जगद्धर भट्ट के उद्धरण

हे नाथ! जो नीतिमान मनुष्य आपका भजन करता है, वह 'अनीति' (अर्थात् ईतिरहित, उपद्रवरहित) हो जाता है। जिसे आप अपने हृदय से मुक्त नहीं करते हैं, वह मनुष्य अवश्य ही मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य सदैव आपकी अप-चिति (पूजा) में तत्पर रहता है, वह कभी भी अपचिति (हीनता) को प्राप्त नहीं होता। इसी कारण हे विभो! मैंने आप 'भव' (विश्व के भी कारण) की शरण ली है तो फिर मैं 'अभव' (जल-मरण रूप संसार-चक्र से रहित) क्यों नहीं होता?

एक ही सुवर्ण कणिका आदि भेद से जिस प्रकार भिन्न-भासित होता है तथा एक ही जल, समुद्र, नदी, तालाब आदि के नाम से जिस प्रकार भिन्न प्रतीत होता है उसी प्रकार जो एक ही शिव तत्त्व पशु-पक्षी देव-दानव और मानव के भेद से भिन्न प्रतीत होता है, उस परम तेजोमय को नमस्कार है।
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धन आरंभ में मधुर प्रतीत होने वाला विष है। वह है। तत्क्षण जीवन को नष्ट करने लगता है, उपभोग करने पर वह पथ्य-कारक होता है और शरीर को दुःखित कर देता है।
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