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दीनदयाल उपाध्याय

दीनदयाल उपाध्याय के उद्धरण

पुत्र रूप एक जन और माता रूप भूमि के मिलन से ही देश‍ की सृष्टि होती है।

लोकतंत्र लोक-कर्त्तव्य के निर्वाह का एक साधन मात्र है। साधन की प्रभाव क्षमता लोकजीवन में राष्ट्र के प्रति एकात्मकता, अपने उत्तरदायित्व का भान तथा अनुशासन पर निर्भर है।

महापुरुष तो जातीय साधना के विग्रह स्वरूप है। तो समाज में वर्षों से होने वाली विचार क्रांति के दृष्ट फल होते हैं। उनकी अलौकिक शक्ति और ऐश्वर्य, सर्वतोमुखी प्रतिभा, अखंड कर्ममय जीवन तथा सर्वव्यापी प्रभाव को देखकर हमारी आँखें चौंधिया जाती हैं कि हम उस महापुरुष को उत्पन्न करने वाली जीवनधारा को बिल्कुल ही भूल जाते हैं।

'प्रत्येक को वोट' जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निष्कर्ष है वैसे ही 'प्रत्येक का काम' यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है।

राजनीतिक प्रजातंत्र बिना आर्थिक प्रजातंत्र के नहीं चल सकता। जो अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्र है, वही राजनीतिक दृष्टि से अपना मन स्वतंत्रतापूर्वक अभिव्यक्त कर सकेगा।

विविध कोणों से एक ही सत्य को देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है। इसलिए इन विविधताओं के सामंजस्य के द्वारा जो सम्पूर्ण का आकलन करने की शक्ति रखता है, वही तत्त्वदर्शी है, वही ज्ञाता है।

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