Font by Mehr Nastaliq Web

उन सबके नाम, जिन्होंने मुझसे प्रेम करने की कोशिश की

मैं तब भी कुछ नहीं था, और आज भी नहीं, लेकिन कुछ तो तुमने मुझमें देखा होगा कि तुम मेरी तरफ़ उस नेमत को लेकर बढ़ीं, जिसकी दुहाई मैं बचपन से लेकर अधेड़ होने तक देता रहा। कहता रहा कि मुझे प्यार नहीं मिला, न पिता से, न माँ से; कि पिता अपने ख़ुद के चुने हुए मित्रों के दायरे में अपना परिवार ढूँढ़ते रहे और माँ उनसे मिली उपेक्षा में बिंधी बस छटपटाती रही, और धीरे-धीरे सूख गई।

मैंने तुम सबसे कहा कि पिता ने कभी मुझे गले नहीं लगाया, गोद में नहीं बिठाया, प्यार नहीं किया, और यह बेशक झूठ नहीं था; लेकिन तुम सबने तो किया था, उसके जवाब में मेरे भीतर कुछ फलीभूत क्यों नहीं हुआ। क्यों जब तुम मुझे गले लगाने बढ़ती थीं, मैं सुन्न हो जाता था, भीतर से बाहर तक निस्पंद, जैसे चलते हुए केंचुए को छुओ तो वह अपनी जगह साकित हो जाता है। क्यों मुझे लगता था कि जैसे कोई मेरी चहारदीवारी में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा हो। 

अपने खुले हुए आलिंगन में मेरी निर्जीव लोथ पाकर तुम सबकी आँखों में मैंने वह निराशा पढ़ी। सिर्फ़ आँखों में ही नहीं तुम्हारे पूरे वजूद में, और वह अपमान जो मेरा निस्पंद प्रतिरोध तुम्हारे प्रेमिल उछाह का करता, क्यों आख़िर तुम सबने जाते वक़्त यही एक वाक्य कहा, या इसी से मिलता-जुलता कुछ, कि तुम किसी को प्यार कर ही नहीं सकते, कि तुम अपने आप से प्यार करते हो। लेकिन अपने से भी क्या वाक़ई मैं प्यार करता हूँ?

अब जब तुम में से कोई भी नहीं है, और अब जब मैं दिमाग़ी और दिली फ़ुर्सत में हूँ, मैं इस बारे में सोचने की कोशिश कर सकता हूँ कि ऐसा क्यों होता होगा। वही मैं इस पत्र में कर रहा हूँ। प्यार तो मुझे सच में ही नहीं मिला था, जैसा बाक़ी बच्चों को मिलते मैं देखा करता था। वे बच्चे जिनके माता-पिता वहाँ गाँव में कभी-न-कभी साथ बैठे दिख जाया करते थे, जहाँ पति-पत्नी का रिश्ता एक पर्दे की आड़ में रहता था। 

मेरे माता-पिता कभी उस तरह साथ नहीं बैठे। और न मैं उन दोनों के पास कभी एक साथ बैठा। तब भी जब मैं स्कूल और कॉलेज में अपनी उपलब्धियों के चलते उन दोनों की ख़ुशी का कारण बना, दोनों से शाबाशी मुझे अलग-अलग मिली। इकलौती संतान होने के कारण पिता ने अतिरिक्त सुरक्षा तो दी, लेकिन मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने मुझे अपनी दैहिक सीमा के अंदर प्रवेश करने दिया हो। मेरे शरीर में उनके शरीर की कोई छुअन कभी नहीं पड़ी। 

वह इतने ख़ूबसूरत रहे कि लोग मुझे उनके साथ देखकर ताज्जुब से पूछते कि यह क्या वाक़ई आपका बेटा है। यह अब भी मेरी स्मृति में कहीं टिका है। मेरा डील-डौल, रंग-रूप शायद माँ जैसा ज़्यादा रहा, शायद इसीलिए उनकी आँखों में वह चमक मैंने कभी नहीं देखी, जो और कई लोगों के लिए अक्सर दिखती थी, और जो लंबे समय तक उनके आसपास, उनके साथ अभी कुछ समय पहले तक बने रहे। उनके अपने परिवार से ज़्यादा क़रीब।

मैं आज अनुमान कर सकता हूँ कि संभवत: यही उस हीनता-ग्रंथि का मूल है जो आज कभी-कभी मुझे अपने पूरे वजूद पर बेल की तरह फैली हुई दिखती है। स्त्री-तत्त्व की अधिकता मुझमें संभवत: जन्मजात है। संकोची और शर्मीला भी शायद मैं होश सँभालने से पहले से हूँ। लेकिन हीनता का बोध, जिसे मैं कभी-कभी सिद्धांत की तरह बरतने का भी प्रयास करता हूँ, अलग चीज़ है। 

मैं कह सकता हूँ कि पिता के लिए अगर संभव होता तो वह मुझे इससे बचा सकते थे। पर शायद अपनी सीमाओं में यह उनके लिए संभव ही नही रहा होगा। वह बुरे आदमी कभी न थे। बस, हमारी सीमाएँ हमारा चुनाव नहीं होती।

यह हीनता-बोध भी एक कारण रहा है शायद कि मैं प्रेमी के रूप में वैसा न हो सका जैसा होना चाहिए। देर तक तो मुझे यही भरोसा नहीं होता था कि तुम वाक़ई मुझे प्यार कर सकती हो। ‘तुम’, तुम जब अपने बसे-बसाए घर को छोड़कर मेरे साथ चली आई और हम साथ भी रहने लगे, तब तक भी मैं पुरुष रूप में वह न हो सका जो मुझे हो जाना चाहिए था। बेशक हम दोनों की ही उम्र और अनुभव बहुत पके नहीं थे, लेकिन मुझे पता है कि मेरी जगह कोई और होता तो हमारे रिश्ते का अंत वह न होता, जो हुआ। 

और देखो इधर एक दिन, जबकि बीस साल से ज़्यादा समय बीत चुका है, मैं अपने पुराने काग़ज़ों में तुम्हारे पत्र पढ़कर रोया। मुझे वह सब याद आया जो मैंने तुम्हारे और तुम्हारे बच्चे के साथ किया या हमारे जाने-अनजाने हम सबके साथ हो गुज़रा, और जो न होता अगर कम-से-कम मेरी बनावट में इतनी उलझनें न होती। इन काग़ज़ों में उसकी बड़े-बड़े अक्षरों की लिखावट वाला पत्र भी था, जो तुमने उससे लिखवाया था, कि मैं जल्द-से-जल्द दिल्ली आ जाऊँ। तब मैं गाँव में था और तुम यहाँ दिल्ली में संघर्ष कर रही थी। और वह मात्र तीन साल का। ठीक ही किया तुमने कि तुम वापस वहीं चली गई, जहाँ से मुक्ति के लिए निकली थी। इसके लिए ज़रूर तुम्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ी होगी, मैं उसके लिए क्षमायाची हूँ।

लगभग यही तुमसे पहले ‘क’ के साथ भी हुआ था। गाँव में उसने भी अपने पति को छोड़कर मेरे साथ होने का इरादा कर लिया था, लेकिन एक ग़रीब परिवार की ख़रीदकर लाई हुई बहु के रूप में उसके इरादे के पीछे योजना ज़्यादा थी, प्यार कम। वह पहली स्त्री थी, जिसे मैंने छुआ था। और लगभग एक साल चले इस संबंध में माइक्रोलेवल पर वही सब हुआ था, जो बाद में विस्तार के साथ बार-बार होता रहा। अंतत: मेरा प्यार नाकाफ़ी रहता।

मेरी बनावट की उलझनें जो मुझे प्यार करने और प्यार का पात्र बनने से रोकती थी, या तो इस हीनताबोध का हिस्सा थीं या इसका परिणाम। मेरा एकांत, जो मेरे भीतर था और जिसे बाहर के एकांत ने और गाढ़ा किया, वह भी शायद एक कारण रहा कि दूसरे की मौजूदगी कुछ समय बाद मेरे भीतर की किसी इकाई को अस्वीकार्य लगने लगती, मुझे महसूस होने लगता कि मैं लगातार किसी काम में जुता हुआ हूँ। 

साथ रहना मुझे एक काम की तरह थकाने लगता। इसीलिए तो मैं कभी किसी दोस्त के साथ कमरा शेयर कर किराए पर भी नहीं रह पाया। भाई-बहन थे नहीं, हम तीन लोगों के परिवार के दायरे में और भी कोई ऐसा नहीं था जिसके साथ मेरा बचपन साथ-साथ बड़ा होता। बड़ा होने में किसी व्यक्ति से ज़्यादा किताबों ने मेरा साथ दिया, जिनके साथ कक्षा पाँच पूरी करने के बाद ही जुड़ गया था। और मैं कह सकता हूँ कि इस संगत में मैं ख़ूब ही एकांगी बड़ा हुआ। किताबें इससे ज़्यादा और कर भी क्या सकती हैं। वे मनुष्य का विकल्प तो नहीं ही हैं।

हद दर्ज़े की करुणा, सहानुभूति, नि:स्वार्थता, अपने आप को सबसे पीछे कर सब को अपने आगे करने की क्षमता, दया, अहिंसा, इत्यादि ये सारे गुण, जिन्हें अब भी मैं गुण ही कहूँगा, मेरी बनावट का हिस्सा हैं। ये मुझे किताबों से नहीं मिले, इसलिए कभी भी, किसी भी, कैसे भी मौक़े पर मैं इनसे किनारा नहीं कर सका। चाहकर भी नहीं। किताबों में इन्हीं सब गुणों का आख्यान चलता है, इसलिए किताबें मुझे अच्छी लगती। लेकिन इन सब गुणों ने ही शायद मेरे व्यक्तित्व को कुछ ऐसा चीमड़ भी कर दिया कि अन्य-अनेक के साथ जिनके लिए मैं सबसे ज़्यादा बे-फ़ायदा और अंतत: ‘बचाकर-नहीं-रखने-लायक़’ साबित हुआ, उनमें तुम भी थी। 

तुममें से शायद ही किसी को मैं पुरुष होने के नाते ऐसा कोई मानसिक-शारीरिक संबल दे पाया हूँ, जो स्त्री को पुरुष से आज इक्कीसवीं सदी तक भी चाहिए ही होता है। न तो प्रेमी के रूप में और न पति के रूप में मैं कभी पुरुष की उस सामाजिक भूमिका का निर्वाह कर पाया जो इन पदों पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षित है। मुझे स्त्री-पुरुष के रिश्ते की किसी जाँची-परखी शैली का न अभ्यास था, न संस्कार के स्तर पर उसका कोई बोध। 

मैंने माँ और पिताजी को दो व्यक्तियों की तरह अलग-अलग ही देखा। हालाँकि उनके रिश्ते में पुरुष वर्चस्व के बाक़ी सारे बंधन थे, हैं, जो बस मेरी घृणा का आधार बने; क्योंकि जैसे-जैसे बड़ा हुआ माँ की पीड़ा मेरे सामने और ज़्यादा साकार होती गई, पुरुष-स्त्री के किसी ज़्यादा खुले संबंध की ललक मुझे किसी किताब या सिद्धांत के कारण नहीं, उस ऊब से ही मिली थी जो माँ-पिता के वर्षों के अटूट तनाव से पैदा हुई थी। फिर किताबों ने भी इसी बात को पुष्ट किया कि हम दो लिंग पहले दो व्यक्ति हैं, बाद में स्त्री-पुरुष। लेकिन अभी तक भी हमारे समाज और उस समाज में रहने वाले हम सबके लिए इस सिद्धांत को जीवन बनाने की बात काफ़ी दूर है।

तुम कहती कि मैं देर से आऊँगी, और मैं कहता कि ठीक है। तुम कहती कि आज ऑफ़िस या कहीं और फलाँ से भेंट हुई, मैं कहता, चलो बढ़िया रहा। किसी भी रात मुझे ऐसा नहीं लगा कि मेरे साथ जो सोई पड़ी है, उसे मुझे नींद से उठाना चाहिए, नहीं तो मुझे नींद नहीं आएगी।

अब मैं सोचता हूँ कि क्या यहाँ भी मैंने अपने पौरुष को कुछ कमतर प्रस्तुत किया। मुझे ऐसी स्थितियों में थोड़ा जाना-समझा बर्ताव करना चाहिए था? विरोध करना चाहिए था। संदेह, क्रोध, ईर्ष्या आदि के द्वारा तुम्हारी निगाह में अपने अधिकार को ज़ाहिर करना चाहिए था, जिससे तुम्हें लगता कि मेरे लिए तुम्हारा कोई मूल्य है, कि मैं तुम्हें खो देने से डरता हूँ। और यह मुझसे कभी ना हो सका। नि:संदेह तुम्हें खो देने से मैं डरता था, लेकिन तुम्हें बचाए रखने की वे तरकीबें मुझे हम दोनों का ही अपमान लगती थी, जिनसे हमारे देश की सब पत्नियाँ बची हुई हैं और पति भी। और जिनसे आख़िरकार विवाह और परिवार की यह संस्था अभी तक इतनी प्रतिष्ठित है।

तुम ‘घ’, तुम तो सबसे ज़्यादा दुखी रहीं, मेरे ऐसा पुरुष होने से। अच्छा ही हुआ कि मेरे साथ मिलकर चलने की बजाए तुमने अपना घर बसा लिया और अब ख़ूब ख़ुश हो। बच्चों के फ़ोटो देखे हैं, सुंदर हैं। मेरा आशीष कहना। 

उस दिन तुम जब घर आई थीं मेरे साथ, मैं वाक़ई नहीं समझ पा रहा था कि हमें क्या करना है। मुझे तो अपने स्पेस में तुम्हें महसूस भर करना था। मुझे नहीं मालूम था कि वह आना तुम्हारे लिए कितनी बड़ी चीज़ थी। हमने बाहर के कमरे में बैठकर घंटों बातें कीं। तुम्हारी पीठ के दर्द पर मैंने, मुझे याद पड़ रहा है, मसाज भी किया। और जब तुम अंदर जाकर लेट गई, तब तुम्हारे माथे का चुंबन लेकर मैंने कहा कि कुछ देर सो लो। मुझे लगा तुम थक गई हो। पर शायद मुझसे कुछ भूल हुई थी। 

उठकर तुमने कहा, आप बहुत अच्छे हो। और जाने किस संदर्भ में कहा कि पाप तो मैं करती हूँ। तुम्हारे जाने के बाद ही मुझे इसका कुछ अर्थ समझ आया, और मैं जाने कितने स्तरों पर अगले कई दिन तड़पा। यही दिन हमारे प्यार का चरम था, फिर तुम अपनी और मैं अपनी चढ़ाई उतरने लगा। हाँ इस प्रक्रिया में कविताएँ बहुत बनी।

और तुम ‘च’, तुम तो बिना कोई कविता दिए ही जा रही हो। ‘घ’ के बाद तुम्हारा आना बहुत बड़ी बात थी। तुम में वह आकर्षण था, जो प्रेम की मेरी छवि के केंद्र में शुरू से था। तब से जब मैंने पहले एक बिल्ली से प्यार किया था और फिर लड़कियों के मेरे जीवन में आना शुरू करने से पहले अपने उस सहपाठी ‘क’ से, जिसके चलते मैंने सबसे पहले उस अहसास को जाना जिसके बारे में रेडियो क्या, किताबें क्या, सब लगातार बात करते थे—प्यार। वह सबसे पहला था और सबसे गहरा था। 

वह सुंदरता को प्यार था, जो कुछ समय बाद एक सुंदर दोस्ती में बदल गया। उसमें और तुम में बिल्ली जैसा कुछ कॉमन है। तुम्हारी हज़ारों तस्वीरें जो मैंने अपने फ़ोन से पिछले सात वर्षों में ली हैं, सब सुरक्षित हैं। मुझे पता है कि तुम्हारा मोह भंग हो चुका है, कि तुम अब जीवन के अपने अगले पड़ाव से पहले के ट्रांस में हो। पिछले आठ महीने से हमने बस व्हाट्सएप पर दो बार दो-दो वाक्यों में बात की है। तुम अब लौटकर नहीं आओगी। आओ भी क्यों? हम दोनों ने ही देखा है कि पुरुषों ने क्या-क्या तो नहीं कर डाला, लेकिन यहाँ हम हैं, हम क्या बस मैं ही, जो सात साल से बस रुका ही हुआ है। उम्र का फ़ासला अहमियत नहीं रखता, यह मैं मानता हूँ। लेकिन मन की उम्र? उसका फ़ासला अहमियत रखता है, और बस यही वह जगह है जहाँ मैं ठहरा हुआ हूँ। इसी के कारण मैं तुम्हारी देह की सीमाएँ नहीं लाँघ पाता। और इसी कारण हम अंतत: अब दूर हैं। 

अपने घर वालों से कहना कि वे ज़हर न खाएँ, निश्चिंत रहें, हम शादी नहीं करने जा रहे। तुम शादी करो कहीं, ताकि मैं भी कुछ सोचूँ, क्योंकि अभी भी यह मुझे विश्वासघात लगता है कि मैं, भले ही व्यावहारिक कारणों से, तुमसे पहले किसी के साथ रहने लगूँ। लेकिन तुम यह भी जानती हो कि मुझे इस समय किसी साथ की कितनी ज़रूरत है।

और ‘ग’, तुम्हारी मित्रता के लिए मैं आभारी हूँ, हालाँकि साथ तो हम भी नहीं चल सके। लेकिन तुम्हारे लिए इससे बड़े पत्र की ज़रूरत है। एक बड़ा पत्र (क्या कोई किताब?) ही शायद मुझे भी यह समझा सके कि मेरी गाँठ है कहाँ?

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट