राजनीतिक संगठनकर्ताओं के बीच मुक्तिबोध
विभांशु कल्ला
11 सितम्बर 2024

भारतीय आर्थिक ढाँचा एक बहुत बड़ी आबादी को ख़ाली समय की सुविधा ही नहीं देता कि वह साहित्य जैसे विषय को अपने जीवन से जोड़ सके।
चिंता :
हिंदी के लेखक कई बार सामूहिक तौर पर तो कई बार व्यक्तिगत सीमाओं में भी सोचते-विचारते रहे हैं कि उनकी पहुँच केवल एक सीमित घेरे तक ही क्यों है, जबकि पहुँच बढ़ाने वाले माध्यमों का बहुत विस्तार हो गया है? कई लेखक इस सवाल से टकराते हुए, अपने शिल्प और भाषा की सीमा को रेखांकित करते हैं और कई बार उन्हें लगता है—शायद वह कोई ऐसी बात ही कहना चाह रहे हैं जिसे समझना हर किसी के बस की बात नहीं है।
कम बार, इस विवेचना में ढाँचागत कारण भी शामिल कर लिए जाते हैं— विद्यालय और विश्वविद्यालय जैसे औपचारिक पढ़ाई के ठिकानों को जो साहित्यिक समझ और रुझान विकसित करने थे, जिससे एक परिपक्व पाठक तैयार होता, उसे भारत में नहीं किया जा सका है। इस बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जोड़ा जा सकता है कि भारतीय आर्थिक ढाँचा एक बहुत बड़ी आबादी को ख़ाली समय की सुविधा ही नहीं देता कि वह साहित्य जैसे विषय को अपने जीवन से जोड़ सके।
इन संरचनात्मक कारणों में लेखक के निजी कारणों को जोड़ने पर एक पूरी तस्वीर निकल कर आ सकती है। इन तमाम कारणों के बावजूद भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी-लेखकों के व्यापक समाज से जुड़ने के लिए किए जाने वाले सामूहिक प्रयासों में भी कमी दिखलाई देती है। कम-से-कम उन प्रगतिशील-जनवादी लेखकों और उनके समूहों को यह बात माननी ही चाहिए, जिनके अनुसार साहित्य को जनचेतना का काम करना था और उस जनचेतना से सामाजिक बदलाव की ज़मीन तैयार होती।
सवाल :
नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित काल-यात्री है।
व मैं उसका नहीं कर्ता,
पिता-धाता
कि वह अभी दुहिता नहीं होती,
परम स्वाधीन है वह विश्व-शास्त्री है।
गहन-गंभीर छाया आगमिष्यत् की
लिए, वह जन-चरित्री है।
नए अनुभव व संवेदन
नए अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है।
कि मैं अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगा,
ख़्याली सीढ़ियाँ चढ़कर
पहुँचता हूँ
निखरते चाँद के तल पर,
अचानक विकल होकर तब मुझी से लिपट जाती है।
ऊपर दिया गया कवितांश मुक्तिबोध की कविता ‘चकमक की चिनगारियाँ’ का आख़िरी हिस्सा है, यहाँ पर मैं कविता की इन पंक्तियों को रेखांकित करना चाहता हूँ—
वह जन-चरित्री है।
नए अनुभव व संवेदन
नए अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है।
वर्ग-संघर्ष के लिए किए जाने वाले राजनीतिक आंदोलनों (हिन्दवी के पाठकों को इस प्रकार की राजनीति स्पष्टता अखर सकती है) कि एक बुनियादी समझ है कि जब उनका आंदोलन, जन-आंदोलन का रूप लेगा, तब आंदोलन से जुड़ी समझ, आंदोलन की पत्रकारिता और आंदोलन का साहित्य व्यापक तौर पर लोगों तक पहुँचेगा।
लेकिन उसे जन-आंदोलन बनाने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता को संगठन के स्तर पर रोज़ तैयारी करनी पड़ेगी, और एक उत्प्रेरक की भूमिका निभानी पड़ेगी। इस रोज़ की तैयारी और उत्प्रेरक की भूमिका में क्या साहित्य की कोई भूमिका हो सकती है?
रिपोर्ट :
दक्षिण दिल्ली के वसंत कुंज में एक कमरा है, मेहनतकश लोगों के लिए सिकुड़ती दिल्ली के मानकों पर इसे एक बड़ा कमरा माना जाना चाहिए। कमरे का उपयोग प्रायः आस-पास के बच्चों के पढ़ने और सीखने के लिए होता है, इसलिए उसे ‘सबकी लाइब्रेरी’ नाम से पुकारा जाता है। 1 सितंबर, रविवार के दिन—सबकी लाइब्रेरी नए अंदाज़ में थी, कमरे में जितने लोग बैठ सकते हैं, उतने लोग बैठे थे। इस जुटान का उद्देश्य हिंदी के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना, दृष्टि और जीवन की समझ को राजनीतिक संगठनकर्ताओं के बीच प्रस्तुत करना था।
कमरे में सुनने आए लोग युवा संगठनों, मज़दूर संगठनों और किसान संगठनों में काम करने वाले संगठनकर्ता थे और बोलने के लिए, वे अनुभवी संगठनकर्ता मौजूद थे, जिनका काम आंदोलन से जुड़े प्रकाशनों को संचालित करने का भी रहा है। गार्गी प्रकाशन के संपादक दिगम्बर और संघर्षरत मेहनतकश पत्रिका के संपादक मुकुल।
यहाँ पर रुककर राजधानी में होने वाले दूसरे कार्यक्रमों को भी याद किया जाना चाहिए। मंडी हाउस, लोधी रोड और आईटीओ में फैले संस्कृति के सभागारों में प्रायः ये कार्यक्रम होते हैं। जिनमें वक्ता के तौर पर कुछ धवल केशरी रचनाकार (जो इस बात को व्याख्यान की शुरुआत में ही दोहराते हैं) और रिटायरमेंट के इर्द-गिर्द के प्रोफ़ेसर।
श्रोताओं के तौर पर युवा रचनाकार, डीयू के कॉलेजों के हिंदी प्राध्यापक और छात्र, नोएडा से आए पत्रकार, हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं में कार्यरत लोग और दो प्रकाशन समूहों (दो परिवारों) के प्रतिनिधि के तौर पर उनके व्यापार-कुशल हो रहे बच्चे, लगभग इसी प्रकार के कुछ और लोग भी शामिल होते हैं।
जहाँ प्रायः हिंदी की परंपरा को याद करते हुए किसी वर्तमान संकट पर प्रगतिशील नैतिकता के दायरे में बात होती है, हिंदी का लोकवृत्त मूलतः नैतिकता और मूल्यबोध आधारित है, प्रगतिशील राजनीति वहाँ से दूर की चीज़ बना दी गई है (हर मंच पर अशोक वाजपेयी और अपूर्वानंद और उनकी अन्य प्रतिलिपियों को देखते रहने के कारण उपजा पूर्वाग्रह भी हो सकता है)।
सबकी लाइब्रेरी के उस कमरे में वापस लौटते हैं। प्रायः राजनीतिक संगठनकर्ता एक चेतनायुक्त इंसान होता है। उनकी पढ़ाई में कृत्रिम-अनुदित मार्क्सवादी वैचारिक साहित्य होता है, वे कुछ पत्रिकाओं को नियमित तौर पर पढ़ते हैं और कई बार ख़ुद पत्रिकाएँ निकालते हैं या निकल रही पत्रिकाओं में लिखते हैं। उन पत्रिकाओं के कवर पेज के पीछे कोई कविता होती है, वैसी ही कविताओं के टुकड़ों का इस्तेमाल वे अपने पोस्टरों, पर्चों, पुस्तिकाओं और भाषणों में करते हैं।
इस तरह वे कुछ कवियों के नाम जानते हैं और कम-से-कम यह भी जानते हैं कि मुक्तिबोध उनका ही कोई कवि है। मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ के “ओ मेरे आदर्शवादी मन” वाले हिस्से को लयबद्ध ढंग से गाकर के कुछ साथी कार्यक्रम शुरू करते हैं, और उसके बाद एक साथी दुष्यंत कुमार के शे'र और उसी ज़मीन पर लिखे अपने शे'र पढ़ता है। अपनी बात को शुरू करते हुए दिगम्बर भाषणों को प्रभावी बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली ग़ज़ल से आगे की कविता की समझ के बारे में बताते हैं।
मुक्तिबोध एक जटिल कवि हैं, जिसे समझना दुरुह है, वक्ता इस बात को चुनौती देते हैं। एक-एक करके मुक्तिबोध रचनावली के दो भागों से कविताओं के कुछ हिस्से पढ़े जाते हैं, उनका अर्थ सबके साथ मिलकर निकाला जाता है। कविता-पाठ और उसकी व्याख्या से—मुक्तिबोध को कैसे पढ़ा जाना चाहिए, इस सवाल का भी हल निकलता है। इसके लिए ‘चकमक की चिनगारियाँ’, ‘भूल ग़लती’, ‘पता नहीं’, ‘मेरे सहचर मित्र’ और ‘कहने दो जो उन्हें कहते हैं’ जैसी कविताओं को पढ़ा जाता है। कमरे में बैठे संगठनकर्ता कविता को कैसे सीख रहे थे, उसका एक उदाहरण बता देता हूँ—
कि जो मानव भविष्यत्-युद्ध में रत है,
जगत् की स्याह सड़कों पर।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय,
समस्या एक—
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?
‘चकमक की चिनगारियाँ’ के इस अंश को पढ़ने के बाद दिगम्बर समझाते हैं—कैसे तमाम रहस्य जैसे सवालों (ब्रह्म क्या है, आत्म क्या है) में लोगों को उलझाया जाता है। जबकि मुक्तिबोध के सामने एक स्पष्ट सवाल है, जो हम सबका सवाल भी है। मेरे पास बैठे एक साथी, दूसरे साथी को मार्क्स का कथन याद दिलाते है, “दर्शनशास्त्रियों में दुनिया की अलग-अलग तरीक़े से व्याख्या की गई है, असली समस्या उसे बदलने की है”
कविताओं के बाद, आलोचक मुक्तिबोध से एक राजनीतिक कार्यकर्ता कैसे सीख सकता है—उस पर बात शुरू होती है। ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ लिखने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी और मुक्तिबोध उसकी आलोचना किसी प्रकार करते हैं, उसके बारे में बात की जाती है।
दिगम्बर उसमें, मुक्तिबोध किस प्रकार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मैथड से चीज़ों को समझते थे—के बारे में बात करते हैं। वह कहते हैं—रचना में एक त्रिकोण की कल्पना करो। एक उसका बाहरी सत्य है, समाज में क्या चल रहा था। दूसरा उसका आंतरिक सत्य है, उसका असर व्यक्ति पर, उसकी वर्ग-स्थिति पर क्या असर पड़ा। और तीसरा इनके बीच का संबंध है।
वह बताते हैं, सामंतवादी समाज से पूँजीवादी-लोकतांत्रिक हो रहे समाज में जयशंकर प्रसाद की छटपटाहट का स्रोत क्या है। और बताते हैं इस मैथड का प्रयोग एक राजनीतिक कार्यकर्ता कहाँ-कहाँ पर कर सकता है।
भोजन के लिए कार्यक्रम को रोका जाता है। खाने के दौरान और उसके बाद कार्यकर्ताओं का एक-दूसरे से मिलना शुरू होता है। लगभग सभी एक-दूसरे को जानते थे, नए साथियों का परिचय करवाया जा रहा था। हर समूह अपने साथ अपनी पुस्तिकाएँ, अपनी पत्रिकाएँ लाया था। उनका आदान-प्रदान भी जारी था।
किसानों के समूह के पास बिजली की बढ़ती दरों और मुनाफ़ाख़ोरी पर लिखी एक पुस्तिका थी। युवाओं के संगठन के पास ‘नौजवानों का रास्ता’ नाम से लिखी पुस्तिका थी। मज़दूर आंदोलन के साथियों के पास ‘कम्युनिस्ट विचारधारा की विकास यात्रा’ नाम से किताब थी और हसदेव अरंड को लेकर चल रहे आंदोलन की भी एक पुस्तिका थी।
सब कार्यकर्ता अपनी क्षमता के अनुसार पुस्तक-पुस्तिकाओं की डिमांड कर रहे थे, कहीं पर पुस्तक विनिमय था और कहीं पर सब्सिडाइज मूल्य पर पुस्तक बिक्री। इस बीच फिर से कार्यक्रम शुरू हो गया।
मुक्तिबोध के समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति और सांस्कृतिक मोर्चों की स्थिति से बात शुरू होती है। मुक्तिबोध द्वारा सीपीआई के तत्कालीन महासचिव श्रीपद अमृत डाँगे को लिखी चिट्ठी के हिस्से पढ़े जाते हैं और सांस्कृतिक संगठन कैसा हो, उसकी क्या ज़रूरत है—को लेकर बात होती है।
आगे मुक्तिबोध के कुछ वैचारिक लेखों को भी पढ़ा जाता है। और उसके बाद मुक्तिबोध की कहानियों ‘क्लॉड ईथरली’, ‘समझौता’, ‘पक्षी और दीमक’ के हिस्से पढ़े जाते हैं, उनके कथानक पर बात होती है। इस दौरान कार्यकर्ताओं से पूछा जाता है, वे इसे कैसे समझ रहे हैं, और कार्यकर्ता के जवाब भरोसा दिलाते हैं कि मुक्तिबोध इतने भी दुरूह नहीं हैं।
सवालों का दौर शुरू होता है। मुक्तिबोध के पहले और बाद का हिंदी-साहित्य का संसार, ‘बेचैन चील’ की व्याख्या, मुक्तिबोध को नज़रअंदाज़ करने के कारण, ‘आवेग त्वरित काल यात्री’ का अर्थ, क्या मुक्तिबोध में कुछ है जो हमारी विचारधारा के अनुरूप नहीं है, 1947 से 1964 के दौर तक को हम मुक्तिबोध के काव्य से कैसे समझें—जैसे सवाल आते हैं, और सरल करते हुए उनके उत्तर दिए जाते हैं।
आख़िर में मुक्तिबोध की केंद्रीय रचना ‘अँधेरे में’ पर बात शुरू होती है। किस प्रकार इस कविता को हिंदी के मार्क्सवादी पंडित रामविलास शर्मा नहीं समझ पाए, नामवर सिंह इस कविता में मुक्तिबोध का जो आत्म-संघर्ष देख रहे हैं—उसकी भी सीमा दिखलाई जाती है। वह केवल मुक्तिबोध, अकेले का आत्म-संघर्ष नहीं है। वह पूरे मध्यम वर्ग का आत्म-संघर्ष है, जिसे समझने की आवश्यकता है कि उसकी मुक्ति, वर्ग-संघर्ष में जुटी मेहनतकश जनता के साथ जुड़कर ही संभव है।
इसके साथ ही आत्मालोचना और आत्म भर्त्सना में अंतर, रक्तालोकित स्नाध पुरुष, और आत्मअंतरण, और इन सबका एक राजनीतिक संगठनकर्ता के जीवन से जुड़ाव—पर भी ठहरकर बात होती है।
इस कविता से पहले भारत के हालातों, मुक्तिबोध की पुस्तक ‘भारत का इतिहास और संस्कृति’ पर हुए जनसंघ-आरएसएस के हमलों, उसे प्रतिबंधित किए जाने की क़वायद और उस पर चले मुक़दमों पर बात होती है।
दस से पाँच बजे तक जिस लंबी क्लास का समय तय किया गया था, वह अपने तय समय से काफ़ी लंबी खिंच गई। लेकिन आख़िर में ऐसे लोगों के पास हिंदी-साहित्य की समझ का एक हिस्सा पहुँचा, जो बिना इस कार्यक्रम के किसी दूसरी जगह पर संभव नहीं था।
फिर उन साथियों ने ‘अँधेरे में’ कविता का “कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई” वाला हिस्सा गाया, फिर से पुस्तिकाओं के विनिमय का दौर शुरू हुआ। नोएडा, मेरठ, पानीपत, रुड़की, देहरादून, मथुरा, गुड़गाँव की तरफ़ धीरे-धीरे सारे कार्यकर्ता निकल गए। कार्यक्रम सफल रहे इसके लिए मेज़बान संगठन के कार्यकर्ता लगातार नाश्ते, चाय और खाने की व्यवस्था में लगे रहे।
पूँजीवादी समाज में भी इंसान कई ऐसे श्रम करता है जिसका संबंध व्यवस्था के रिप्रोडक्शन के बजाय उसमें बदलाव लाने से होता है। जनवादी लेखक और राजनीतिक संगठनकर्ता को यह बात एक-दूसरे के क़रीब लाती है।
पुनश्च :
हिंदी-लोकवृत्त के सामने स्पष्ट सवाल है, वह आम-जनता से जुड़ अपनी रचना के जन-चरित्र पक्ष को उभार देना चाहता है, या हैबिटेट और इंटरनेशनल सेंटर में क़ैद रहकर शासक वर्ग में शामिल होने के सपने को देखते रहना चाहता है।
आख़िर ब्रह्मराक्षस कौन है?
राजनीतिक संगठनकर्ताओं के बीच मुक्तिबोध को लेकर जो बातचीत हुई, अगर उसे एक बार की घटना के बजाय, नियमित प्रक्रिया में बदला जाए तो राजनीतिक आंदोलन और साहित्य दोनों एक-दूसरे से समृद्ध होंगे। निश्चय ही इससे हिंदी-साहित्य का घेरा बढ़ेगा, या शायद टूटेगा।
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बेला पॉपुलर
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