Font by Mehr Nastaliq Web

हिन्दवी उत्सव के बहाने दुःख ने दुःख से बात की...

‘हिन्दवी’ ने बीते दिनों अपने चार वर्ष पूरे किए। अच्छे-बुरे से परे ‘हिन्दवी’ कभी चर्चा से बाहर नहीं रहा। ‘हिन्दवी’—‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ का ही उपक्रम है। ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ में ख़ूब भीड़ होती है। सवाल यह था कि क्या ‘हिन्दवी’ उत्सव में भी उस तरह से लोग आएँगे! लोग आए। हॉल भी भरा हुआ था और बाहर भी लोग अंदर जाने के मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे। यह अप्रत्याशित होने के साथ-साथ एक सुखद आश्चर्य भी था।

आयोजन की अध्यक्षता राधावल्लभ त्रिपाठी कर रहे थे। भाषा पर उन्होंने बात रखी। उनको सुनना कितना अच्छा लगता है। सधी हुई आवाज़। उच्चारण एकदम स्पष्ट। इस उम्र में भी कोई लड़खड़ाहट नहीं। उनके भाषण के बाद, मैं एक कोने में खड़ा था। राधावल्लभ त्रिपाठी बैठे हुए थे। काव्य-पाठ सुनकर ताली बजा रहे थे। मैं ताली बजाते उनके हाथ देख रहा था। एक शिशुवत कोमलता दिखी उनमें। बूढ़ों और बच्चों में कितना साम्य होता है।

निर्मला पुतुल को उसी सभागार में दुबारा सुन रहा था। दो साल पहले भी वह यहाँ कविता-पाठ कर चुकी हैं। कितना आत्मविश्वास है उनके शब्दों में। उनका यह कहना कि मैं बोलूँगी क्योंकि वैसे ही बोलने को कम मिलता है, कितने कम में कितना ज़्यादा समेटे हुए हैं। उनको देखकर भावुक होता हूँ।

बहुत सारी चीज़ों को देखते-सुनते किसी चीज़ पर हम ठहरते हैं। आपके साथ उस जगह से सवाल के तौर पर वह चीज़ आ जाती है। इस उत्सव के दूसरे सत्र (सहना और कहना) में बोलते हुए रमाशंकर सिंह ने कहा कि कोई आप पर विश्वास क्यों करेगा? विश्वास करके अपने दुःख क्यों साझा करेगा? यह ख़्याल मेरे ज़ेहन में तब से है। मैं इस ‘क्यों’ के बारे में सोच रहा हूँ। 

कैसे बनता है विश्वास? जो बात कही जाए क्रिया में उसी रूप में घटित हो, तब विश्वास पनपता है। जो बात जिस भाव से कही जाय सुनने वाले तक उसी भाव से पहुँचे तो वहाँ विश्वास है। भाषा के विकास के साथ अविश्वास तो न रहा होगा। यानी एक शब्द जिसका एक तय मानी है, उसे अगर कहा जा रहा है तो उसे वैसे ही लिया जाएगा। ‘प्रेम’ का अर्थ प्रेम ही था फ़रेब नहीं।

लोगों के बीच परस्पर अविश्वास इस हद तक बढ़ गया है कि बेहद क़रीबी संबंधों में भी लोग सामने वाले को सुने बिना एक निर्णय पर पहुँच जाते हैं। फिर आप कहते रहिए कि उस व्यक्ति को आप वर्षों से जानते हैं। इस अविश्वास ने संवादहीनता ला दी है। अब पूर्वाग्रह काम करते हैं और उसी की तर्ज़ पर सब कुछ निर्धारित होता है।

जो लोग ताक़तवर थे, उन्होंने भाषा का दुरुपयोग किया। अविश्वास एक दिन में नहीं पनपता है। किसी का आप पर अविश्वास है तो इसे समझना इतना सपाट नहीं। लड़कियाँ अगर लड़कों पर विश्वास नहीं कर पा रही हैं तो इसलिए क्योंकि लड़कों ने उन्हें छला है। 

सवर्णों को अगर दलित संदिग्ध मानते हैं तो इसलिए क्योंकि सवर्णों ने ऐसा किया है। अब अगर एकबारगी को आप भले ही एकदम सच बोल रहे हैं और आप पर यकीन नहीं किया जा रहा है तो तिलमिलाए बिना अपने सत्य के साथ टिके रहना है।

किसी से प्रेम करता हूँ और वह पूछ बैठती है कि कैसे मान लूँ तुम ऐसे नहीं होगे। चुप हो जाता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं ईमानदार हूँ, लेकिन यह भी जानता हूँ कि लोगों के प्रति उसका अविश्वास अचानक नहीं उपजा है। ख़ुद का विश्वास न करा पाने का अगर मुझे दुःख है तो किसी का विश्वास न कर सकने की पीड़ा उसे ज़रूर होगी। 

सोचता हूँ कि क्यों सब कुछ सरल नहीं है। केदार जी कहते थे—

"मिलूँ 
पर किस तरह मिलूँ 
कि बस मैं ही मिलूँ 
और दिल्ली न आए बीच में।"

इस दिल्ली को कैसे रोकूँ। कैसे सहजता से मिलूँ कि अविश्वास न आए बीच में। कोई जवाब नहीं मेरे पास। बस रमाशंकर सिंह का सवाल गूँज रहा है।

पराग पावन को पहली बार कविता पढ़ते सुना। उनसे कुछेक बार की मुलाक़ात है। पराग ने बेरोज़गारी पर कविता-शृंखला लिखी है। जिसकी कुछ कविताएँ उन्होंने पढ़ीं। उनके पास तेवर है। इस शृंखला की कई कविताएँ बहुत पसंद हैं। जो भाव कवि को लिखते हुए घेरे रहा होगा, वही मुझ तक उतर आया। वो डर, वो आशंका, वो गुस्सा, वो पीड़ा सब व्याप्त हो गई। काव्यशास्त्रीय भाषा में कहें तो साधारणीकरण हो गया। 

बेरोज़गारी को लेकर सोचता रहा। हमारा पूरा वजूद इस एक शब्द में सिमटकर रह जाता है। सोचता हूँ कि आगे क्या, कोई तस्वीर नहीं उभरती है। घरवालों को नौकरियों की किल्लत के बारे में बताता हूँ। वे कहते हैं कि प्रतिभा किसी की मोहताज़ नहीं होती है। यह शब्द फूहड़ लगने लगा है। उन्हें कैसे कहूँ कि प्रतिभा के सहारे वैकेंसी नहीं निकलती है। प्रतिभा पेपर लीक नहीं रोक सकती है। प्रतिभा कुछ नहीं कर पाती है, सिवाय सिस्टम में आपको अनफ़िट करार देने के। 

यह बात घर पर कहूँगा तो ‘विश्वास’ करेंगे मेरा? बेरोज़गारी विश्वास तक ख़त्म कर देती है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट