ज़ुबिन गार्ग : समय जब ठहर जाए...
रीतामणि वैश्य
22 सितम्बर 2025
कोई मनुष्य कितना प्रिय हो सकता है, जीते जी इसका सही अंदाज़ा लगाना कठिन होता है। अपने जीवन काल में कई महानुभावों को इस संसार का मोह त्याग करते हुए हम सबने देखा होगा, उनकी अंतिम यात्रा में बड़ी भीड़ भी हमने देखी होगी। इस सदी में दो ऐसे ही महान् व्यक्तियों के निधन का अनुभव असम के लोगों को हुआ, जिन्होंने लोकप्रियता के शिखर को छू लिया था और उसी की परिणति उनकी अंतिम यात्रा के दौरान देखने को मिली। इनमें से पहला नाम है भारत रत्न भूपेन हाजरिका (1926-2011) और दूसरा नाम ज़ुबिन गार्ग (1972-2025) का है। (यहाँ ध्यान दीजिए कि हिंदी मीडिया में अधिकांश जगहों पर ये नाम अपने अशुद्ध रूप में भूपेन हजारिका और ज़ुबिन गर्ग पुकारे जाते हैं।)
19 सितंबर, 2025 की शाम को असम के महालेखा कार्यालय में हिंदी पखवाड़े के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए मुझे बुलाया गया था। तीन बजे कार्यक्रम शुरू होने ही वाला था कि तभी यह दु:खद समाचार आया कि सिंगापुर में असम के प्राण ज़ुबिन गार्ग का निधन हो गया है। इस ख़बर की आधिकारिक पुष्टि होते ही हिंदी पखवाड़ा का कार्यक्रम तुरंत शोक सभा में बदल गया। बहुत संभव है कि ज़ुबिन गार्ग के निधन की पहली शोक सभा यही रही होगी। चूँकि बतौर मुख्य वक्ता मैं वहाँ गयी थी तो मुझे भी ज़ुबिन गार्ग को श्रद्धांजलि देने का अवसर मिला। ऐसे में ज़ुबिन गार्ग के साथ हिंदी का एक संदर्भ मुझे याद आ रहा है और उसका उल्लेख करना यहाँ ज़रुरी प्रतीत हो रहा।
एक बार रङाली बिहू के सांस्कृतिक कार्यक्रम में ज़ुबिन गार्ग को आयोजक की तरफ़ से हिंदी गाना गाने से मना किया गया था, तब ज़ुबिन गार्ग ने आयोजकों की बात मानने से यह कहकर इनकार किया था कि संगीत में भाषा, बाधा के रूप में नहीं आनी चाहिए। इस घटना के बाद ज़ुबिन के पक्ष-विपक्ष में बहुत सारी बातें हुईं, पर ज़ुबिन अपने पक्ष के साथ मज़बूती से खड़े रहे।
ज़ुबिन गार्ग असमिया लोगों के हृदय के स्पंदन रहे हैं। उनसे बड़े उन्हें ‘ज़ुबिन’ और उनसे छोटे उन्हें ‘ज़ुबिन दा’ कहकर पुकारते थे। ज़ुबिन दा के न होने की ख़बर को आज असम के लोगों ने अस्वीकार कर दिया है। ज़ुबिन दा के बिना असम की कल्पना आज किसी से भी नहीं हो पा रही है। वे मिज़ाज से मस्तमौला थे। उनकी अपनी दुनिया थी और उस दुनिया में किसी का वश नहीं चलता था। उन्होंने कहा था कि जीवन को उत्पात की ज़रूरत होती है और इसी उत्पात के चलते ही वह हमारे बीच से चले गए।
सिंगापुर में आयोजित होने वाले ‘नॉर्थ ईस्ट फेस्टिवल’ में 18 तारीख़ की रात को उन्होंने किसी आयोजन में ‘Eric Clapton’ का ‘Tears in Heaven’ गीत मस्ती से गाया :
‘Would you know my name?
If I saw you in heaven?
Would it be the same?
If I saw you in heaven?’
सुबह अपने दोस्तों के साथ वह तैरने गए और वहाँ से यह दुखद समाचार हम सबको मिला। उनकी पत्नी गरिमा शइकीया गार्ग छाया की तरह उनके साथ रहती हैं, पर इस बार ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। शायद गरिमा होती तो उन्हें सँभाल लेतीं।
इस ख़बर के मिलते ही लोग पागल से हो गए, रास्ते पर निकल आए और देखते-ही-देखते रास्तों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा। असम के हरेक शहर, हरेक गली में रैलियाँ निकाली जाने लगीं। चौराहों पर ज़ुबिन दा की फ़ोटो पर धूप-दीये से श्रद्धांजलि देने का अनंत सिलसिला शुरू हुआ। रातों-रात लोग ज़ुबिन दा के गुवाहाटी के काहिलीपारा के फ़्लैट के लिए रवाना हुए। सड़क पर भीड़ इतनी थी कि गाड़ी दूर रख पुलिस अधिकारियों की मदद से ज़ुबिन के फ़्लैट के नीचे पहुँचना संभव हुआ। तब वहाँ तक़रीबन पचास-साठ हज़ार लोग इकट्ठे थे। सबकी आँखें भीगी थीं; कोई गा रहा था, कोई चिल्ला रहा था, कोई उनकी फ़ोटो की पूजा कर रहा था। ऊपर से गरिमा बीच-बीच में उतर आतीं और हाथ जोड़कर सबको धीरज रखने का आग्रह करतीं। असम के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत विश्व शर्मा बार-बार लोगों को संयमित रहने का अनुरोध करते नज़र आए। 19 तारीख़ की शाम से असम के घरों में चूल्हा नहीं जला है। लोग दीवानों की तरह असम के कोने-कोने से एक बार ज़ुबिन दा के दर्शन के लिए जैसे-तैसे गुवाहाटी आ रहे हैं। ज़ुबिन दा ने एक बार कहा था कि उनकी मृत्यु होने पर उनका ‘मायाबिनी’ गीत बजते रहना चाहिए। असम के आसमान में, नदियों के पानी में, हवा में आज मायाबिनी की लहर है :
मायाबिनी रातिर बुकुत
देखा पालोँ तोमार छबि
धरा दिला गोपने आहि
हियार कोणत....
तुमि ये मोर शुकान मनत
नियररे चेँचा टोपाल
नामि आहा रॅदरे नै
मोर देहत प्रति पुवा
धुमुहार सॅते मोर
बहु युगरे नाचोन
एंधारो सँचा मोर
बहु दिनरे आपोन
निजानर गान मोर
शेष हॅब
भाबोँ तोमार बुकुत।
अर्थात्,
मायाबी रात के सीने पर
देखि मैंने तुम्हारी छवि
तुम चुपके से आ गई
दिल के कोने में ...
तुम मेरे सूखे मन में
ओस की ठंडी बूँद
उतर आती धूप की नदी
मेरे शरीर में हर सुबह
तूफ़ान के साथ मैं
युगों से नाचता आया हूँ
अँधेरा भी मेरा
बहुत समय से अपना है
लगता है मेरे एकांत गीत का
अंत होगा
तुम्हारी छाती पर।
ज़ुबिन दा की लोकप्रियता इस क़दर है कि लोग, ख़ासकर युवा पीढ़ी उन्हें भगवान मानती है। ज़ुबिन दा ने जो कहा वही अंतिम सत्य हुआ करता था। ज़ुबिन दा केब (Citizenship Amendment Bill) का विरोध करते हुए आंदोलन में शामिल हुए थे। एक छात्र नेता भाषण देते हुए शंका ज़ाहिर कर रहे थे कि आंदोलन के बाद भी अगर यह बिल पारित हो गया तो क्या होगा। ज़ुबिन दा मंच पर उस नेता के पास खड़े थे। उन्होंने छात्र नेता का वाक्य ख़त्म होने से पहले ही माइक को अपनी ओर खींचकर घोषणा कर दी थी कि अगर ऐसा हुआ तो हम नया राजनितिक दल बनाएँगे। और इसी घोषणा के बाद ‘असम जातीय परिषद’ नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन असम में हुआ था।
ज़ुबिन दा के गीत से हर असमिया का हृदय भरा हुआ है। उनके ‘या अली’ गीत से लता मंगेशकर भी प्रभावित हुई थीं। यद्यपि ज़ुबिन दा बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार थे, फिर भी उनकी सफलता का मूलाधार उनके गीत ही हैं। उन्होंने कई भाषाओं में गीत गाए हैं। असमिया, हिंदी, अँग्रेज़ी, बांग्ला, भोजपुरी आदि चालीस भाषाओं में उनके द्वारा गाए गए गीतों की कुल संख्या 38000 है। एक ही रात में उन्होंने छत्तीस गीतों की रिकार्डिंग का रिकॉर्ड भी बनाया था। उन्होंने सैकड़ों अमर गीतों से असमिया संगीत जगत को समृद्ध किया है।
सितंबर के 20 तारीख़ की रात को ज़ुबिन दा का नश्वर शरीर सिंगापुर से दिल्ली पहुँचा। ज़ुबिन दा को लाने के लिए मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा स्वयं दिल्ली पहुँच गए। उनके अंतिम संस्कार के लिए असम के अलग-अलग शहरों से भूमिदान का प्रस्ताव आ रहा है। कई विश्वविद्यालयों की ओर से सरकार को अपने परिसर में अंतिम संस्कार का अनुरोध किया गया।
मनुष्य जीते जी अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता और ज़ुबिन दा को अपनी इच्छा के अनुरूप स्वाभाविक मृत्यु मिली। उन्होंने ‘प्रतिदिने तुमि आहि दिबा एपाहि फुल’ (हर दिन तुम मुझे एक फूल देना) गीत में गाया था :
आकाशे गाते लॅबरे मन
सागर तलित सुबरे मन
मनर चिला उरुवाइ जीवने
सोणाली है थाकक
तोमारे मोरे समय
बुकुवे बुकुवे रै याय
येन मधुमय।
अर्थात्,
आकाश को लपेट लेने का मन करता है
सागर की तह पर सोने का मन करता है
मन का पतंग जीवन उड़ाता है
सुनहला बना रहे तुम्हारा और मेरा समय
दिलों में रह जाए
केवल मधुमय।
कोई क्या ऐसे मृत्यु को गले लगाता है! कहते हैं मृत्यु के स्थान का पता केवल चरणों को ही होता है। क्या एक विशेष प्रकार की मृत्यु के लिए ही ज़ुबिन दा गरिमा को छोड़कर सिंगापुर गए थे? सागर की गोद में सोने की अद्भुत आकांक्षा रखने वाले ज़ुबिन दा, सचमुच ही सागर की गोद में ही अंतिम निद्रा में चले गए।
ज़ुबिन दा के अंतिम संस्कार का दायित्व असम सरकार ने लिया है। ज़ुबिन दा की माँ और बहन का निधन भी असमय हो गया था। उनके 85 वर्ष के पिता की शारीरिक अस्वस्थता के कारण उनके परिवार की ओर से असम सरकार से ज़ुबिन दा का अंतिम संस्कार गुवाहाटी में करने के लिए आग्रह किया गया है। असम सरकार द्वारा की गई घोषणा के अनुसार ज़ुबिन दा रात को क़रीब 3 बजे गुवाहाटी हवाई अड्डा पहुँचेंगे और वहीं से उनके घर तक उन्हें लाया जाएगा। वहाँ कुछ समय ज़ुबिन दा को पिता और पत्नी के साथ बिताने दिया जाएगा और फिर उन्हें सरुसजाइ स्टेडियम तक ले जाया जाएगा। सुबह 9 बजे से शाम के 7 बजे तक इसी स्टेडिउम में ज़ुबिन दा को लोग श्रद्धांजलि दे सकेंगे। पर ज़ुबिन दा के प्रेम में आतुर लोगों की भीड़ के कारण ये घोषणाएँ केवल घोषणाएँ बन कर रह गईं। गुवाहाटी हवाई अड्डे से अपने घर तक के चालीस मिनट का रास्ता तय करने में कई घंटे लग गए। वह दुपहर एक बजे अपने घर पहुँच सके और अपने घर से कब निकल पाएँगे और कितने बजे सरुसजाइ पहुँचेंगे कहा नहीं जा सकता। असम सरकार ने 20 से 22 सितंबर तक राजकीय शोक की घोषणा की है। बिटीआर के चुनाव के सारे कार्यक्रम रद्द किए गए हैं, असम की सारी परीक्षाएँ 22 तारीख़ तक स्थगित की गई हैं। सारी दुकानें, बाज़ार, व्यवसाय स्वतःस्फूर्त रूप से बंद पड़े हैं। सब कुछ छोड़कर लोग ज़ुबिन दा की अंतिम यात्रा में लाखों की भीड़ में भाग ले रहे हैं। इसी से दुनिया की सबसे बड़ी अंतिम यात्राओं में ज़ुबिन दा की यात्रा भी शामिल हो गई है। भूखे-प्यासे रहकर लंबी दूरी पैदल से तय करने के कारण बड़ी संख्या में लोग अस्वस्थ हो गए हैं।
ऐसा ही जन सैलाब भूपेन हाजरिका के निधन के समय हमने देखा था। हमने जीवन में दो ऐसे महान् जीवित किंवदंतियाँ देखी। ज़ुबिन दा गायक होने के साथ-साथ गीतकार, संगीतकार, अभिनेता आदि भी थे। उन्होंने असमिया संगीत को एक विशिष्ट स्तर तक ले जाने का काम किया है। असमिया संगीत जगत को समृद्ध करने की परंपरा में शंकरदेव और भूपेन हाजरिका के बाद ज़ुबिन गार्ग का नाम आता है।
ज़ुबिन दा केवल कलाकार ही नहीं थे, वह एक अच्छे हृदय के अधिकारी व्यक्ति भी थे। वह इतने बड़े कलाकार होकर भी छोटे-से-छोटे व्यक्ति के साथ जुड़े रहते थे। सैकड़ों चेहरों में उनके कारण हँसी खिली थी। वह प्रकृति प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। गुवाहाटी के खारघुली में बन रहे उनके घर में उन्होंने बड़े-बड़े पेड़ लगाए हैं, ताकि पक्षी उसमें आराम से रह सके। यह घर एक महीने के भीतर तैयार होने वाला था। ज़ुबिन दा को इस एक महीने का बड़ा इंतज़ार था, पर अब घर को ज़ुबिन दा का इंतज़ार करते रहना पड़ेगा और यह इंतज़ार कभी ख़त्म ही नहीं होगा।
मुझे ज़ुबिन दा की मृत्यु के अवसर पर लिखने का मन बिलकुल नहीं था। उनके लिए मृत्यु शब्द मेरी क़लम से बड़ी मुश्किल से निकले हैं। ज़ुबिन दा को शब्दों से बाँधा नहीं जा सकता। जितना भी लिख रही हूँ, लग रहा है सब अधूरा है। ज़ुबिन दा कहने या सुनने की कथा नहीं हैं; वह एक अनुभव का नाम हैं। जिसने ज़ुबिन दा को नहीं सुना, उनकी अंतिम यात्रा नहीं देखी, उसके के लिए उन्हें जानना या समझना असंभव है। इस लेख के प्रकाशन तक भी असम में ज़ुबिनमय वातावरण चलता रहेगा। असम के किसी भी एक न्यूज चैनल को खोलकर आप सब भी ज़ुबिन दा के शोक में डूबे असमिया समुदाय के हृदय की पीड़ा का अनुमान कर सकेंगे। असम संगीत का सूर्य समुद्र में डूब चुका है, हवा बहना भूल गई है, ब्रह्मपुत्र भी ज़ुबिन दा की याद में अपनी गति खो बैठी है, प्रकृति नि:शब्द आँसू बहा रही है और असम में समय ठहर गया है।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
25 अक्तूबर 2025
लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में
हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी
06 अक्तूबर 2025
अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव
एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न
27 अक्तूबर 2025
विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना
दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।
31 अक्तूबर 2025
सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स
18 अक्तूबर 2025
झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना
मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह