रामलीला तेरी याद में नैन हुए बेचैन
पायल भारद्वाज
02 अक्तूबर 2025

नब्बे के दशक के उतरते साल थे। न केबल टीवी गाँव पहुँचा था, न फ़ोन। बिजली पहुँच तो गई थी, पर अक्सर ग़ायब ही रहती थी। न उसके आने का कोई नियम था, न जाने का। लोग भी बिजली पर पूरी तरह आश्रित नहीं थे और न ही किसी और तकनीकी साधन पर। मनोरंजन के साधन भी व्यक्तिगत न होकर अधिकतम सामूहिक ही थे। आए दिन कोई खेल, तमाशा, नौटंकी, कथा होती रहती जिससे गाँव में रौनक़ लगी रहती थी।
रामलीला उन दिनों भी ख़ूब हुआ करती थी। गाँव के किसी चौक या किसी खुली जगह पर रामलीला का स्टेज लग जाता और स्टेज के पीछे रामलीला के कलाकारों की रहने की व्यवस्था होती।
रामलीला का मंचन शाम को होता था। दिन में लाउड-स्पीकर पर गाने बजते रहते। शाम को नियत समय पर भीड़ जमा हो जाती और जब तक भीड़ जमा होती स्टेज पर गाना नाचना चलता रहता।
मंडली में एक जोकर होता जो कभी भी किसी भी दृश्य में घुस जाता, कुछ बेतुकी हरकतें और संवाद करके पब्लिक का मन लगाए रहता। रामलीला से पहले के नाचने-गाने में जोकर की मुख्य भूमिका रहती थी। वह बीच-बीच में दुपट्टा ओढ़कर लड़कियों की तरह भी नाचता और माइक पर पीपनी-सी आवाज़ बनाकर गाता :
‘‘मत पीवै रे तम्बाकू बालमा
अगर तम्बाकू पीओगे तो
मैं नागनिया बन जाऊँगी
काई भिल्ले में घुस जाऊँगी
और तोहे नज़र ना आऊँगी’’
फिर लड़के की आवाज़ में गाता :
‘‘तू नागनिया बन जाएगी
काई भिल्ले में घुस जाएगी
मैं बनके सपेरा आऊँगा
और बीन पे तोहे नचाऊँगा
रानी तोहे पकड़ लै जाऊँगा... जाऊँगा... जाऊँगा’’
गीत में स्त्री-पात्र तरह तरह के हथकंडे अपनाती कि बालम नशा करना छोड़ दे; पर बालम को रानी से पहले तम्बाकू चाहिए, रानी छूटे तो छूटे तम्बाकू न छूटे।
रानी फिर कहती :
‘‘अगर तम्बाकू पीओगे
तो मैं माछरिया बन जाऊँगी
काऊ नद्दी में छुप जाऊँगी
राजा तोहे नज़र न आऊँगी’’
पुरुष स्वर कहता :
‘‘तू माछरिया बन जाएगी
काऊ नद्दी में छुप जाएगी
मैं बगुला बनके आऊँगा
चोंच में तोहे दबाऊँगा
और बैठ पार पे खाऊँगा’’
पुरुष स्वर की हेठी पर दर्शक हँस-हँसकर दोहरे हो जाते। जोकर ख़ूब लटके-झटके के साथ अपनी पूरी क्षमता से उछल-उछलकर नाचता जिस पर उसे ख़ूब अनुकूल प्रतिक्रिया मिलती। नाच-गाने के समय अधिकतर पुरुष ही उपस्थित होते। जोकर के लटकों-झटकों से ख़ुश होकर और अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने के लिए छाप लगवाई जाती—10 रुपये चौधरी साहब की छाप, 20 रुपये पंडी जी की, ये 20 रुपये की छाप राजू, मोनू और कलुआ की...
अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती तो लीला आरंभ होती।
लीला में संवाद कभी तुकबंदी में बोले जाते और कभी सामान्य रूप से। मंचन को सहज और रुचिकर बनाने के लिए संवाद के बीच-बीच में कलाकार कभी हास-परिहास करते तो कभी फ़िल्मी गीतों और लोकगीतों का प्रयोग करते।
सूपनखा (शूर्पणखा) की नाक कटने का दृश्य है। वह नाचते हुए दृश्य में प्रकट होती है :
‘‘गोरी हैं कलाइयाँ
तू पहना दे मुझे हरी-हरी चूड़ियाँ
अपना बना ले मुझे बालमा
गोरी हैं कलाइयाँ...’’
राम के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हुए वह कहती :
‘‘हे सुंदर पुरुष! प्रथम दर्शन के उपरांत से ही मेरा मन तुम्हारे रूप और यौवन पर आसक्त हो गया है। हम दोनों पूर्णतः एक दूसरे के योग्य हैं। मैं तुम्हारे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखती हूँ।’’
राम विनम्रता और दृढ़तापूर्वक पहले तुकबंदी में कहते हैं :
‘‘हे देवी! तुम्हारी इच्छा हम पूरण कर सकते कभी नहीं।
हम आर्य पुरुष हैं, आर्य धर्म खंडन कर सकते कभी नहीं।’’
राम आगे अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं :
‘‘देवी! हम पहले से विवाहित हैं और एकपत्नीव्रतधारी भी। हम आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकते। आप चाहें तो हमारे भाई लक्ष्मण के समक्ष यह प्रस्ताव रख सकती हैं। वह भी समान रूप से योग्य है।’’
सूपनखा कमर लचकाते हुए लक्ष्मण के पास जाती है :
‘‘क्या तुम्हें मेरा प्रस्ताव स्वीकार है, सुंदर वीर पुरुष?’’
लक्ष्मण के मना करने पर वह क्षोभ से भर उठती है :
‘‘हे राम जी बड़ा दु:ख दीन्हा
तेरे लखन ने बड़ा दु:ख...
सुध-बुध बिसराई मेरी नींद चुराई
मेरा मुश्किल कर दिया जीना...’’
वह माधुरी दीक्षित की तरह मंच पर बैठकर आगे की ओर झुकते हुए खिसक-खिसककर राम-लक्ष्मण के समक्ष प्रलाप करती है।
गाना ख़त्म होते-होते उसका क्षोभ क्रोध में बदल जाता है। वह दोनों भाइयों को भला-बुरा कहकर उन्हें सबक़ सिखाने की चेतावनी देते हुए सीता की ओर आक्रामकता से बढ़ती है। इतने में लक्ष्मण उसकी नाक काट देते हैं। वह विलाप करते हुए वहाँ से चली जाती है।
इसके बाद दृश्य बदलता है :
रावण का दरबार लगा है। सूपनखा रो रही है। रावण उसका हाल देखकर ग़ुस्से से आगबबूला हो रहा है। (रावण का पात्र निभाने वाला कलाकार जब तेज़ स्वर में बोलता है तो बीच-बीच में माइक पर साँस की आवाज़ आती है, जैसे उसे साँस की बीमारी हो। उसके विषय में लोगों में यह हास्य प्रचलित था कि रावण किराये पर साँस लेता है...)
रावण की साँस उखड़ रही है। वह अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए आतुर हो रहा है कि तभी जोकर एंट्री लेता है :
‘‘पर महाराज इससे ये तो पूछिए ये वहाँ क्या करने गई थी!’’
रावण शूर्पणखा से पूछता है कि बताओ बहना तुम क्यों गई थीं वहाँ? वह कहती है :
‘‘भैया, मैं तो वन में घूमने गई थी!’’
जोकर अपने अंदाज़ में शूर्पणखा की बात दोहराकर कहता है :
‘‘घूमने गई थी?? असल बात को चबा गई महाराज! ये सच नहीं बता रही।’’
यह सुनकर रावण कहता है :
‘‘अरे नहीं! अच्छे घरों की बहू-बेटियाँ झूठ नहीं बोलतीं।’’
‘‘तो अच्छे घरों की बहू-बेटियाँ नाक-कान कटाती घूमती हैं क्या महाराज!’’
रावण जोकर को बड़ी-बड़ी लाल आँखें दिखाकर कहता है :
‘‘मौन रहो मूर्ख!!’’
जोकर दृश्य से ग़ायब हो जाता है।
रावण के राम-लक्ष्मण से बदला लेने की योजना पर विचार करते हुए उस दिन की रामलीला का समापन होता है।
हर दिन रामलीला समाप्त होने पर फिर से नाच गाना होता था। पैसे इकट्ठे करने के लिए रामलीला से ज़्यादा यही नाच-गाना काम आता। पुरुषों को छाप लगवाता छोड़कर स्त्रियाँ घर लौट जातीं; उनकी छाप तो चूल्हे पर लगनी होती थी, वैसे भी अच्छे घरों की बहू-बेटियाँ दिन छिपे तक बाहर नहीं घूमतीं।
रामलीला समाप्त होने के बाद साथ आई एक हमउम्र लड़की ने कहा :
‘‘चल रामलीला वालों से मिलने स्टेज के पीछे चलते हैं और देखकर आते हैं कि ये लोग कैसे रहते हैं, कैसे तैयार होते हैं।’’
घर जाने का समय हो रहा था, लेकिन दिन अभी पूरी तरह छिपा नहीं था। थोड़ी लालिमा बाक़ी थी सूरज में, अभी थोड़ी देर रुका जा सकता था। वैसे भी अच्छे घर की बहू-बेटी बनने की हमारी ट्रेनिंग भी ठीक से शुरू नहीं हुई थी, इसलिए हम इतने प्रशिक्षित और अनुशासित भी नहीं थे।
बाल-कौतूहल ने अपना ज़ोर दिखाया और डरते-सहमते हम लोग स्टेज के पीछे पहुँच गए। हमने मेकअप और कॉस्टयूम में उन कलाकारों को देखा। कोई हमें देखकर मुस्कुरा रहा था, कोई भवें नचा रहा था। सीता जी अपनी कॉस्ट्यूम में बैठी चाय पी रही थीं। मुझे वह इतनी-इतनी पसंद आईं कि मैंने अपनी पसंदीदा हेयर-पिन और पाँच रुपये सीता जी को दे दिए। हम दोगुने कौतूहल के साथ वापस लौटे।
घर लौटकर हमने माँ को बड़े चाव से बताया कि आज हमने रामलीला के कलाकारों को पास से देखा। सीता सच में कितनी सुंदर हैं, मैंने उन्हें अपनी हेयर-पिन और पाँच रुपये दे दिए।
माँ ने एक चपत लगाकर कहा :
‘‘लड़का है वो, लड़की नहीं है उनमें से कोई... वे सब मर्द हैं पागल लड़की!
मैंने माँ से पूछा :
‘‘लड़का क्यों सीता बना है, कोई लड़की क्यों नहीं?’’
‘‘लड़कियाँ नौटंकी करती नहीं घूमा करतीं, अब मत जाना उधर...’’ यह कहकर माँ अपने चिर-परिचित अंदाज़ में थोड़ी देर बड़बड़ाती रहीं कि जाने कहाँ इधर-उधर घूमती रहती हूँ मैं, ज़रा डर नाम की चीज़ नहीं है मुझमें कि घर जाकर डाँट पड़ेगी वग़ैरा-वग़ैरा।
उधर मेरे दिमाग़ में चलता रहा कि इसलिए लड़कियाँ रामलीला नहीं करती होंगी कि घर जाकर उन्हें डाँट पड़ेगी। इन लड़कों को डाँट क्यों नहीं पड़ती—बाहर जाने के लिए, लड़की बनकर नौटंकी करने के लिए और न वहाँ देर तक नाच देखने के लिए, वे तो अभी भी वहीं बैठे होंगे।
तभी माइक पर आवाज़ गूँजी :
‘‘कल रामलीला में सीता-हरण का मंचन होगा। सभी से निवेदन है कि समय पर पधारें!’’
•••
पायल भारद्वाज का और एक लेख यहाँ पढ़िए : त्याग नहीं, प्रेम को स्पर्श चाहिए
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
23 सितम्बर 2025
विनोद कुमार शुक्ल : 30 लाख क्या चीज़ है!
जनवरी, 2024 में मैंने भोपाल छोड़ दिया था। यानी मैंने अपना कमरा छोड़ दिया था। फिर आतंरिक परीक्षा और सेमेस्टर की परीक्षाओं के लिए जाना भी होता तो कुछ दोस्तों के घर रुकता। मैं उनके यहाँ जब पहुँचा तो पाया
05 सितम्बर 2025
अपने माट्साब को पीटने का सपना!
इस महादेश में हर दिन एक दिवस आता रहता है। मेरी मातृभाषा में ‘दिन’ का अर्थ ख़र्च से भी लिया जाता रहा है। मसलन आज फ़लाँ का दिन है। मतलब उसका बारहवाँ। एक दफ़े हमारे एक साथी ने प्रभात-वेला में पिता को जाकर
10 सितम्बर 2025
ज़ेन ज़ी का पॉलिटिकल एडवेंचर : नागरिक होने का स्वाद
जय हो! जग में चले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को। जिस नर में भी बसे हमारा नाम, तेज को, बल को। —दिनकर, रश्मिरथी | प्रथम सर्ग ज़ेन ज़ी, यानी 13-28 साल की वह पीढ़ी, जो अब तक मीम, चुटकुलों और रीलों में
13 सितम्बर 2025
त्याग नहीं, प्रेम को स्पर्श चाहिए
‘लगी तुमसे मन की लगन’— यह गीत 2003 में आई फ़िल्म ‘पाप’ से है। इस गीत के बोल, संगीत और गायन तो हृदयस्पर्शी है ही, इन सबसे अधिक प्रभावी है इसका फ़िल्मांकन—जो अपने आप में एक पूरी कहानी है। इस गीत का वीड
12 सितम्बर 2025
विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय : एक अद्वितीय साहित्यकार
बांग्ला साहित्य में प्रकृति, सौंदर्य, निसर्ग और ग्रामीण जीवन को यदि किसी ने सबसे पूर्ण रूप से उभारा है, तो वह विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय (1894-1950) हैं। चरित्र-चित्रण, अतुलनीय गद्य-शैली, दैनिक जीवन को