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यूनिवर्सिटी थिएटर से जुड़ना

नाटक देखने और समझने का मेरा अनुभव यूनिवर्सिटी थिएटर की देन है। बतौर दर्शक मैं कोई प्ले देखती और फिर उसके बारे में जब लिखना होता, फ़ीडबैक देना होता—तो मेरे पास बस कुछ ही बातें बचतीं, कितनी देखते समय ही छूट जातीं, कितनी आधी-अधूरी रह जातीं क्योंकि मेरे पास नाटक देखने की न कोई तैयारी थी, न तरीक़ा पता था। 

स्टेज से तो मुझे हमेशा डर लगता रहा है। डायलॉग स्टेज पर कोई और भूलता है, साँस मेरी अटक जाती है। हाँ, लेकिन मुझमें यह जानने की ललक हर बार रहती थी कि डायलॉग कैसे लिखे जाते हैं, सीन्स कैसे तैयार होते हैं, एक्टर्स का चुनाव कैसे होता है, कौन-सी बातें सूत्रधार से बोलवाई जाती हैं। कौन-से एक्टर्स प्ले करते हैं, यह सब कैसे तय होता है और इसी का हिस्सा नहीं होना मुझे हमेशा खलता। नतीजा यह निकलता नाटक देखने के बाद सब ख़ुश होते मैं दुखी। मुझे लगता मैं अभी भी कुछ नहीं कर रही हूँ।

जब मैंने ग्रुप में मगध के बारे में देखा तो मैंने बिना ज़्यादा सोचे-समझे तय कर लिया कि मैं भी इसका हिस्सा बनूँगी क्योंकि ज़्यादा सोचने पर मैं ख़ुद ही मेरे मन में तमाम तरह के नहीं सामने खड़े कर लेती हूँ। जैसे कि एक साल रूम पर बेकार बैठने के बाद इतने लोगों को कैसे फ़ेस करना, दोस्तों को फ़ेस करना, घर वालों को यह बताना कि मैं नाटक करने जा रही हूँ। अपने इस निर्णय पर कई दिन तक डाउट होता रहा, लेकिन फिर सोच लिया कुछ भी करने के लिए कभी भी देर नहीं होती अगर अब भी नहीं किया तो अब फिर कभी हिम्मत नहीं जुटा पाऊँगी। सही टाइम तो किसी चीज़ का कभी नहीं आने वाला। 

मैं बाहर रहकर प्ले की पूरी प्रकिया को समझने आई थी, लेकिन बाहर कुछ था ही नहीं। जो था सब वर्कसाप के अंदर था। एक्सरसाइज करते-करते वर्कशाप धीरे-धीरे प्ले में बदलने लगी। इसके बाद मैं ख़ुद को अलग नहीं कर पाई, मैं प्ले का हिस्सा रहकर एक-एक चीज़ को बेहतर समझ पा रही थी। एक एक्टर की तैयारी, समस्याएँ, ग़लतियाँ, डायरेक्टर का विजन सबकुछ। 

पहला दिन—सबके सब अनुभवी, जो एक-दूसरे से परिचित भी हैं। दूसरी तरफ़—मैं नई, सबसे बड़ी और आता अभी कुछ भी नहीं। दो-तीन दिन तक एहसास हुआ कि काश एक भी पहचान का चेहरा होता, या मेरा भी कोई दोस्त होता यहाँ तो चीज़ें कितनी आसान हो जाती, क्योंकि वर्कशाप के अलावा करने वाली न मेरे पास बातें थी न लोग थे। 

ख़ैर धीरे-धीरे सबसे बातचीत होने लगी, सब दोस्त बनने लगे। कुछ कोशिशें मैंने की तो कुछ हाथ ख़ुद मेरी ओर बढ़े। मैंने कोशिश करके एक-दो दिन में ही सबके नाम याद कर लिए, जिसके पास समय देखती उससे बात करती, एक दो लोगों से दो तीन दिन में निकटता स्थापित हो गई। 

यूनिवर्सिटी थियेटर का हिस्सा बनने में यू टी के एक-एक व्यक्ति ने मेरा सहयोग किया। मैं सबकी शुक्रगुज़ार हूँ कि मुझे ग्रुप में शामिल किया गया और सबसे ज़्यादा शुक्रगुज़ार इस बात के लिए कि किसी ने कभी मेरी सीन्यॉरिटी को बोझ नहीं बनने दिया। जहाँ-जहाँ उन्हें लगा कि मैं बेहतर कर सकती हूँ, मुझे टोकते रहे, बताते रहे, याद दिलाते रहे। शुरू में लगता सबके पास मुझे सिखाने को रोज़ कुछ-न-कुछ रहता ही है, लेकिन धीरे-धीरे समझ आने लगा कि इसकी मुझे ज़रूरत थी। यह यात्रा मैंने डर-डर के शुरू की थी लेकिन इसी यात्रा ने बहुत सारे प्यारे दोस्त दिए और बहुत कुछ सीखया, साथ थिएटर को जान-समझ पाने का मौक़ा दिया।

पहले जब मैं नाटक बाहर से देखती थी तो पूरी कोशिश करने के बाद भी कभी उतने ग़ौर से नहीं देख पाई जितनी परतें एक मंचन में होती है। जब दो-तीन चीज़ें एक साथ होती हैं, और उन्हें पकड़ना कठिन होता है कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है। बहुत बार ऐसा होता कि प्ले की कहानी और थीम से परिचित नहीं होते हुए, मैं गीत को, कहानी को रिलेट नहीं कर पाती थी—बावजूद इसके प्ले देखने में रस आया हो, उसे एन्जॉय किया हो। उस समय एक-एक दृश्य को, जिन्हें इतने सारे रचनात्मकता तत्वों से सजाया जाता है, वह सब देखने में तो अच्छा लगता, लेकिन सबका अर्थ मैं नहीं निकाल पाती। 

ग्रुप में पूरी प्रकिया से जुड़ने के बाद जाना कि इस सब में पूरी तैयारी लगती है। कुछ निर्माण करने में पूरी टीम का योगदान होता है, एक-एक की अपनी अलग-अलग मेहनत के साथ। मैंने अभिनय की परतों को जानना शुरू किया कि आवाज़ का क्या रोल है, प्रोजेक्शन कितनी अहमियत रखता है और रोल में ख़ुद को ढाल पाने में कितनी कोशिश लगती है। कास्टयूम आपके प्ले के भाव को रिप्रेजेंट करने वाला होता है, पहनावे से ज़्यादा। एक्टर्स का एक-एक क़दम, एक-एक लाइन सब पहले से तय होता है, सब अर्थपूर्ण होता है, कुछ भी बेवजह नहीं हो सकता। अगर आपको तीन क़दम चलना है, यह तय हुआ है तो आप तीन क़दम ही चल सकते हैं। एक और क़दम या आपकी गति कम ज़्यादा हुई तो पहले तो आपके अपने रोल का बैलेंस बिगड़ जाता है, दूसरा आपके सीन के दूसरे एक्टर्स के रोल पर भी उसका प्रभाव आता है और फिर इन सबका प्रभाव प्ले पर आता है। 

एक प्ले में सबको मिलाकर ही एक पूरी तस्वीर बनती है, जिसमें चीज़ें चाहे जितनी हो लेकिन उनका आपस में संबंध होना और समझ आना दोनों बहुत ज़रूरी है। बहुत सारे छोटे-छोटे चित्रों से बनी एक बड़ी तस्वीर अगर एक-दूसरे पर चढ़ी होंगी, तो तस्वीर और चित्र दोनों अपने-अपने अर्थ से दूर होते जाएँगे, नाटक में भी यही होता है। म्यूजिक की अलग तैयारी होती है—एक-एक सुर, नाटक के रंग को प्रस्तुत करने वाला होता है, अभिनेताओं के साथ लय बैठाते हुए। साथ ही यह कई बार अभिनेताओं की मदद भी करता है, नए दृश्य को प्रोजेक्ट करने और एक साथ अंत करने में। आउटलाइन की तरह दृश्यों को निखारने का काम करता है संगीत। 

प्ले की तैयारी के दौरान लग रहा था कि ये सब डायलॉग मुझे याद हैं, इसे मैं अच्छा कर सकती हूँ। लेकिन फ़ाइनल प्ले के दिन सब बदल गया—इनर्जी, आत्मविश्वास, डायलॉग, प्रोजेक्शन सब। और जिस डर के बारे में मुझे एक दिन पहले लगता था कि उसे मैंने जीत लिया है, वह फिर आ गया; नर्वसनेस फिर आ गई। मुझे लगा कि अगर आज मेरा रोल अकेले होता तो मैं सब बर्बाद कर देती। प्ले के बाद मैं ख़ुद से बहुत असंतुष्ट थी क्योंकि रिहर्सल में मैं इससे बेहतर किया था, और भगवान को बस इसलिए धन्यवाद दे रही थी कि चलो कम-से-कम कुछ ख़राब नहीं किया मैंने। 

मैं अच्छा नहीं कर पाई क्योंकि मैंने अपना ध्यान खो दिया था, जो मुझे एक-एक चीज़ पर बनाए रखना था। ठीक-ठाक इसलिए कर पाई क्योंकि टीम का हिस्सा थी और बस इतने पर ही ध्यान था। लेकिन मुझे अब इतना पता है, जब हमारे प्ले का दोबारा शो होगा तो मैं यह ग़लतियाँ दोहराऊँगी तो बिल्कुल नहीं। यह आत्मविश्वास मैंने नाटक करके ही कमाया है। 

जब कोई नाटक तैयार किया जाता है, तो छोटे-छोटे बॉक्स को एक साथ लगाकर एक बड़ा बॉक्स तैयार हो जाता है, लेकिन बॉक्स एक-दूसरे में तभी परफ़ेक्टली फ़िट होते हैं, जब उनको नाप-तोल के साइज में बनाया जाता है, जिसके लिए डायरेक्टर नाम का व्यक्ति होता है। वह हमारे साथ भले ही प्ले के दौरान नहीं होता, लेकिन शुरू से लेकर प्ले शुरू होने तक और प्ले ख़त्म होने के बाद से अंत तक साथ रहता है। 

एक्टर्स की अपनी दृष्टि और अनुभव होता है, डायरेक्टर का अपना विजन होता है। एक्टर अपने किरदार के इर्द-गिर्द सोचते हैं, डायरेक्टर के पास पूरे नाटक की इमेज एक साथ होती है। एक्टर के पास क्या, क्यों की जितनी संभावना रहती है, उतना ही बेहतर कर पाता है, लेकिन कभी-कभी डायरेक्टर को एक एक्टर को अपने रिदम में लाने में और एक्टर्स को डायरेक्टर का रिदम पकड़ पाने में बहुत तैयारी की ज़रूरत होती है। 

हमारे प्ले ‘मगध’ में वृद्ध का रोल पाँच से छह व्यक्तियों को दिया गया था, सबको अपने अन्य रोल के साथ अलग-अलग समय में वृद्ध के रोल में लाना काफ़ी चुनौतीपूर्ण था। जो एक्टर्स-डायरेक्टर के आपसी सहयोग से संभव हुआ। मुझे थिएटर इसलिए भी बहुत भाता है क्योंकि इसमें कुछ सोचने की, करने की न कोई सीमा है न तय ढर्रा। आपका अपना विवेक जहाँ तक आपको ले जाए, आप प्ले को ख़ूबसूरत बनाते जा सकते हैं। जैसे हमारे प्ले में ‘वृद्ध का लंबा गमझा’ जो अपनी लंबाई से ज़्यादा बातें कहता है। केवल दर्शकीय अनुभव से जिसे मैं नाटक ख़त्म होने के बाद ही लांघ के चली जाती हूँ लेकिन, इस पूरे नाटक का हिस्सा बनने के बाद अब मैं शायद हर बार कुछ देखते-सुनते समय सवाल करूँगी, परतों को खोलने की कोशिश करूँगी। 

यूटी की पूरी टीम की सबसे अच्छी बात यह लगी कि जब किसी चीज़ पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने को कहा जाता है तो सब खुलकर अपनी बात कहते हैं। एक-एक कमी गिन-गिन के बताते हैं। जिसका मुझे पूर्व अनुभव नहीं था। थोड़ा बुरा भी लग जाता था शुरू में, लेकिन फिर आदत हो गई। यूटी की पूरी टीम बहुत अच्छी है, हर एक व्यक्ति अपने में बेस्ट है।

सिद्धार्थ जी बहुत ज़िम्मेदार और समझने वाले डायरेक्टर हैं। एक-एक चीज़ एक-एक व्यक्ति को बार-बार बताते। एक-एक एक्सरसाइज हमारे साथ करते और हमें सुधार करने में लगातार मदद करते, सबके कंफ़र्ट-डिसकंफ़र्ट का पूरा ध्यान रखते हुए। बहुत बहुत धन्यवाद अमितेश सर, जिन्होंने भरोसे के साथ मुझे मौक़ा दिया। यूनिवर्सिटी थिएटर से जुड़ने का अनुभव सुखद रहा। मुझे यकीन है कि अब मैं बेहतर दर्शक बनूँगी और दर्शक के तौर पर नाटक के साथ न्याय करूँगी। साथ ही जब उसके बारे में लिखना होगा तो मेरे पास बातें बहुत होंगी क्योंकि अब बारीकियों को समझने की मेरी शुरूआत हो चुकी है।

कोई चीज़ जितना कम जानते रहो उतना आसान लगता है। हम सोचते हैं, यह तो मैं कर ही लूँगी, उसमें शामिल होने के बाद एहसास होता है कि कर तो सकते हैं लेकिन लगातार कोशिश और मेहनत से। इसलिए सबको कुछ-न-कुछ हमेशा करते रहना चाहिए। मौक़े खोज-खोज के। प्ले करना इसलिए भी एक व्यक्ति के विकास में मदद करता है क्योंकि इसमें बहुत सारी लेयर होती हैं—पढ़ना, लिखना, सोचना, समझना, कल्पना करना और अपनी बात समझ आने के लेवल पर कह पाना, इमोशन को एक्सप्रेशन में ढालना, आवाज़ पर काम करना। बाडी-माइंड को रिदम में लाने में, किसी और के जीवन को जीना, फिजिकल फ़िटनेस, फ़िजिकली ख़ुद को आज़ाद करने में भी थियेटर ने ख़ूब साथ दिया। कुछ एक्सरसाइजेज के लिए मैं रेडी नहीं होती थी, लेकिन देखती सब कर रहे हैं तो मेरे पास न करने का आप्शन ही नहीं होता और धीरे-धीरे मैं अपने आप ओपन होती गई। हेजिटेशन दूर होती गई, जो मैंने अनायास ही पाल रखी थी। 

यूनिवर्सिटी थियेटर ने मेरी बहुत मदद की आत्मविश्वास पाने में और उनके लिए भी यह एक अवसर है जिनको आज तक मौक़े नहीं मिले हैं। जिनका भी ख़ुद को बेहतर बनाने में यकीन है, आप ख़ुद अपने अंदर बदलाव महसूस करेंगे। आप ख़ुद को समझना शुरू करेंगे, ख़ुद पर यक़ीन करना शुरू करेंगे। आपका भी मन कुछ रचने को करने लगेगा क्योंकि आपके पास तरीक़ा और महौल पहले से मौजूद होगा, बाहर से आपको एक घंटे के नाटक के लिए महीनों की तैयारी शायद समय की बर्बादी लग सकती है, लेकिन मैं यहाँ अपने अनुभव से बताना चाहती हूँ कि तैयारी के 15 दिन या 30 दिन बीतने के बाद बीत नहीं जाते—वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं, जैसे इस एक नाटक में हिस्सा लेने की वजह से मैंने अपने जीवन में एक्सरसाइज करना जोड़ा और अपने कम्यूनिकेशन सुधारने पर भी ध्यान देना शुरू किया। और अब जब कुछ लिखती हूँ तो एक बार ज़रूर उसको नाटक में मंच पर प्रेजेंट करने के हवाले से देखती हूँ। 

कुछ भी शुरू करने की कोई तय उम्र नहीं होती, बस मौक़ों की तलाश ज़रूरी होती है। थिएटर में दिया गया समय ख़ुद पर किया गया इनवेस्टमेंट है, जो आपको आगे जीवन में सिर्फ़ मुनाफ़ा ही देगा। और यह बात आप थिएटर को अनुभव करके ही जान सकते हैं। यह सोचने की असीम संभावना देता है, अभिव्यक्ति की परिपक्वता देता है और आत्मविश्वास बढ़ाता है।

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