चंदर से गलबहियाँ नहीं, सुधा पर लानत नहीं
शशांक मिश्र
17 मई 2025

धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ पर इन दिनों फिर से चर्चा हो रही है। यह भी कम अचरज भरी बात नहीं है। आज़ादी के दो साल बाद आए इस उपन्यास पर अगली सदी में इस तरह का डिस्कोर्स शायद इसके अपने अभियान में सफल होने की निशानी है। बहुत हद तक ‘गुनाहों का देवता’ शीर्षक पुस्तक हिंदी की अपनी ‘रिच डैड पुअर डैड’ बन गई है। यह कृति सड़क किनारे स्टॉल पर पाइरेटेड कॉपी, इंटरनेट पर सुलभ पीडीएफ़ के साथ-साथ आलीशान बुकस्टोर में भी उपलब्ध है। इस किताब के इतने संस्करण छपे हैं और यह इतने घरों में उपलब्ध है कि इसे ‘बुक करेंसी’ भी घोषित किया जा सकता है। इस किताब को पढ़ने के बाद इंसान 1996 में आई ‘जीत’ फ़िल्म का सनी देओल बन जाता है—वह इसे इसकी ख़ुशबू से पहचान लेता है।
वह ख़ुशबू जो कंटेनर में सुख, दुलार, लाड़, अलभ्य प्रेम, वासना, इच्छाएँ, सहानुभूति, अकेलापन, अनिष्ट, अशुभ, लाल सिंदूर, ख़त के काग़ज़, थीसिस, नान खटाई और गुलाब के फूलों के ऊपर अथाह दुख डालकर मिक्सर चलाने पर निकलती है। यहाँ भावनात्मक जड़त्व नहीं है। इस उपन्यास को ख़त्म करते ही यह आपके संग लग लेता है, जैसे पूर्णिमा की रात को सफ़र में चाँद। आप जब-जब आँख उठाते हैं—एक अलग भव्यता दिखती है। वह वहीं है, तब से अब तक। बीच का समय ख़ुद को समय में बहाने और सामना होने पर ख़ुद को टटोलने का है।
किरदार ऐसे हैं जैसे घास के बड़े मैदान में खूँटे से गड़े हों। डॉक्टर शुक्ला, बिनती, बुआ, सुधा, गेसू, बिसरिया, कैलाश, पम्मी, बर्टी व अन्य अपनी परिधि में घूमते रहते हैं... और चंदर के पाँव समय की बाढ़ में घुटनों तक धँसे हैं। यह बयान चंदर से गलबहियाँ नहीं है। यह ‘यार चंदर’ कहने के बाद बची बहुत कुछ बोलने की गुंजाइश है। ऐसी कहानी को पढ़ते वक्त आप उसमें से ही एक अतिरिक्त किरदार हो जाते हैं। आप बोलते नहीं, आप खड़े होकर कहीं से सब कुछ देखते रहते हैं। आप कभी स्टडी में होते हैं। कभी पम्मी के घर। कभी रसोई में डॉक्टर शुक्ला को खाना खाते देखते हैं। कभी गेसू और सुधा के बग़ल में मुतमइन हो हरी घास पर लेटे होते हैं।
“किरदार से आपकी दूरी आपके विवेक, आपकी सहिष्णुता, आपकी सहनशीलता की भी परीक्षा है।”
सुधा की शादी होनी है। फ़ोटो आई है। सुधा को दिखानी है। चंदर गया है। सुधा ज़िद में है, नहीं करनी शादी। पापा के पास जाने को है। क़दम बढ़ाया और चंदर के हाथ की उँगलियाँ सुधा के गाल पर छप गई हैं। इस घटनाक्रम का शोकगीत आपसे सवाल करता है—आप कहाँ है?
आप खड़े होकर देख रहे हैं—इसे पढ़कर, सामने बने कल्पना चित्र देखकर मन में जो उपजा उसे पाला या मार दिया? वह भाव कहाँ तक जाता है—मायने सिर्फ़ इतना ही रखता है। जैसे-जैसे पितृसत्तात्मक सोच के बादल छँट रहे हैं, चंदर के लिए लोगों के मन में घृणा बढ़ रही है। कई बार पूरी कहानी में एक क्षण ही किसी के लिए पूरा सारांश तय करता है। तैश में उठा हाथ हालिया चर्चा में टॉक्सिसिटी का सबसे विज़िबल उदाहरण है।
मैंने ‘गुनाहों का देवता’ को साल 2018 में पहली बार पढ़ा था। अभी दुबारा पढ़ना हुआ। मेरे अपने लिए कितना कुछ बदल गया! सार यही है। दूसरी या तीसरी बार पढ़ने के बीच में आप क्या कर रहे थे। उस समय ने सामाजिक समझ के साथ आपके अपनेपन का कितना विस्तार किया। ‘एनिमल’ (2023) फ़िल्म जब आई तो उसके साथ भी हिंसा के महिमामंडन की बहस शुरू हुई। लोगों ने माध्यम को क्रूर बताया। पक्ष बँटे और फ़िल्म की कमाई बढ़ी। ‘गुनाहों का देवता’ के साथ भी शायद यही है। आप जब भी किसी चीज़ को उसकी वस्तुस्थिति के हिसाब से नहीं देखेंगे, वह आपको प्रॉब्लेमेटिक ही लगेगी। हालाँकि यह लगना कोई गुनाह नहीं।
आप इस किताब को इसके रॉ फ़ॉर्म में देखिए। एकदम उखड़े हुए जज़्बात और ठंडापन है। जीर्ण प्रेम की गाथा के हर पन्ने में त्रासद गुँथा है। क़ायदे से पढ़ेंगे तो देखेंगे कि इसमें प्रेम के जन्मने का चित्रण नहीं है। कहानी शुरू ही स्कूल-कॉलेज की उम्र से हो रही है। यह उस उम्र में प्रेम होने की संभावना से इनकार नहीं है। बस इतना कि विवरण के इशारे कुछ और कहते हैं। किसी को देवता बनाया नहीं जाता, देवता की छवि अंतर्मन में पहले से होती है, बस समय और चमत्कारों से और मज़बूत होती जाती है।
इस पूरी कहानी में चंदर की अपनी यथास्थिति से रगड़ है। भविष्य से अथाह समय की बाढ़ ने चंदर को जकड़ लिया है। हर निर्णय इतना रूढ़ किसलिए है, शायद यह इससे ही पता चलता है। सुधा की शादी के लिए ज़िद, पम्मी से शारीरिक जुड़ाव, बिनती के लिए नैसर्गिक खुलापन और कुछ पनपने की संभावना। ऐसा लगता है कि धर्मवीर भारती ने जहाँ-जहाँ चंदर का नाम लिखा—उस पर गोला बना दिया... सीमाओं का वृत्त।
सुधा की शादी हो चुकी है—कैलाश से। डॉक्टर शुक्ला और चंदर जब बरेली गए तो कैलाश से मिले थे। फिर डॉक्टर शुक्ला ने प्रस्ताव दिया। चंदर ने सुधा को राज़ी करवाया। शादी भी करवाई। अब डॉक्टर शुक्ला सुधा को लिवाने के लिए शाहजहाँपुर गए हैं। बिनती भी साथ गई। अब वो लोग दिल्ली घूमने निकल गए। चंदर घर पर अकेला है। पंद्रह दिन हो गए सुधा का कोई ख़त नहीं आया। सुबह होते ही बंगले में आलोक बिखर पड़ता है, लेकिन शाम को अकेलापन काटने दौड़ता है। आप प्रेम का सागर लिए बैठे हों या एकाध छींटे ही पड़ी हों—दुख तौला जाएगा तो बराबर निकलेगा।
कोई कहेगा वह प्रेम तमाचा खाकर कुछ न बोलने में है, किसी के लिए प्रेम बर्टी के बागान में मृत पत्नी की याद में उगे गुलाब हैं। कोई प्रेम बिसरिया की कविताओं के ‘बिनती’ शीर्षक संग्रह में ढूँढ़ेगा। कोई प्रेम को पम्मी की नज़र से देखेगा, कोई गेसू का प्रेम जिएगा। कोई बिनती की माँग में भरी सुधा की राख को प्रेम स्वीकारेगा! लेकिन क्या यह सच है?
यह पूरी किताब अगर आपके लिए ‘प्रेम क्या है’? सवाल बनकर नहीं उभर रही तो इसे दुबारा पढ़ना चाहिए।
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