रसलीन के दोहे
तिय पिय सेज बिछाइयों, रही बाट पिय हेरि।
खेत बुवाई किसान ज्यों, रहै मेघ अवसेरि॥
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सुनियत कटि सुच्छम निपट, निकट न देखत नैन।
देह भए यों जानिये, ज्यों रसना में बैन॥
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तुव पग तल मृदुता चितैं, कवि बरनत सकुचाहिं।
मन में आवत जीभ लों, मत छाले पर जाहिं॥
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दाग सीतला को नहीं, मृदुल कपोलन चारु।
चिह्न देखियत ईठ की, परी दीठ के भारु॥
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तेरस दुतिया दुहुन मिलि, एक रूप निज ठानि।
भोर साँझ गहि अरुनई, भए अधर तुब आनि॥
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उठि जोबन में तुव कुचन, मों मन मार्यो धाय।
एक पंथ दुई ठगन ते, कैसे कै बिच जाय॥
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तन सुबरन के कसत यो, लसत पूतरी स्याम।
मनौ नगीना फटिक में, जरी कसौटी काम॥
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कारे कजरारे अमल, पानिप ढारे पैन।
मतवारें प्यारे चपल, तुव ढुरवारे नैन॥
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सब जगु पेरत तिलन को, न थके इहि हेंरी।
तुव कपोल के एक तिल, डार्यो सब जग पेरि॥
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अमी हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार॥
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अमी हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार।
जियत-मरत झुकि-झुकि परत, जिहि चितवन इकबार॥
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तन सुवरन के कसत यों, लसत पूतरी श्याम।
मनौ नगीना फटिक मैं, जरी कसौटी काम॥
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निरखि निरखि वा कुचन गति, चकित होत को नाहिं।
नारी उर तें निकरि कै, पैठत नर उर माहिं॥
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बारन निकट ललाट यों, सोहत टीका साथ।
राहु गहत मनु चंद पै, राख्यो सुरपति हाथ॥
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अरुन दशन तुब वदन लहि, को नहिं करै प्रकास।
मंगल सुत आये पढ़न, विद्या बानी पास॥
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सूछम कटि वा बाल की, कहौं कवन परकार।
जाके ओर चितौत हीं, परत दृगन में बार॥
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दुरै माँग ते भाल लौं, लर के मुकुत निहारि।
सुधा बुंद मनु बाल, ससि पूरत तम हिय फारि॥
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यौं भुजबंद की छवि लसी, झवियन फूंदन घौर।
मानो झूमत हैं छके, अमी कमल तर भौंर॥
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यों तारे तिय दृगन के, सोहत पलकन साथ।
मनो मदन हिय सीस, विधु धरे लाज के हाथ॥
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देह दीपति छबि गेह की, किहिं विधि वरनी जाय।
जा लखि चपला गगन ते, छिति फरकत नित आय॥
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ऐंठे ही उतरत धनुष, यह अचरज की बान।
ज्यौं-ज्यौं ऐठति भौं धनुष, त्यों-त्यों चढ़ति निदान॥
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सुधा लहर तुव बाँह के, कैसे होत समान।
वा चखि पैयत प्रान को, या लखि पैयत प्रान॥
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गहि दृग मीन प्रबीन की, चितवनि बंशी चार।
भव-सागर में करत हैं, नागर नरन सिकारु॥
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मुख छवि निरखि चकोर अरु, तन पानिप लखि मीन।
पद-पंकज देखत भँवर, होत नयन रसलीन॥
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अद्भुत एनी परत तुव, मधुवानी श्रुति माहिं।
सब ज्ञानी ठवरे रहैं, पानी माँगत नाहिं॥
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रे मन रीति विचित्र यह, तिय नैना के चेत।
विष काजर निज खाय के, जिय औरन के लेत॥
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लाल माँग पटिया नहीं, मदन जगत को मार।
असित फरी पै लै धरी, रकत भरी तरवार॥
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विधु बरनी तुव कुचन की, पाय कनक सी जोति।
रंगी सुरंगी कंचुकी, नारंगी सी होति॥
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कारे अनियारे खरे, कटकारे के भाव।
झपकारे बरुनी, झप झपकारे भाव॥
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निरखत नीवी पीत को, पलन रहत है चैन।
नाभी सरसिज कोस के, भौंर भये हैं नैन॥
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मुकुत भये घर खोय के, बैठे कानन आय।
अब घर खोवत और के, कीजे कौन उपाय॥
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सोहत बेंदी पीत यों, तिय लिलार अभिराम।
मनु सुर-गुरु को जानि के, ससि दीनों सिर ठाम॥
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अरुन माँग पटिया नहीं, मदन जगत् को मारि।
असित फरी पै लै धरी, रक्त भरी तरवारि॥
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स्याम दसन अधरान मधि, सोहत है इहि भाँति।
कमल बीच बैठी मनो, अलि छवनन की पाँति॥
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छाक-छाक तुव नाक सों, यों पूछत सब गाँव।
किते निवासिन नासिके, लह्यो नासिका नाँव॥
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रमनी मन पावत नहीं, लाज प्रीति को अंत।
दुहूँ ओर ऐंचो रहै, ज्यों बिबि तिय को कंत॥
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लिखन चहत रसलीन जब, तुब अधरन की बात।
लेखानि की विधि जीभ बँधि, मधुराई ते जात॥
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नहिं मृगंक भू अंक यह, नहिं कलंक रजनीस।
तुव मुख लखि हारो कियो, घसि घसि कारो सीस॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere