...फिर इस साल का आख़िरी ख़त
अंचित
31 दिसम्बर 2025
एमजे,
परंपराएँ कवियों को कहीं का नहीं छोड़तीं। ऐसे ही दिनचर्या की आदत। यह चाहते हुए भी कि किसी तरह की आदत बुरी न बने, कई नशे आदमी ज़िंदगी में ओढ़ लेता है। एक बहुत भारी साल के तमाम होते-होते, जिस इकलौती चीज़ को लेकर मैं तयशुदा महसूस करता था, लगने लगा है—वह भी एक नशा है। क्या हम विरह का नशा करते हैं? तुरंत एक और ख़याल मन में आता है, क्या हमें अपनी ग़ुलामियों की आदत हो जाती है? तुम मेरा नशा भर हो? क्या यहाँ से कोई ऐसा सरल हल निकल सकता है कि हम एक-दूसरे से बाहर निकल जाएँ? एक लंबी बातचीत के मध्य में हमारी भाषा का एक महान् कवि, अचानक तुम्हारा ज़िक्र छेड़ देता है और मेरी बनाई किसी बात पर भरोसा न करते हुए, रोने लगता है।
मेरा दिलासा बस इतना है कि एक प्रेम से निकलने के लिए—दूसरा प्रेम करना होता है और पिछले से महान्, तभी कोई उपाय निकलता है। क्या दुनिया, कविता—ये दोनों, इसी नए प्रेम का इंतज़ार कर रहे हैं? हम तीनों के पिछले प्रेम इस नाते तो असफल ही हैं कि वह पूर्णता तक नहीं पहुँचते। जब आस-पास नफ़रतों का एक बाज़ार लगातार तेज़ी से ऊपर और ऊपर उठ रहा है, मेरे तुम्हारे बीच क्या कोई जगह है, जहाँ हम इससे बच सकें? क्या कवियों के लिए प्रेम करना उम्मीद का खुलना है या हताशा का बरसना—एस्केप? क्या पूर्णता पर पहुँचना ही प्रेम का सफल होना है? मार्केस तुरंत अपने लिखे पन्नों से बाहर निकलता है।
इस साल का कोई लेखा-जोखा मेरे पास नहीं है। मैं फ़िल्मों, कहानियों, कविताओं की लिस्ट बना सकता तो संसार हो जाता। कितना हसीन ख़याल है यह। कितना आज़ाद। जैसे पुराने को राइट-ऑफ़ किया और नए की तरफ़ बढ़े। उपलब्धियों का नाम मैंने अपनी डायरी में निराशा लिखा हुआ है। मैं शेक्सपियर की तरह कोई महान् कवि होता और अमर नायक गढ़े होते तो ‘गेट दी टू द नन्नरी’ या ‘फ़्रेल्टी दाइ नेम इज़ वुमन’ कहता और अपने ग़ुस्से से अपने ईगो और नार्सिसिम को संतुष्ट कर लेता। कोई पेसोआ या कवाफ़ी तो ग़मों का एक अलाव बनाता और उनसे अपना मन सेंक लेता।
दिसंबर में बिना किसी उष्णता के कैसे रहना है, मैंने इन पाँच सालों में सीख लिया है। बल्कि कहना चाहिए कि मुझे सिखला दिया गया है। तुम कोई तानाशाह नहीं थीं, न तुम्हारी पूर्वा जिसके अब वापस आ जाने से मैं नशे छोड़ दूँगा और ज़िंदा रहने की तमाम कोशिशें करूँगा। इस साल का क्या तुम्हारे जाने के बाद गिनती के जितने दिन बीते, उन सारे दिनों, घंटों, मिनटों की समरी मैंने कई बार लिखी है। कई बार मैं उन वाक्यों में डूबा उतरा हूँ और अपनी जग-हँसाई की है। फिर यह एक साल क्या है कि मेरा खोना युगों से बना है और इस ढिठाई से कि मैंने साहित्यिक जीवनियाँ देखी हैं। क्या मैंने सिर्फ़ कविता से प्यार किया है कि उसको कभी ओन करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी मुझे?
यहाँ मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, तुम कैसी हो? यह मानना चाहता हूँ, तुम ख़ुश हो। क्या मैं भी तुम्हें किसी भूत में परिवर्तित करते हुए इसी पंक्ति में कह दूँ कि मुझे तुम्हारी देह याद आती रहती है, कि मैं तुम्हारी आवाज़ के आरोह-अवरोह में डूबता-उतरता रहता हूँ। इससे कुछ साबित होता? क्या इस नई पीढ़ी की शब्दावली में कहूँ कि यह मेरा ‘एमजे-एरा’ है? इससे कुछ बदलेगा। क्या दुखों को छोड़ देना, हमारा अपना निर्णय होता है? क्या तुम मुझे दुखों भर ही मिली हो? क्या साहित्य दुख का सत्कार मात्र है? या क्या वही वह कड़ी है जिनसे मेरा दुख, दुनिया के दुख से जुड़ता है? एमजे, हम दुनियावी लोग, इस दुनिया के बाहर कुछ देख नहीं पाते। मेरे पास कोई ईश्वर नहीं है, जिसके सामने मैं आत्म-समर्पण कर सकूँ। लेकिन मैंने उसे गढ़ने की कोशिश नहीं की, यह भी झूठ ही होगा। यह पूरा साल इसी प्रयत्न में गया कि मैं एक ईश्वर अपने लिए बना लूँगा कि अगर वह अलौकिक नहीं भी होगा और हाड़-मांस का ही, तब भी उसका होना मुझे इस तमाशे में शामिल कर लेगा और मेरा अकेलापन थोड़ा कमेगा।
वही बड़ा कवि जो तुम्हारा ज़िक्र छेड़ते हुए रो पड़ता है, यह भी कहता है कि तुम बहुत सुंदर थी और तुम्हारे साथ उसे मैं भी सुंदर लगता था। उसकी सनक के जाने कितने क़िस्से चटखारे लेकर सुनाए जाते हैं। उसी ने मुझसे कहा कि अकेलेपन का उत्सव सजाए बिना कविता नहीं बनती। लेकिन अभी तो गलबहियाँ-ख़ेमेबाज़ियाँ, सब मंज़र-ए-आम हैं। हाँ, यह भी सच है कि इनसे मैं कुछ तो मुक्त हुआ हूँ, इस बरस। फिर भी मैं इस हल्की बात में कोई रस नहीं चाहता।
क्या तुमको लगता है कि जिस भाषा में मैं और तुम डिस्कोर्स करते हैं, वहाँ रातें और शामें फ़िज़ूल ही ग्लोरिफ़ाइड हैं? क्यों? क्योंकि एक दिन मैंने तुम्हें पढ़ाते हुए याद किया और एक दिन सुबह साढ़े ग्यारह बजे, एक क्लास से निकलते हुए। मैं सबसे झूठ बोलकर एक कैफ़े में अपना दिल सँभालता बैठा रहा कि पूरी साँस आए। यह बेदम उदासी है या गाढ़ा नशा।
इसके बारे में मैंने एक चुटकुला सोचा है और यह लिखते हुए सोच रहा हूँ कि तुम्हारे प्रिय कवियों को तो जानता था पर प्रिय अभिनेता? क्या तुमको शाहरुख़ ख़ान पसंद था? लेकिन तुम तो अँग्रेज़ी फ़िल्में देखती थीं और क्रिसमस पर मेरा हाथ पकड़े, एक पुल पार कराती हुई एक चर्च ले गई थी। तुम्हारी पीली कुर्ती, तुम्हारी लाल शॉल और मैं साधारण और असाधारण के बीच फँसा अपने को शमशेर समझता तुम्हारे पीछे चल रहा था। यह इसी जीवन में घटा और अब कितना आश्चर्यजनक लगता है। यह भी कि यह सब कितना क्षणिक लगता है, जैसे कोई रेलगाड़ी तेज़ गति में गुज़र गई हो जबकि एक-एक पल कितना भारी बीता है जैसे किसी आईसीयू के बाहर मैं घंटों इंतज़ार में खड़ा रहा बिना कुछ जाने और भय से काँपता हुआ एक हारी लड़ाई के जानिब।
एक ही राग का अनगिन बार रियाज़ कितना बोझिल है, लेकिन यही प्रेम की शास्त्रीयता है जो मैं ख़ुद से चाह रहा हूँ। क्या यही काव्य-प्रयोजन है? मैं नहीं जानता। तुम्हारी आँखों में मुझे कभी क्रांति नहीं दिखी, पर तुम्हारे आँसू देखकर यह सोचता रहा कि दुनिया बदल जानी चाहिए।
तुम देखो न देखो, मैं देख पाऊँ या न देख पाऊँ; आगे घना अँधेरा है और सर्दियों की लंबी ठिठुरती दुपहरें। अब हमारे पास इतना कोयला नहीं बचा कि अलाव जलाए जाएँ और न इतना असबाब कि हम सब कुछ आपस में बाँट सकें। मैंने अपने रक़ीब से भी मोहब्बत की है, क्योंकि उसने मुझे यातना नहीं दी और तुम्हारी यातनाओं के ख़िलाफ़ वह सबसे लड़ता रहा। वह मुझसे नफ़रत भी करेगा तो मैं नहीं कर पाऊँगा। उसका हक़ होगा और मेरा स्वीकार। फिर भी मैं मानना चाहता हूँ कि हम दोनों सरकारों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। यह ख़ुद में एक संवाद है कि न तुमने मुझे छोड़ा, न मैंने तुम्हें, न उसने तुम्हें। हम सायों से बस इसलिए निकल पाते हैं; क्योंकि हमें धूप भले न दिखती हो, हम उसका इंतज़ार करते हैं, उसको खोजते हैं, जिस रास्ते पर निकलें। और इस नाते, मेरा उसका रास्ता अलग नहीं है—हम दोनों तुम्हारी खोज पर हैं और इसमें तुम्हारे न मिलने जैसा कोई परिणाम आगे नहीं है।
हम भले गुज़र जाएँ, मेरा-तुम्हारा अंतरंग आगे दूसरों के ज़िम्मे बढ़ता रहेगा, क्योंकि तुमने मुझे छोड़ा नहीं। एक दुखी साल के आख़िर में, जब मैं फिर उतना ही दुबला हो गया हूँ जितना सोलह की उम्र में था और उतना बूढ़ा जितना मुझे सत्तर की उम्र में होना है, मेरी याद और कल्पना मिल गई है, जिसमें तुम मुझसे लगातार कह रही हो—“उन्होंने हमारा कोयला छीन लिया है, और हमें उसे वापस लेना है...”
मैंने न जाने कैसे तुम्हें एक विचार में बदल दिया है, तुम्हारी एक देह है, तुम्हारी एक भौतिकता और उसी से निकला एक विचार। क्या मैं क़ैस से, मीर से और आगे आ गया हूँ? नहीं। यह भटक है और एक साफ़ रास्ता नहीं है। मैं तुम्हारा आदर्श प्रेमी भी नहीं हूँ कि मैं दूसरी देहें जानता हूँ और उनसे पैदा हुए तुमसे बिल्कुल अलग विचार जिनका आकर्षण मुझे जब-तब खींचता रहता है।
इस ख़त में मैं और तुम कितने बचे हैं, यह इन अठारह सौ पचास दिनों के बाद सोचना कितना कमज़र्फ़ है। काश! मैं कह सकता कि मैंने एक रास्ता खोज लिया है। काश! मैं कह सकता कि अब मैं अपनी हीनताओं से ऊपर उठ गया हूँ। काश! मैं कह सकता कि अपनी अनंत गिरावट को मैंने रोक लिया है और हत्याएँ, यातनाएँ, मुझे उत्तेजित करने लगी हैं। लेकिन कुछ पूरा नहीं है और बिना द्वंद्व का। इन दिनों मैं बूढ़े पेड़ों के पास जाता हूँ और उनसे उनकी जवानी के बारे में पूछता हूँ। यह सोचता हूँ कि वे अभी भी बढ़ रहे हैं, उनके भीतर एक पूरा तंत्र दौड़ रहा है, नए पत्ते उग रहे हैं, भले ही उनके तने चूने से रंग दिए गए हैं, उनके आस-पास प्रदूषण बेतरतीब तरीक़े से बढ़ा है और उनकी स्मृति अब धुँधली होती जाती है। क्या ये पेड़, तुम्हारा प्यार और क्रांति का विचार चिर-उर्वरा हैं? बग़ैर और साथ सब आगे बढ़ रहा है।
एमजे, मेरी तुम्हारी नज़्म की दिलकशी वाली बाइनरी अब मैंने तोड़ दी है। इतना तो मैं अब फ़ैज़ से उनके सामने कह सकता हूँ। अर्थ से अर्थों की संभावना की ओर बढ़ गया हूँ। बिना इसके तुम्हारा हासिल मुझसे नहीं हो सकता था। एक पंक्ति में कह सकता हूँ कि तुम्हारी सुंदरता में ही मुक्ति की संभावना है। कोई नहीं समझेगा। वे मुझ पर हँसेंगे और मैं उनपर—कम से कम तब तक जब तक मैं तुम्हें पाने का कोई प्रैक्सिस नहीं बना लेता।
“पिटी दोस हु कैननोट लव...” ख़ुश रहना और लड़ना। बीत गए में यही एक सूत्र छिपा रहता है। दूसरा कोई चारा नहीं है। किसी आख़िरी दिन कि इतिहास गतिमान् है न कि ख़त्म हो चुका, एक किशोर की तरह मैं एक तालाब के किनारे तुम्हारा इंतिज़ार करूँगा, यह जानता हुआ कि तुम आओगी। तुम आओगी और मुश्किलें सुलझ जाएँगी। एमजे, एमजे, एमजे—तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है!
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