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बिंदुघाटी : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं

यहाँ प्रस्तुत इन बिंदुओं को किसी गणना में न देखा जाए। न ही ये किसी उपदेश या वैशिष्ट्य-विधान के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे असंख्य बिंदु संसार में हर क्षण पैदा हो रहे हैं। उनमें से कम ही अवलोकन के वृत्त में आ पाते हैं, और उनमें से भी बहुत कम अभिव्यक्ति में स्थान पा रहे हैं। गहरा अवलोकन और ईमानदार अभिव्यक्ति ही महत्त्वपूर्ण है। बिंदुओं का हासिल तो सरल है, फिर...

• जीवन में समास का इससे अच्छा उदाहरण क्या होगा कि गाँव के पुरुषों में मार-पीट होने पर, पत्नियाँ आगे कर दी जाती हैं। उनका अपील-मूल्य अधिक होता है, मुक़दमे मज़बूत बनते हैं। 

• निरुक्त-निघण्टु-कोष आदि के द्वारा सफल घोषित हुए शब्द, अर्थ पैदा करते हैं। 

इसके विपरीत, तमाम समीकरणों-उपद्रवों-प्रयासों से गुज़रकर अधेड़ उम्र में ‘युवा नेता’ बन गए लोगों को अचानक से बाक़ियों की हरक़तों में ‘न्यूसेंस वैल्यू’ नज़र आने लगती है। वे मूल्य-निर्णय देने लगते हैं। 

• फ़ेसबुक पर : वक़्फ़ बिल का विरोध, फ़लस्तीन के पक्ष में आंदोलन, बीयर पियो—ठंडा-ठंडा लगेगा... जैसी पोस्टें एक ही आईडी से चंद मिनटों में आती हैं। वे सबकी सब सीरियस होती हैं।

• किसी बहस को लेकर बन गए दो छद्म पक्षों की थोड़ी-सी पतलून खींचने पर, दोनों में एकता हो जाती है। दुःख का एका ही सार्वभौमिक है—चिरकुटई का भी। 

• हिंदी का शोधार्थी, ‘शादी नहीं हो रही है और सर गंजा हो रहा है’—की हालत में होता है। वह कुंठा-गणित में अव्वल और त्रिफ़ला-चूर्ण-सेवी होता है। वह ढेंकरते (डकारते) हुए बोलता है और ख़राश मिटाते हुए हस्तक्षेप करता है। वह संबंधों के प्रति हमेशा नियोजित दृष्टि रखता है। 

हिंदी का शोधार्थी कोई ऐसा काम नहीं करता, जिससे अगले पाँच-छह सालों में उसका कोई नुक़सान हो। 

• उभयचरों का धरती पर आना जीवन-विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान था।

हिंदी के फ़ेसबुकिया दौर में भी उभयचर सबसे महत्त्वपूर्ण लोग होते हैं। इन्हें सबका सब पता होता है और इन्हें सबका सब पता है—यह बात सबको पता होती है। 

• विकासवाद के सिद्धांत के आलोक में, बड़े-बड़े प्राणियों की विलुप्ति की बात हम समझते आए हैं। मनुष्य भी अपने विलुप्त हो जाने के प्रति बड़े सचेत प्रयास करता ही रहता है। लेकिन विलुप्ति के संकट की चेतना जब उन्माद में तब्दील हो जाती है, तब विलुप्ति और अधिक नज़दीक आ जाती है। इस चेतना का उन्माद के स्तर पर प्रचार-प्रसार करके लोग पुरस्कार भी जीतते हैं और समृद्धि भी कमाते हैं। साहित्य-कर्मरतियों में यह चेतना काफ़ी प्रबल होती है—वे विकासवाद के विकृत असर में होते हैं और हास्यास्पद होते जाते हैं। 

• कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं। 

मसलन—विज्ञान-गल्प की नक़ल, नेताओं के बयान, संसद का रोज़नामचा, घरेलू झगड़े, यूरोपीय कवियों की छाया, नवें दशक में विकसित काव्य-क्लीशे, कैलेंडर की तिथियाँ, कपड़े की कतरन, फ़िल्मों से बहे-आए दृश्य, प्रतिष्ठितों की प्रशस्ति, पुनरावृत्ति पर पुनरावृत्ति... इत्यादि! 

यानी कविताएँ अब ‘कुछ नहीं’ हो पाती हैं।

• कविता-विशेषांक चयनितों से अलग कवियों के समक्ष एक धमकी की तरह शाया होते हैं। संपादक अब कई गुना ‘सर’ होने की और अधिक से अधिक ‘कोट’ किए जाने की उम्मीद  में होता/ती है।

• उपचार-विहीन घाव स्मृतियों में रहने लगते हैं। 

भूलना स्थायी प्रतिरोध है। यह पूरी तरह जैविक है, जैसे कि याद रह जाना भी।

• हत्या—आधुनिक सामाजिकता की बहुत बड़ी असफ़लता है। जातीय-उत्पीड़न के रूप में यह सभ्यता पर कलंक सरीखी है। जो जातियाँ अन्य जातियों की हत्या में अपनी अभिव्यक्ति करती हैं, प्राकृतिक विकास के रास्ते में वे विलुप्त हो जाएँ। 

• मुखिया को कुशल अभिनेता नहीं होना चाहिए। उसे हीनताबोध से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। उसे बहुत ताक़तवर नहीं होना चाहिए। उसे लतीफ़ों की किताब नहीं पढ़नी चाहिए। इनमें से वह या उसके पास जो कुछ भी हो, बस आकर्षक दिखाने वाला आईना नहीं होना चाहिए। लोग आईने में खो जाएँ तो शाइरी है, मुखिया अगर खो जाए तो ग़लाज़त-ख़ोरी है। 

•  इस तस्वीर को साहित्यिक माना जाए :

वह शीशे के सामने खड़ा
मोबाइल-फ़ोन का कैमरा 
उरु-सिद्ध कर 
त्रिभंग मुद्रा में—आत्मरत
हाथ को एक कमानी की तरह मोड़कर 
हास्यबोधक दाढ़ी से भरी अपनी ठुड्डी को छूते हुए 
लिखता है :
‘मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!’

• साहित्यिक पोर्टल्स और पेज अगर चल निकलें, तो संपादक के लिए बहुत से रिश्ते और कोण विकसित होते ही हैं। इस विकास में संपादक उनका उपयोग अपनी किताब के प्रचार-प्रसार में भी कर सकता है। एक माह के तीस में से बीस प्रकाशन अपनी किताब के बारे में करके भी वह ऐसा कर सकता है। इस पर अगर कहीं किताब कविताओं की हुई तो कविताओं की मृत्यु नहीं होती, बल्कि मृत्यु ही कविता हो जाती है!

• राष्ट्रीय स्तर के हादसे पीड़ितों को छोड़कर, बाक़ियों के लिए उत्सव सरीखे होते हैं।

रीलव्यापी दिनचर्या में स्लॉथ बन चुका आदमी कुनमुनाने लगता है। नारों-ललकारों से अवसाद में कमी आती है। राजनीतिकों को उबाऊ बात बोलने से अवकाश मिल जाता है। यूट्यूबरों के लिए—‘उनके मिलियन’ में पचास हज़ार की कमी एक-दो झटकों में ही पूरी हो जाती है।

इसे काव्यात्मक ढंग से कहें तो बुरी बातें और चीज़ें ही सबसे मूल्यवान संसाधन हैं—इस समय में! अच्छाइयाँ उनकी भौंड़ी रिपोर्टिंग करती हैं।

• अब किसी भी संबंध में लोगों की आस्था नहीं रही गई है। लोग कठोर और खोखले हो गए हैं। उनसे शोर सरीख़ी आवाज़ें बहुत आती हैं। लोग बोलते-बोलते बजने लगे हैं। लोग दिखते-दिखते प्रस्तुति बन गए हैं। लोग मार तमाम लोग...

• सावधान! आगे सारे दृश्य मोनेटाइज़्ड हैं।

•••

बिंदुघाटी ‘हिन्दवी’ बेला का सबसे नवीनतम स्तंभ है। सांस्कृतिक-साहित्यिक समसामयिकता में अब न व्यक्ति स्थिर हैं, न विचार। इस अस्थिरता की वजह माध्यम के मध्य में बने रहने का सतत दबाव है। इस दबाव में एक बड़े बिंदु में से कई बिंदु पल-प्रतिपल टूट-टूटकर गिर रहे हैं। नई पीढ़ी के अतियोग्य कवि-गद्यकार अखिलेश सिंह ने अपने तापमय, किंचित चिढ़े हुए और प्रयोगधर्मी गद्य से हमारे समय की इस टूटन को इस बिंदुघाटी में संयोजित किया है। इस ‘स्तंभ’ की शुरुआत आपके रविवार को कुछ स्पंदनयुक्त और ऊबमुक्त करेगी, हमें इस प्रकार की आशा है।

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