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भूलना दुनिया का सबसे बुरा मर्ज़ है

“नदी इतनी पतली थी कि उसमें अब बस धूप से सनी थोड़ी नींद बहती थी।”

पहली कहानी के पहले पन्ने पर ऐसी काव्यात्मक भाषा मिल जाए तो पठनीयता की भी ट्यूनिंग हो जाती है। नदी का पेट के मुहाने में बदल जाने की कहानी है यहाँ। नदी टूटी-फूटी चीज़ों के बीच ख़ुद को साबुत ढूँढ़ने की कोशिश कर रही है। कहानी है—'कथा में नदी बहती थी'।

टपरी पर चायवाला अख़बार क्यों रखता है और लोग क्यों अख़बार पढ़ते हुए चाय पीते हैं, इसकी व्याख्या गाँव के ग्लोबल होने की दास्तान के साथ उपस्थित है इस किताब में। 

कथा-कहन के शिल्प में विनोद कुमार शुक्ल की छाया का दिखना यहाँ बहुत सुखद है। ये पंक्तियाँ अपने साथ संसार की बात भी कर देती हैं। लगता है कि जैसे शब्दों के अनुक्रम पर लेखक अगर यूँ काम करता है, तो अर्थ का व्योम ही बड़ा हो जाता है। पंक्ति का डैना तोता से चील-सा हो जाता है। घटना का विवरण कुछ ऐसे किया गया है, मानो अपने पड़ोस का मसला हो। 

वेदना का अनुसूत्र—आँसू, यहाँ अपनी तलछट को ढूँढ़ते हुए अपनी ही पुरानी लिखी संवेदनाओं के सूत्र को झुठला रहा है। उसकी परेशानी यह थी कि वह अपनी पीठ नहीं देख सकता। कौन अपनी पीठ देख सकता है? पीठ देखने के लिए स्मृतियों की कूची से बना कैनवास चाहिए, जबकि उसे लगता है कि उसके बीच का आकाश इतना बड़ा हो गया है कि स्मृतियों में बस अब क्षितिज के तल की चमकती क्षीण रेखाएँ दिखती हैं। अब वह यही सोच रहा है कि हर बदलती दुनिया का कोई फ़ुल स्टॉप क्यों नहीं होता है?

आगे बढ़ो तो विशुद्ध फ़ंतासी, स्याही संभावनाएँ बो रही है। दृश्य का ज़िक्र लेखक यूँ करता है कि हर बार कुछ छूट जाता है और कहानी का धागा बन जाता है। कहानी का सीवन खुला हुआ है और लेखक लगातार शब्दों की सुई से उसे सीने की कोशिश में उसे उधेड़े जा रहा है।

यहाँ उधड़न की फ़ंतासी है, जो कहानी में रह-रहकर उभर रही है। लुंगी का सिमटन, ब्लाउज की काँख का पसीना देखते हुए, अपनी बात कहते-कहते झपकिया जाता है। लेखक जैसे ही कुछ लिखता है, फिर सपना देखता है, फिर कुछ लिखता है। लगता है कि लेखक सपनों का बुलबुला लिख रहा है, जो रुक-रुककर फूटता है। 

इन सब टूटने-फूटने के क्रम में जब भी प्रेम का ज़िक्र होता है—टूटी-फूटी चीज़ें जुड़ने लगती हैं। मानो प्रेम में रिवाइंड करने की शक्ति निहित हो।

शाम की छाँव और बरगद की छाँव का अंतर समझता है लेखक। रवींद्र आरोही की कहानियों का सिरा पकड़ना आसान नहीं। शब्दों की एक लहर पर आप तिनका मात्र बन बहते हैं। कई उछाल और मोड़ के बाद तिनके को नाव का सहारा मिल जाता है। कहानी ख़त्म होती है, लेकिन तिनका तो बीच भँवर में बस नाव से चिपके हुए तिर रहा होता है। यहाँ यह भ्रम बना रहता है कि किनारा मिल गया।

चराग़ों की परवरिश करता किरदार, लालटेन के सामने अपने चेहरे को सिकोड़ लेता है और ज़मीन पर लिख देता है—बसंत... जिसे देखकर ठूँठ-पेड़ में पहली पत्ती उगती है। इसमें कोई शक नहीं कि लेखक ने प्रयोग का जोखिम उठाया है। 

कहानी के कथ्य और शैली में अभिनय का प्रयोग भी किया है। कहीं-कहीं नाटक का आवरण भी चढ़ाया गया है, तो कभी बिंबों की बौछार कवित्व का छौंक लगाती दिखती है। 

कहानियों में पिता के प्रति दिक़ आती है, तो बच्चे को अपने नाम बदल जाने की दिक़ भी। खटास के बीच हर रंग की हँसी की फुहार सजाती पत्नी है। दर्शन के बाहर प्रेम का बागान है, जहाँ मुस्कान के फूल अँधेरे में खिले हैं। रात देर पहर फूल के चटकने से उजाला हो जाता है। 

इस उजाले में जो खिड़की नज़र आई, वह ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की याद लेकर आई। एक आम आदमी बनना कितना कठिन है, यह वह दिन के उजाले में सोचता है। कहानी में मदारी अपना खेल दिखाता है, जो एक बंदर की खोई बंदरिया के खेल से ज़्यादा रुलाता है; तब आपको लगेगा कि भूलना दुनिया का सबसे बुरा मर्ज़ है, जो औरों से ज़्यादा ख़ुद को सालता है।

यह कहानी-संग्रह धरती के आत्मसात् चिंतन स्वीकारोक्ति से भरे अवसाद में तपकर, गलकर, डूबकर, पिघलकर बह जाने का समय गढ़ती कहानियों का संग्रह है। यह उस काल का समय था, जब फ़िल्मों को जीवन में जीते थे। हीरो की आत्मा, हमारी आत्मा के साँचे में ढल जाती थी और रूह से होते हुए हम उसे अपने भीतर तक महसूस करते थे। 

इन कहानियों में कटाक्ष कहने का तरीक़ा फुसफुसाहट भरा है। इसमें कोई शक नहीं कि इन कहानियों को फ़ुर्सत से पढ़ेंगे तभी माथे में घुसेंगी, वर्ना भाषा के मकड़जाल से लिपट जाने का ख़तरा है। कथानक की थीम बहुत साइलेंट है, लगभग साइलेंट मूवी की तरह। 

पात्र और उसके स्वर को पकड़कर अगर आप कहानी में उतर गए तो फिर इन्हें छोड़ना मुश्किल है। भूलते हुए देशज शब्द आकर आपको पकड़ लेंगे। गाँव आपके भीतर फिर से जी उठेगा। आप थोड़े और अपने हो जाएँगे। आप ख़ुद को ढूँढ़ने लगेंगे अपने भीतर भी और इन कहानियों के भीतर भी। 

असल में कहानियाँ दौड़ती हुई दिख रही हैं, जिनमें दौड़ते सपनों का अंश रह-रह कर छलकता है। इन कहानियों में जाते हुए वसंत की नमी और शुरुआती जाड़ों की धूप बची हुई है। इन कहानियों के बीच जब एक अपाहिज लड़की अपने अध्यापक को कहे—हमें जाने दो, तब एक झन्नाटेदार तमाचा-सा लगता महसूस होगा। 

समाज की कड़वी सच्चाई को यूँ अचानक उघाड़ देना, क़िस्से से हक़ीक़त की ओर झाँकने की खिड़की खोल देता है। इस झन्नाटे की टेर के बाद आँखें इन पंक्तियों पर घंटों रुकी रहती हैं कि हम इन कहानियों का पढ़ना कुछ दिनों के लिए स्थगित कर देते हैं।

“तितली का पंख एक फ़रेब है, जो न शिकार के लिए है, न उड़ने के लिए। उसका पंख उसकी सुंदरता है, जैसे लड़कियों की नेलपॉलिश होती है। तितली का पंख एक ख़ुशी है। दो उँगलियों से उसके पंख को पकड़ लो ख़ुशी के वरक़ उँगलियों में आ जाते हैं और उन्हें ग़ुस्सा तक नहीं आता।”

वह, जिसे हम रोज़ जीते हैं; उस रोज़ का जिए को फिर से पढ़ते समय जीना, सपना और जादू-सा लगता है। ऐसा यूँ भी होता है, क्योंकि पढ़ते समय आँखों पर लेखक का चश्मा चढ़ा होता है, जो उसने लिखते समय पहना हुआ था। जीने को लिखना और लिखने को पढ़ना और पढ़ने को जीना यही तो जादू है। 

असल में इस जादुई रोशनी में रोज़ के जीने के आस-पास का उजास भी दिखता है, जिसे जीते वक़्त हम देख नहीं पाते। मसलन कई बार हम मज़दूर के चेहरे पर उभरी चिंता की लकीरें देखते हैं, उसके फावड़े पर उन लकीरों के निशान नहीं देखते। ये कहानियाँ उन निशानों की शिनाख़्त करती मिलेंगी। इन कहानियों में अशांत शब्दों को शांत करने का बुदबुदाता मंत्र है। ग़फ़लत के पशोपेश को सुलझाने, घड़ी में हाथ है या हाथ में घड़ी है—को थोड़ा और साफ़गोई से यूँ कहने की कोशिश है कि तुम्हारे हाथ में समय है या समय के हाथ में तुम। 

कहानी आगे बढ़ती है जिसे अब किताब के साथ जल्द ख़त्म होना है, अपनी एक अंतिम हिचकी के साथ।

कहानी के लगभग तत्त्व थीम, कथानक, पात्र, संघर्ष, दृष्टिकोण, स्वर और शैली सब चीज़ें यहाँ एक नए रंग के साथ मौजूद हैं। रवींद्र आरोही की एक बात जो उन्हें और ख़ास बनाती है, वह है वाक्य-विन्यास की जादूगरी। ऐसा करते हुए वह लेखनी का जादू और जादू की लेखनी का संतुलन ढूँढ़ते हुए निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल के ठीक बीच से गुज़रते हैं।

एक टेर की अनुगूँज क्रिएट करके ढप से ढाँप देने का हुनर रखते हैं रवींद्र। कहानी पढ़ने के बाद उसी टेर की अनुगूँज स्मृति में टँक जाती है और साँकल बजने लगती है—बहुत हौले-हौले। मुझे लगता है इसी को कहानी की ढफली कहते होंगे जो इस संग्रह के पार्श्व में सुनाई पड़ती रहती है।

अंत में एक व्यक्तिगत स्वीकारोक्ति कि ऐसी कहानियों को पढ़ते हुए लगता है, सीखने के लिए कितना कुछ बचा हुआ है अभी।

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