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इरफ़ान एक नया सूरज था जो बहुत जल्द अस्त हो गया

इरफ़ान ख़ान। शिद्दत। उस शिद्दत की ज़िम्मेदारी। इस ज़िम्मेदारी की ख़ामोश अच्छाई। उसकी ख़ामोश अच्छाई की बोलती निगाहें। अगर मुझे किसी ऐसे अभिनेता को पेश करना हो जो अपने होने भर से एक निहायत ही नफ़ीस तरीक़े से अपने मन की बात कह सकता हो, तो मैं तुरंत इरफ़ान ख़ान की ओर इशारा करूँगा।

जैसा कि अनूप सिंह ने अपने मुख़्तसर-से रोज़नामचे में लिखा है, बयान से परे और अथाह, ये दो अल्फ़ाज़ इरफ़ान के जज़्बे को बहुत सटीक ढंग से पेश करते हैं।

इरफ़ान की एक तस्वीर अक्सर मेरे मन पर छाई रहती है, ऐसी जो एक साथ किसी अनकहे रूपक और एक बुनियादी बदलाव की ज़रूरत का ताज़ा भाव जगाती है। जैसे उगता सूरज माज़ी की परछाइयों को हटा देता है। जैसे कि एक नई शुरुआत का रास्ता साफ़ करने के लिए माज़ी की हर चीज़ को जान लिया गया है और बा-इज़्ज़त परे हटा दिया गया है।

मुझे लगता है कि इरफ़ान एक नया सूरज था जो बहुत जल्द अस्त हो गया।

सिनेमा की दुनिया में एक कहानी को पाँच बार दोहराया जाता है। पहली बार, जब लेखक उसकी कल्पना करता है, दूसरी बार, जब वह स्क्रिप्ट के रूप में लिखी जाती है, तीसरी बार, जब वह रिकॉर्ड की जाती है, चौथी बार, जब उसकी एडिटिंग होती है, और आख़िरी बार जब वह दर्शकों के सामने जाती है। हर क़दम पर, उसके असर को बढ़ाने लिए अलग-अलग क़िस्म के रचनात्मक हुनर का इस्तेमाल किया जाता है। मैं समझता हूँ, इनमें सबसे ज़्यादा सफल और जिसमें सबसे ज़्यादा फ़ख़्र महसूस होता है, वह है जब दर्शक उस असर को अपने साथ ले जाता है। एक अभिनेता के तौर पर मुझे अब तक इससे बेहतर एहसास नहीं हुआ है।

सिनेमा के किसी भी अभिनेता के लिए यह पहले से जानना नामुमकिन है कि दर्शक उसके अभिनय को किस तरह आँकेंगे। पहली चीज़ तो यह है कि यह मंच नहीं है जहाँ भूमिका अदा की जाती है और उसे वहीं के वहीं आँक लिया जाता है। दूसरी चीज़, सेट और कॉस्ट्यूम की निरंतता से अलग, एक रोल को लगातार निभाना दिमाग़ी तौर पर एक चुनौती है। अच्छा अभिनेता वह होता है जो रोल की बारीक रंगतों को बरक़रार रखता है, भले ही उसकी अदायगियों के बीच कितने ही लंबे अंतराल क्यों न आते रहे हों। रोल एक शॉट, एक सीन और एक एपिसोड से कुछ ज़्यादा होता है। वह समूचे कथानक के भीतर कई ख़ास जज़्बात से होकर गुज़रता है। और हरेक जज़्बा उसकी संपूर्णता का हिस्सा होता है। हरेक का अपना बुनियादी जादू और अपनी ख़ासियत होती है।

इस मायने में, मुझे लगता है, अभिनेता के रूप में इरफ़ान जैसा कोई नहीं था। उनके अभिनय में एक पकड़ में न आने वाली ख़ूबी थी जो किसी भी दर्शक को बेचैन कर सकती थी। फ़्रेम के भीतर उनका होना ही देखने वाले को अनायास नफ़ीस अक़्लमंदी के घेरे में लाकर खड़ा कर देता था। कहीं का भी न होने का अहसास। जैसे कहीं से उखाड़ दिया गया हो।

मुझे लगता है कि इरफ़ान की नफ़ासत को स्क्रिप्ट्स या डायलॉग्स की ज़रूरत नहीं थी। उनका ज़बरदस्त जोश ही उनकी पुरसुकून शैली की भूमिका तैयार कर देता था। ‘स्लमडॉग मिल्यनेर’ का पुलिस इंस्पैक्टर, ‘लंच बॉक्स’ का ख़ामोश तबीयत साजन फर्नांडिस, ‘हिंदी मीडियम’ का परेशान बाप, ‘मक़बूल’ का मैकबेथ, ‘पान सिंह तोमर’, ‘पीकू’ का बेसब्र राणा चौधरी आदि उनके ख़ास रोल में से कुछ हैं, जहाँ इरफ़ान ख़ान ने किरदारों की रूह को अचूक ढंग से पकड़ा है और उनकी बारीकियों को पूरी सहजता के साथ पेश किया है। इन सारी भूमिकाओं में उनकी अपनी छाप दिखाई देती है।

उन्होंने ऐसा कैसे किया, यह जानने के लिए आपको ‘क़िस्सा’ और ‘द सॉन्ग ऑफ़ स्कॉर्पियंस’ के सफ़र के बारे में पढ़ना चाहिए जिसे अनूप सिंह ने इस किताब में बेहद साफ़ तरीक़े से बयान किया है।

‘पीकू’ में एक सीन था जहाँ वह बतौर कार सर्विस मालिक एक परिवार को कार में दिल्ली से कोलकाता ख़ुद लेकर चलने की पेशकश करते हैं, क्योंकि उनका कर्मचारी उस वक़्त मौजूद नहीं होता। सीन की शुरुआत कुछ इस तरह होती है कि वह कार की ड्राइवर सीट पर होते हैं और दीपिका और मैं कार में उनके पीछे की सीट पर जा बैठते हैं। हमारे साथ सफ़र कर रहे घरेलू नौकर से ड्राइवर की बग़ल वाली सीट पर बैठने को कहा जाता है।

यह देखते ही इरफ़ान बग़ल में बैठे नौकर की ओर देखते हैं और फिर दीपिका और मेरी ओर देखते हैं। उनका यह देखना कुछ ही सेकंड का होता है, लेकिन उसके ख़त्म होते ही दीपिका पीछे की अपनी सीट से हटती हैं और नौकर से पीछे बैठने को कहकर सामने की सीट पर इरफ़ान की बग़ल में बैठ जाती हैं।

उन जादुई ख़ामोश कुछ सेकंड में उन्होंने डायलॉग्स का एक पूरा पैराग्राफ़ हमें और दर्शकों से कह दिया था : 

“एक्सक्यूज़ मी, मैं इस कंपनी का मालिक हूँ, आपका ड्राइवर नहीं हूँ। मैं अपनी मर्ज़ी से आपको ड्राइव करके ले जाते हुए आप पर एहसान कर रहा हूँ। मेरी इज़्ज़त का ख़याल करते हुए क्या घरेलू नौकर की बजाय आप दोनों में से कोई मेरी बग़ल में बैठे, ऐसा नहीं होना चाहिए क्या?”

ऐसी क़ाबिलियत लफ़्ज़ों के परे है।

जैसा समाज होता है, वैसा उसका साहित्य होता है। ऐसा लगता है। लेकिन उसकी अदायगी अक्सर सीमाओं को चुनौती देती है। इरफ़ान के हॉलीवुड फ़िल्में करने पर बहुत-से आलोचक यह सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या उनका भीतरी अलगाव कुछ ख़ास तरह के अभिनय तक ही सीमित था, या वह सभी तरह के अभिनय में मौजूद था। उनके काम को देखकर लगता था कि वह किसी भी तरह के रचनात्मक काम पर रीझ जाते थे, और उसके सोते की ओर इस तरह खिंचे चले जाते थे जैसे कि वहाँ से लौटना मुमकिन ही न हो।

जैसे कि ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’ में उसके अहम किरदार पाई पटेल के रूप में इरफ़ान कहते हैं, “एंड सो इट गोज़ विद गॉड”। वह काफ़ी दूर-अंदेशी-भरा पल था, अगर ऐसा सोचें कि एक अभिनेता के तौर पर उनकी ज़िंदगी ऐसे रास्ते पर निकलने जा रही थी जिसका वास्ता सिर्फ़ एक दुनिया से नहीं रह गया था।

अगर सिनेमा के आईने में असलियत का रंगीन अक्स दिखाई देता है, तो मैं कहूँगा कि इरफ़ान के आईने में इंद्रधनुष झलकता था। नहीं, शायद इंद्रधनुष से भी कुछ ज़्यादा; उसमें रंगतों के ऐसे मेल थे जहाँ यह कहना मुमकिन ही नहीं था कि किस रंग में कौन-सा रंग मिला हुआ है। वह हमें एक ऐसी गूढ़ जगह में छोड़ देते थे जो ठोस दुनियावी और पेचीदा ख़याली के बीच कहीं होती थी।

और लगता है कि रोल का उनका चुनाव उनकी निजी ज़िंदगी पर भी कुछ असर डाल गया था। उन्होंने अपने नाम में एक और ‘r’ जोड़ा लिया था। Irfan की जगह Irrfan. और एक इंटरव्यू के मुताबिक़, उन्होंने अपने नाम से ‘ख़ान’ हटा दिया था, क्योंकि वह चाहते थे कि वह अपने ख़ानदान के नाम से नहीं बल्कि अपने काम की वजह से जाने जाएँ।

मेरा ख़याल है कि इरफ़ान इस मामले में अकेले नहीं हैं। बहुत-से लोग, जिन्होंने अलग-अलग तरह के लोगों से तारीफ़ पाई है, अक्सर बिल्कुल विरोधी सोच से दो दिशाओं में खिंचे रहते हैं। इस तरह के तनाव को सह पाना हमेशा मुश्किल होता है।

हर क़िस्म और रंगत के 150 अलग-अलग किरदारों का अभिनय करने के बाद, और हर रोल को अपनी तन, मन और आत्मा सौंप देने के बाद, मुझे लगता है कि किसी इंसान को एक तरह के ढाँचे में फ़िट करना नामुमकिन है। इंसान तब तक इतना आज़ाद हो चुका होता है कि उसे किसी ख़ाके में बाँधा नहीं जा सकता।

मुझे लगता है कि यह अभिनेता इरफ़ान की हक़ीक़त थी। डायरेक्टरों को ऐसे अच्छे अभिनेता मिल जाते हैं, जिनसे वे मनचाही तरह से रोल करवा सकते हैं। लेकिन अभिनेता का एक ऐसा लाज़मी, अलग न किया जा सकने वाला हिस्सा हमेशा बना रहता है जो उसके हर रोल में शामिल रहता है। इरफ़ान साफ़ तौर पर एक रोमांटिक थे, चाहे वह किसी भी रोल या सीन में हों, या कोई-सा भी डायलॉग क्यों न बोल रहे हों।

कोई क़िस्सागोई की कला का जादूगर हो सकता है, लेकिन अभिनेता की आत्मा किसी दूजे जैसी नहीं होती। अपनी तमाम 100 से अधिक अदायगियों में इरफ़ान अपनी आत्मा को खोलकर रख देते थे। मैं समझता हूँ कि परफ़ार्मिंग आर्ट्स में ऐसा गुण अनोखा है।

लेकिन एक पछतावा मेरे साथ हमेशा बना रहेगा—इरफ़ान को हमसे बहुत जल्दी छीन लिया गया। मौत ने एक होनहार ज़िंदगी को असमय ही झपट लिया। वह जीवन को उससे ज़्यादा दे रहे थे, जितना उससे पा रहे थे। और उनके पास देने के लिए अभी बहुत कुछ था। लेकिन मौत ने अलग ही फ़ैसला कर लिया था।

रात

जब टूट जाता है आसमान,
जब थम जाती है क़ायनातें,
जब घुल जाते हैं किनारे,
फैली अनंतता में—
वह कभी न ख़त्म होने वाली रात
ख़ामोशी की।

•••

यह गद्य अनूप सिंह की पुस्तक Irrfan: Dialogues with the Wind [प्रकाशक : कॉपर कॉइन, संस्करण : 2022] के हिंदी अनुवाद ‘इरफ़ान : जहाँ ले चले हवा’ [अनुवादक : मदन सोनी | रीनू तलवाड़, प्रकाशक : कॉपर कॉइन, संस्करण : 2025] की प्रस्तावना है। यह पुस्तक प्राप्त करने के लिए यहाँ देखिए : copper coin | amazon

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