही विचारवान भी है।

भारतीय दर्शन परंपरा में निर्वाण या मोक्ष का बहुत महत्त्व है, इसमें आत्मज्ञान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आंतरिक जगत का द्वार खोलता है, जो बाह्य जगत में व्याप्त दुख के चक्र से मुक्ति मार्ग की राह दिखाता है। कहानी दार्शनिक बहसों को एक आयाम देती हुई प्रतीत होती है। वह इस सवाल का जवाब तलाशती है कि कैसे मनुष्य आंतरिक ज्ञान के द्वारा भौतिक दोषों, अंतर्द्वंद्वों, स्व-अस्तित्व और विनिष्टि को समझ सकता है।

यह भारतीय दर्शन के तीन दर्शनों शंकराचार्य के वेदांत, बौद्ध दर्शन और इक़बाल के फ़लसफ़ो से प्रभावित है। यह शंकराचार्य के उस सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ती है, जिसमें वह मानते हैं कि ‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’। इस ‘ब्रह्म’ को जहाँ वह ‘ज्ञान’ से जोड़ते हैं, वहीं यह भी निरूपित करते हैं कि ‘जगत’ मिथ्या है। जब वह अपने उस्ताद और पिता से वार्तालाप करते हैं या उनसे सीख रहे होते हैं, तब यह दर्शन कहानी में प्रमुखता से व्यक्त होते हैं।

इसमें उनके उस्ताद और पिता बताते हैं कि ज्ञान से ही मुक्ति है और यही सत्य है। वहीं दूसरी तरफ जब वह ‘दुख’ की बात कर रहे होते हैं, तब उस पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। वह इस दुनिया को ‘दुख की व्याप्ति’ की तरह देखते हैं। इसका निवारण ज्ञान रूपी चछु को बताते हैं, जिसकी बात बुद्ध अपने दार्शनिक मीमांसा में करते हैं। इस ज्ञान को उन्होंने ‘कुंडलिनी’ कहा है, जिसका ठिकाना रीढ़ की हड्डी के अंतिम जोड़े के नीचे है।

मुख्य पात्र के रूप में कहानी का सूत्रधार हैं, जिसे आगे चलकर ऋषि ‘कल्पित’ के रूप में देखा जा सकता है। दूसरा प्रमुख पात्र ‘कल्पना’ है, जिसे कल्पित ऋषि ने सृजित किया है। तीसरा प्रमुख पात्र ‘वशिष्ठ या वामन’ है। बाक़ी उस्ताद, पिता और अन्य पात्र बहुत थोड़े समय के लिए आते हैं और फिर ओझल हो जाते हैं।

इसमें पौराणिक, लोक पारंपरिक मिथक और संस्कृति का का प्रयोग एक महत्त्वपूर्ण शिल्पगत विशेषता है। सृष्टि के सृजन और उसके विनाश को समझाने के लिए केरल के क़रीब दो हज़ार वर्ष पुराने प्रसिद्ध लोक नृत्य ‘कूडियाट्टम’ का प्रयोग बहुत ही शानदार तरीक़े से किया गया है। वही दूसरी तरफ़ वामन या वशिष्ठ ऋषि के प्रतीक का प्रयोग भी अद्भुत है। भाषाओं के विकास और उसकी निर्मितियों का एक रेखांकन भी इसमें है, जिसमें वह बताते हैं कि केरलपुत्र में बोली जाने वाली भाषा का विकास कैसे हुआ और आगे क्रमशः कैसे वह परिवर्तित होते हुए निर्मित हुई।

यह कहानी बताती है कि ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद दुख से मुक्ति नहीं मिल जाती है, बल्कि ज्ञान भी मुक्ति में बाधा उत्पन्न करता है, अगर उसे बांधकर मस्तिष्क में रख लिया जाय। यह तर्क गढ़ती है कि जब इस ज्ञान रूपी गठरी को मनुष्य खोल देता है; तब वह वास्तव में मुक्ति की तरफ़ बढ़ जाता है।

कहानी में इस सृष्टि सृजन और विनाश के रहस्य को समझने के लिए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने कल्पित जगत में ‘कल्पित’ ऋषि की रचना की है, जो सृष्टि का निर्माता है। उसने अपने ज्ञान के द्वारा एक ऐसी स्त्री की रचना की है जो सृष्टि का प्रतीक है। यह ‘कल्पना’ के नाम से कल्पित है, इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण वैचारिक भाग कल्पित ऋषि द्वारा कल्पना जो सृष्टि का प्रतिरूप है, उसके सृजन केन्द्र पहुँचने के बाद वामन या वशिष्ठ तथा कल्पित ऋषि के बीच होने वाला संवाद है।

वशिष्ठ अपने आत्मज्ञान के जरिए अपनी कुंडलिनी को जगा तो लेते हैं, लेकिन वह फिर भी नहीं समझ पाते हैं कि उसके अस्तित्व का उद्गम कहाँ है? इसको समझने के लिए वशिष्ठ ऋषि कल्पित के पास पहुँचते हैं। वहाँ देखते हैं कि गुफ़ा में पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है। वह ब्रह्मांड की उत्पत्ति की पूरी प्रक्रिया को समझते हैं, जहाँ उसके उद्गम और विनाश का स्त्रोत मौजूद है। इस प्रकार यह कहानी ‘स्व’ की भी पहचान करती हुई नज़र आती है। इस पर एरिक हंटिंगटन की किताब ‘क्रिएटिंग दि यूनिवर्स, डिपिक्शन ऑफ़ दि द कॉसमॉस इन हिमालयन बुद्धिस्म़’ का गहरा प्रभाव है, साथ में सातवी सदी के संस्कृत ग्रंथ ‘योग वशिष्ठ’ और इक़बाल के शायराना फ़लसफ़ो का भी प्रभाव है। इसका ज़िक्र ख़ुद शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने किया है।

इस तरह यह कहानी भारत की बौद्ध दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपराओं में वर्णित ब्रह्मांड विज्ञान से बहस करती हैं। वह संसार की उत्पत्ति और मानव अस्तित्व की तलाश करती है। यह संसार में दुख, दुख के निवारण, मोक्ष और अंत में जीवन चक्र से मनुष्य मुक्त कैसे हो सकता है? इस बहस को पाठक के सामने रखती है। यह एक ऐसी कहानी है, जो पाठक को मजबूर करती है कि पढ़ते समय वह शब्दों को अपने मस्तिष्क पर अंकित करें। इसको जब पाठक दूसरी बार पढ़ रहा होता है तो यह उसे कहीं ज़्यादा सोचने के लिए मजबूर करती है। इस तरह से यह एक ऐसी कहानी है, जो कम-से-कम दो से तीन बार पढ़ी जाने की माँग करती है।

इस किताब का दूसरा हिस्सा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के अधूरे उपन्यास के अंश हैं, जो वह ‘गोमती की महागाथा’ शीर्षक से रच रहे थे, लेकिन इसे वह पूरा पर पाते उससे पहले उनकी ज़िंदगी की किताब पूरी हो चुकी थी। इस उपन्यास के इन हिस्सों को पढ़कर लगता है कि यह उनके कालजई उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ से आगे की रचना होती, अगर यह पूरी होती। उन्होंने इसका शीर्षक भी रोचक रखा था, गोमती नदी के नाम पर‌।

इस नदी की महागाथा के जरिए वह अवध और पूर्वांचल के हिस्सों की सांस्कृतिक विरासत को उपन्यासित कर रह थे, जिसकी झलक उनके इन अंशों में प्राप्त हो जाती है। वह अपनी चिर-परिचित पृष्ठभूमि मध्ययुगीन और आरंभिक औपनिवेशिक काल में इस उपन्यास को रच रहे थे। वह गोमती के उद्गम से लेकर गंगा से उसके संगम तक के इलाक़ों को इसमें समेटना चाहते थे। इसके शुरूआती अंशों में ही यह देखने को मिल जाता है, जब वह इस उपन्यास के आधार में ही गोमती के उद्गम पीलीभीत से लेकर जौनपुर तक का खांका खींच देते हैं।

इसके दो अध्याय इस किताब में है, जिसमें पहला अध्याय विस्तारित है, जबकि दूसरा अध्याय बहुत लघु। वह दो अध्याय ही इस उपन्यास के पूरे कर पाए, फिर भी वह गोमती नदी की भौगोलिक, सांस्कृतिक परिवेश और परिस्थितिकी का ऐसा चित्र खींचते हैं, जो पाठक के मानस पटल पर छा जाता है और वह अफ़सोस ज़ाहिर करता है कि काश वह पूरा उपन्यास लिख पाते।

प्रथम अध्याय में वह गोमती के उद्गम, लखनऊ के राजनीति और सामाजिक जीवन तथा गोमती के किनारे स्थित महत्त्वपूर्ण स्थानों के पौराणिक महत्त्व को समझाते हैं। इसमें वह पीलीभीत के अर्थ और नैमिषारण्य के महत्त्व को रेखांकित करने के साथ ही, गोमती नदी के किनारे बसने वाले पौराणिक ऋषियों और मध्ययुगीन सूफ़ी संत और अन्य संतों का ज़िक्र करते हैं। उन्होंने कई सारी मिथकीय किंवदंतियाँ, कहानियों और ऐतिहासिक स्त्रोतों के माध्यम से अपने आख्यान की रचना की है, जिसमें जौनपुर में शाही पुल के निर्माण की आवश्यकता और निर्माण प्रक्रिया से जुड़ी किंवदंती, आसिफ़ुद्दौला द्वारा इमामबाड़े का निर्माण, निजामुद्दीन औलिया द्वारा बावली का निर्माण प्रमुख रूप से सामने आते हैं।

सबसे दिलचस्प जौनपुर के शाही पुल से निर्माण के जुड़ी किंवदंती है, जिसमें वह वर्णन करते हैं कि क्यों अकबर ने जौनपुर के शाही पुल का निर्माण करवाया था और पुल, नदी के किनारे रहने वाले सूफ़ी संत की रूहानी शक्ति के कारण टिक पाया। यह एक दिलचस्प क़िस्सा है। इस प्रकार के कई क़िस्से इसमें मिलते हैं, जो उपन्यास को क़िस्सागोई की तरफ़ ले जाते हैं। इस छोटे से हिस्से में उन्होंने मध्यकालीन पुलों के बनने की तकनीकी का भी विवरण पाठकों के सामने रख दिया है। वह बताते हैं कि जौनपुर के शाही पुल का निर्माण किस तकनीक से हुआ और पहली बार जब उसका निर्माण हुआ तो वह क्यों बह गया और दूसरी बार उसे किस तरह और किस तकनीक से बनाया गया।

इस क्रम में वह पुन लखनऊ की तरफ़ लौटते हैं और वर्णन करते हैं कि आसिफ़ुद्दौला ने इमामबाड़े का निर्माण किन परिस्थितियों में करवाया और कैसे दिन भर इमामबाड़े पर कारीगर लोग काम करते और रात में उस किए गए काम को वहाँ के कुलीन लोग आते और ढहाकर चले जाते। यह एक दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य है, जो यहाँ जीवंत हो जाता है।

उपन्यास के आरंभिक अंशों को पढ़कर कोई भी साधारण पाठक अनुमान लगा सकता है कि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी लखनऊ के अवधी मिजाज़ की एक विस्तृत रूपरेखा पाठकों के सामने रखना चाहते थे, जो उनकी मृत्यु के साथ ही अधूरी रह गई। अगर यह उपन्यास वह पूरा लिख पाते तो शाय़द यह भी ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ की तरह उनके महान् उपन्यासों की श्रेणी में ही गिना जाता।

वह गोमती नदी को एक सूत्रधार के रूप में इस उपन्यास में रख रहे थे, जहाँ वह गोमती के मुँह से इसकी कहानी बयाँ कर रहे थे। वैसे भी‌ बहुत कम ही भारतीय भाषाओं के उपन्यास हैं, जो नदियों के नाम पर हैं। इस लिहाज से भी‌ यह महत्त्वपूर्ण होता। इन अंशों में वह नदी के किनारे रहने वाले समुदायों को भी याद करते हैं, जिसमें वह मल्लाहों का ज़िक्र करते हैं, लेकिन अफ़सोस कि उनकी छवि उपनिवेश द्वारा निर्मित छवि को ही चित्रित करती है।

आसिफ़ुद्दौला की शान में एक कहावत का ज़िक्र उन्होंने किया है, जो लोकमानस में व्याप्त थी। इसी के बरक्स वह भूल जाते हैं कि मल्लाहों को भी कहावत में अल्लाह के बराबर माना गया। उसी गोमती नदी और अन्य नदियों में जब बाढ़ आती तो यह कहावत आम हो जाती ‘ऊपर अल्लाह, नीचे मल्लाह’। कुल मिलाकर देखा जाए तो कोरोना काल में हुई उनकी मृत्यु ने साहित्य जगत को एक महत्त्वपूर्ण रचना से महरूम कर दिया। यह अगर लिखी जाती तो अवध और गोमती की महागाथा ही होती।

अनुवाद के बावजूद भी इस कहानी में उर्दूपन भरपूर है। यह इसे और भी रोचक और ज्ञानवर्धक बनाते हैं। उर्दू के ऐसे शब्द जो आमतौर पर समझ नहीं आते हैं, उन्हें समझने के लिए फ़ुटनोट में उनके अर्थ समझाए गए हैं। यह पाठक के भाषाई ज्ञान में वृद्धि ही करते हैं। इस प्रकार यह किताब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की रचनाधर्मिता में एक अनुपम कृति के रूप में हमारे सामने आती है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए।

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गोविंद निषाद को और पढ़िए : इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो-4हथेलियों में बारिश भरती माँ | मेरे पुरखे कहाँ से आए!

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