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रामचंद्र शुक्ल, हिंदी शब्दसागर और नागरीप्रचारिणी सभा

आज हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक और साहित्य के इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जयंती है। काशी नागरीप्रचारिणी सभा शुक्लजी की आलोचना की जन्मभूमि है। 1908 से 1930—लगातार 28 वर्षों तक वह ‘सभा’ की ऐतिहासिक परियोजना—हिंदी और भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी और समावेशी
डिक्शनरी— ‘हिंदी शब्दसागर’—के निर्माण में रमे रहे। संसार जानता है कि ‘शब्दसागर’ के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदरदास थे; लेकिन ख़ुद बाबू श्यामसुंदरदास के शब्दों में, ‘‘यदि यह कहा जाए कि शब्दसागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पंडित रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है, तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। इतिहास, दर्शन, भाषा-विज्ञान, व्याकरण, साहित्य आदि के सभी विषयों का समीचीन विवेचन प्रायः उन्हीं का किया हुआ है... कदाचित् यहाँ पर यह कह देना अत्युक्ति न होगी कि कोश ने शुक्लजी को बनाया और कोश को शुक्ल जी ने।’’

‘हिंदी शब्दसागर’ की रचना एक जीवनव्यापी काम था और शुक्लजी के साथ इसके संपादन में बाबू श्यामसुंदरदास, पंडित बालकृष्ण भट्ट, बाबू जगन्मोहन वर्मा, बाबू अमीर सिंह, लाला भगवानदीन और बाबू रामचंद्र वर्मा जैसे मूर्धन्य शामिल थे; लेकिन बाबू श्यामसुंदर दास के अलावा रामचंद्र शुक्ल ही ऐसे थे जो पहले दिन से आख़िरी दिन तक इस महाभियान से बँधे रहे। पिछले 132 वर्षों में ‘सभा’ द्वारा प्रकाशित सभी पुस्तकों में ‘शब्दसागर’ का ओहदा सबसे ऊँचा है। हिंदी या किसी भी भाषा के निर्माण और उत्थान के लिए कोश एक निर्विवाद आवश्यकता है और शुरुआत से ही ‘सभा’ इस आवश्यकता का अनुभव कर रही थी। अंततः 1907 में सभा ने यह दायित्व अपने ऊपर ले लिया।

यह परियोजना ‘सभा’ के प्रतिदिन सामर्थ्य के बाहर की चीज़ थी, लेकिन सभा के कार्यकर्ताओं ने दोगुने उत्साह, असंभव दूरदर्शिता, श्रम और साहस के साथ काम की शुरुआत की। यह जज़्बा कोश के निर्माण तक एकतान बना रहा। लोग बदले, भावना अक्षत रही।

एक बार 1908 से 1929 के बीच के महान् युग को देखिए। स्वाधीनता आंदोलन की निर्धूम ज्वाला के समानांतर आँधी-तूफ़ान के बीच भाषा की देहरी पर बारा गया दिया अप्रतिहत जिजीविषा के साथ टिमटिमाता रहा। उस दीये के प्रकाश से आंदोलन भी उद्भासित हुआ।

कोश-निर्माण विचित्र था। 184 पुस्तकों के माध्यम से शब्द-संग्रह का कार्य अपर्याप्त सिद्ध होने लगा। ऐसा लगने लगा कि शब्द-संग्रह के लिए पुस्तकों से शब्द चुन लेने पर भी रोज़मर्रा ज़िंदगी और बोलचाल के अनेक शब्द छूट जाएँगे। 169 भिन्न-भिन्न विषयों की सूची बनी; जिनके लिए सड़कों, गलियों, चौराहों, घाटों और भीड़ में से शब्द चुनने का निर्णय हुआ। सभा के एक दस्तावेज़ के अनुसार, ‘‘मुंशी रामलगन लाल नामक एक सज्जन को शहर में घूम-घूमकर अहीरों, कहारों, लोहारों, सोनारों, दलितों, तमोलियों, तेलियों, जोलाहों, मदारियों, कूचेबंदों, धुनियों, गाड़ीवानों, पहलवानों, कसेरों, राजगीरों, छापेख़ानेवालों, महाजनों, बजाजों, दलालों, जुआरियों, महावतों, पंसारियों, साईसों आदि के पारिभाषिक शब्द तथा गहनों, कपड़ों, अनाजों, पेड़ों, बर्तनों, मिठाइयों, पकवानों, देवताओं, गृहस्थी की चीज़ों, अनेक प्रकार के रस्म-रिवाजों, तरकारियों, सागों, फलों, घासों, खेलों और उनके साधनों आदि के नाम एकत्र करने के लिए नियुक्त किया।’’ इसके अलावा सभा ने श्रीरामचंद्र वर्मा को समस्त भारत के पशुओं, पक्षियों, मछलियों, फूलों और पेड़ों आदि के नाम एकत्र करने के लिये कलकत्ते भेजा। सभा ने अँग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की आदि के शब्दों की एक बड़ी सूची प्रकाशित कराके घटाने-बढ़ाने के लिए बड़े-बड़े विद्वानों के पास भेजी। इसके अतिरिक्त कोश में जीवनियों तथा कहावतों का संग्रह भी देने का प्रयत्न किया गया। शब्दों के अर्थ लिखने में संपादक टीकाकारों और कोशकारों पर निर्भर नहीं रहते थे। जहाँ-जहाँ टीकाओं के अर्थ असंगत प्रतीत हुए, वहाँ-वहाँ उन मूर्धन्यों ने ठीक-ठीक अर्थ देकर प्रमाण-पद से वाक्य उद्धृत कर दिए हैं। संस्कृत संज्ञाओं के विषय में जहाँ ‘वाचस्पत्याभिधान’ जैसे संस्कृत कोश और विश्वकोश जैसे बँगला कोश में ‘वृक्ष-विशेष’, ‘देश-विशेष’ या ‘नृत्य-विशेष’ देकर ही संतोष कर लिया जाता था; वहाँ ‘हिंदी शब्दसागर’ में उनका पूरा विवरण देने के लिए पर्याप्त अनुसंधान किया गया। प्राचीन कवियों द्वारा इस्तेमाल में लाए गए शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ, और साहित्य, आयुर्वेद आदि में आए पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधों के आधुनिक नाम आदि का निश्चय करने में आई मुश्किलों का समाधान इन्हीं दिग्गजों ने खोजा। ‘कोश’ ने अजीब-ओ-ग़रीब कठिनाइयों का सामना किया। सरकारी नौकरी में बाबू श्यामसुंदरदास का तबादला जम्मू हुआ, तो उनके साथ सभी सहायक संपादक और समूचा कोश विभाग जम्मू चला गया। वहाँ सीढ़ी से गिरकर ‘कोश’ के सहायक संपादक और अनूठे गद्यकार बालकृष्ण भट्ट की टाँग टूट गई। कुछ समय बाद बाबू अमीर सिंह भी बीमार होकर बनारस लौट आए। इस बीच अकेले रामचंद्र शुक्ल ने कोश-संपादन का कार्य सँभाला। कई महीने बाद ‘कोश’ कार्यालय वापस बनारस आया। यहाँ आकर श्यामसुंदरदास बीमार पड़ गए। बीच में शब्दों की स्लिपें भी चोरी हो गईं और कुछ काम दुबारा करना पड़ा। सभी सहायक संपादकों की लेखन-शैली भिन्न-भिन्न थी तो यह तय हुआ कि शुक्लजी अंत में सबको दुहराकर एक मेल कर दिया करें। ध्यान दें, इस अर्थ में पूरा ‘शब्दसागर’ उन्होंने लिखा। दिन भर सभी संपादक अलग-अलग कार्य करते थे और शाम को शुक्लजी सभी के शब्दार्थ ध्यान से सुनते थे। तब जाकर अंतिम मज़मून तैयार होता था। प्रूफ़ देखने और निर्णायक संशोधन का दायित्व श्यामसुंदरदास का था।

इस प्रकार यह ‘कोश’ बनकर तैयार हुआ। ‘कोश’ ही नहीं, ऐसे हिमालयीय प्रयत्नों के ताप से भविष्य के हिंदी-लेखन की आचार-संहिता भी तैयार हुई। रामचंद्र शुक्ल जैसे इतिहासकार और रामचंद्र वर्मा जैसे कोशकार मूर्धन्य भी तैयार हुए।

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व्योमेश शुक्ल को और यहाँ पढ़िए : आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आख़िरी तस्वीरें | नागरीप्रचारिणी सभा की मनोरंजन पुस्तकमाला | मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था  | श्याम बेनेगल : ग़ैर-समझौतापरस्त रचनात्मक मिशन का सबसे भरोसेमंद और बुलंद स्मारक 

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