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‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक

हुए कुछ रोज़ किसी मित्र ने एक फ़ेसबुक लिंक भेजा। किसने भेजा यह तक याद नहीं। लिंक खोलने पर एक लंबा आलेख था—‘गुनाहों का देवता’, धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और उसके चरित्र की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और सुधा की अमर प्रेमकथा की धज्जियाँ उड़ाता हुआ। आलेख में ‘गुनाहों का देवता’ के इतर एक अन्य उपन्यास का ज़िक्र था, जिसके साथ ‘गुनाहों का देवता’ की तुलना की गई थी। इस दूसरे उपन्यास को ‘गुनाहों के देवता’ के पाठकों के लिए पढ़ना यदि अनिवार्य नहीं तो अति आवश्यक तो ज़रूर कहा गया था। यह उपन्यास था—‘रेत की मछली’।

'रेत की मछली' पढ़ते समय कितनी चीज़ों के लिए घिन आती है, कहना मुश्किल है। ‘रेत की मछली’ धर्मवीर भारती की प्रथम पत्नी श्रीमती कान्ता भारती द्वारा रचित है। ‘गुनाहों का देवता’ के छब्बीस साल बाद सन् पचहत्तर में ‘रेत की मछली’ आया।

यह उपन्यास धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ भयावह होता चला जाता है। उपन्यास में नायक है, नायिका है; उनके मध्य का स्नेह है, जिसे वे आजीवन पल्लवित करने की इच्छा रख रहे हैं। सामाजिक दुविधाएँ हैं, जिसे नायिका का पिता विजातीय विवाह में अपनी असहमति के रूप में प्रकट कर रहा है। येन केन प्रकारेण विवाह संपन्न होता है। नायिका अपने पति और उसकी माँ के साथ उज्ज्वल और सुखद भविष्य की कल्पना के साथ ससुराल आती है। क्यारियाँ खोदकर सुंदर और सुगंधित पुष्पों की पौध को रोपती है। उन पुष्प वल्लरियों के मध्य एक जंगली बेल भी उग आती है, उगती चली जाती है, इतनी उग जाती है कि सारी वाटिका के फूलों को खा जाती है। यह बिंब भयानक था। यह जंगली लता नायक की मुँह बोली बहन है। वह बहन जिससे नायक ने कभी राखी बँधाई थी।

कहानी में आगे ऐसा मालूम होता है—जैसे कोई विषैला जीव चमड़ी के नीचे रेंग रहा हो। आपको लगता है क्यों पढ़ रहे हो आप यह सब? किस लिए? कहानी कितनी तेज़ी में विषैली होती चली जाती है आपको मालूम नहीं चलता। नायक अपनी मुँह बोली बहन को भोगता है। न केवल भोगता है बल्कि उसके लिए बेहूदगी से भरी तर्कसंगतियाँ भी रखता है। कथानायक अपनी बीमार पत्नी की उपस्थिति में उसी कमरे में उस दूसरी स्त्री को भोगता है जिसे वह समाज में बहन कह रहा है। और वीभत्सता के अगले चरण पर बढ़कर वह अपनी पत्नी को इसमें सहर्ष सम्मिलित होने का आग्रह भी करता है।

नायिका की उत्सवधर्मिता दिन प्रतिदिन मरती जा रही है। दिन प्रतिदिन वह मानसिक बीमारी और अवसाद के अंधकार में घिरती जा रही है। उसका हृदय कष्ट के, वेदना के उस रसातल में डूबता जा रहा है जहाँ से उसका लौटना असंभव है। कथा यहीं अपनी नृशंसता पर नहीं रुकती। नायक आगे अपनी कथित बहन के साथ कई बार अपनी पत्नी की उपस्थिति में सहवास करता है और उसे यह देखने पर विवश भी करता है। वह अपनी पत्नी का यातना से लिप्त चेहरा देखकर मुस्कुराता है। उस मुस्कान की उपस्थिति को पढ़कर आपके समस्त स्नायुतंत्र में एक सिरहन दौड़ जाती है। नायक के लिए पत्नी और उसकी आने वाली संतान उस परस्त्री के सम्मुख गौण हो जाते हैं। नायक अपनी पत्नी को पीटता है, और यह क्रम निरतंरता की ओर चला जा रहा है। इससे भी संतुष्ट न होकर वह अपनी पत्नी को यह लिखने पर विवश करता है कि वह दुष्चरित्रा है, उसके अन्यत्र संबंध हैं।

कथा में यह सब, तब चलता है जब कथा का नायक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक है। समाज में बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित है, बहुचर्चित साहित्य का रचयिता है और समाज के प्रति बौद्धिक उत्तरदायित्व पर बहस करने वाली गोष्ठियों का अध्यक्ष है।

क़रीबन सवा सौ पन्ने की यह किताब पढ़ते समय आप इसे कई-कई बार पटकते हैं। आख़िरी के बीस पन्ने पढ़ते समय लगता है कि अभी एक कुल्हाड़ी आपके सिर पर गिरेगी और सिर फट जाएगा। इस कथा के नायक को नायक कहा जाना भी न्यायोचित है या नहीं—यह तक विवाद मालूम होता है।

इस किताब की तुलना ‘गुनाहों का देवता’ से की गई है। मैं इससे बचना चाहता हूँ। आरोप है कि ‘गुनाहों का देवता’ पितृसत्ता की ध्वजवाहक है। चन्दर अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक स्त्री को बस कामोत्तेजक तनाव देना चाहता है और वही करता है। क्लिष्ट शब्दों में भारी प्रतीत होने वाली चिकनी चुपड़ी बातें करता है। मैं इसमें विश्वास नहीं करना चाहता। मैं आगे बढ़कर विरोध भी करता हूँ। चन्दर को जब तक स्वयं मालूम चलता है कि वह किसी के प्रेम में है, तब तक वह महानता प्राप्त करने के लालच में—त्याग नाम के उपकरण का प्रयोग कर—ख़ुद को किसी ओर को सौंप चुका होता है। कथा के अंत तक कोई सर्वाधिक त्रस्त मालूम होता है तो वह चन्दर ही है।

आरोप यह भी है कि चन्दर को धर्मवीर भारती ने ख़ुद के आधार पर रचा है वहीं ‘रेत की मछली’ उनकी पत्नी कान्ता भारती ने अपने निजी वैवाहिक जीवन के ऊपर लिखा है। कथानायक का जन्मदिन क्रिसमस के दिन पड़ता है। गौरतलब है कि धर्मवीर भारती की जन्मतिथि भी इसी रोज़ है। यदि ऐसा है तो यह सचमुच भयानक है।

‘गुनाहों का देवता’ एक कालजयी उपन्यास है। भाषागत उत्कृष्टता से लेकर कथा का प्रवाह सबकुछ उत्तम है। उसके चरित्र सुधा और चन्दर हिंदी भाषियों के लिए परिचित हैं और जब तक हिंदी भाषा और इसका साहित्य प्रासंगिक रहेगा तब तक ये चरित्र भी परिचित रहेंगे।

‘रेत की मछली’ भाषागत दृष्टि से ‘गुनाहों का देवता’ के सम्मुख कुछ नहीं है। यदि यह उपन्यास 10 फ़ीसदी भी सत्यता पर आधारित है तो एक बात के निर्णय पर हमें खींच ले जा सकता है कि मानव मूल रूप से दोग़लेपन और धूर्तता से ग्रसित है। यह डॉक्टर भारती की समस्त विरासत पर एक ज़ोरदार चाँटा है।

‘रेत की मछली’ को किसी पूर्वप्रकाशित और बहुचर्चित उपन्यास की व्याख्या मात्र से यदि मुक्त रखा जाए तो अपने आप में यह एक सीधा लेकिन तीक्ष्ण उपन्यास है। सीधे संवाद, सरल बहाव, स्पष्ट कथानक। बिंब है तो बस एक, वह जंगली बेल जो सारी फुलवारी खा गई। हर बार उसके उल्लेख से आपका हृदय ऐंठने लगता है। ‘रेत की मछली’ एक ऐसा उपन्यास है जिसे आप किसी तरह निगल तो सकते हैं लेकिन पचा नहीं सकते। ऐसे उपन्यास को पढ़ते और उनके ऊपर टिप्पणी करते समय, लिखते समय बस यही दिमाग़ में आता है कि क्या इसे किसी को पढ़ने के लिए भी कहा जा सकता है!

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