नदी, लोग और कविताएँ
अमर दलपुरा
24 मार्च 2025
दिन के बाद दिन आते गए और रात के बाद रात। सारा जीवन इकसार और नीरस-सा लगने लगा। इस दुख को हँसकर टालने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी न था। रात के अकेलेपन को काटने के लिए फ़ोन की स्क्रीन को बेहिसाब स्क्रॉल करना। रील्स, पोर्न, क्रिकेट, कविता और न्यूज़ देखने से मन ऊब गया था। शाम के लिए ऐसा ठिकाना ढूँढ़ा जहाँ सैकड़ों लोग न जाने कौन-सी दुनिया से तंग आकर यहाँ मिलते हैं। आधी रात अनजान लोगों के साथ गुज़र जाती और आधी नींद में। मेरा ख़याल है कि रोटी के साथ नींद को भी ज़रूरी चीज़ों में शामिल होना चाहिए। जो सबको आसानी से मिल जाए।
यह दो साल पहले जनवरी के दिनों की बात है। मैं ऐसी जगह पर आ गया था, जहाँ दो अभयारण्य मिलते हैं, दो नदियाँ का संगम है। दर्रा अभयारण्य और भैंसरोडगढ़ अभयारण्य, चंबल और बामनी नदी। इन दो सालों का हासिल यह कि इन अभयारण्यों के बीच से बहती चंबल को अलग-अलग जगह से देखता रहा। अब मैं एक नदी के किनारे बसे एक ऐसे शहर रहने लगा जहाँ का कोई मूल निवासी नहीं है। सत्तर के दशक में बाँध बनाया गया, जो गाँव बाँध की डूब में आ गए—उन्हें उजाड़कर फिर बसाया गया।
एनपीसीआईएल की स्थापना से भारत के अलग-अलग हिस्से के लोग कर्मचारी के तौर पर आए और यहीं बस गए। उजाड़ में जीवन बसता है—ऐसे बना रावतभाटा, उजड़े हुए लोगों से बसा हुआ छोटा-सा शहर। कुछ लोगों के लिए विस्थापन एक नियति की तरह है और कुछ लिए यह चुनाव की तरह। जिन लोगों के आवास और ज़मीनें पानी में डूब गई। उनके लिए विस्थापन त्रासदी से कम नहीं है। वे शहर या प्लांट में मज़दूर का जीवन जी रहे हैं। उनके पास नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। कभी ऐसा होता कि कुछ साल बाद छूटे हुए जीवन का दुख नई जगहों के आश्चर्यों में घुलने लगता है। कभी ऐसा होता है कि हम न घर के रहते हैं न बाहर के। वे नई जगहों पर अपने को खोया हुआ पाते हैं। यह ऐसी जगह है जहाँ जंगल है, अरावली के पुराने पहाड़ है और चंबल जैसी नदी है।
जब मैंने चंबल को पहली बार देखा, बीहड़ों में देखा। वह करौली-धौलपुर का इलाक़ा था। जहाँ नदी में पानी कम है, इलाक़े में डकैतों की कहानियाँ अधिक हैं। पान सिंह तोमर फ़िल्म के संवाद के माध्यम से कहे, “बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते है पार्लियामेंट में”। ख़ैर बीहड़ यानी डांग का सौंदर्य अलग ढंग का है। यहाँ रहने वाले लोगों की पीड़ाएँ और संघर्ष, रेगिस्तान के इलाक़े से बिल्कुल भिन्न है। चंबल को कंदराओं में बहते देखने का अनुभव बिल्कुल अलग है, क्योंकि समाज और संस्कृति भिन्न है। बोली-भाषाएँ भिन्न हैं। हिंसा और प्रेम करने के तरीक़े भिन्न हैं। एक दिन अख़बार के स्थानीय पृष्ठ पर पढ़ा कि एक लड़की प्रेम में थी, उसके परिजनों ने उसे मगरमच्छों के आगे फेंक दिया। यह किसी के लिए कोई ख़ास ख़बर नहीं थी।
जिसने चंबल के इलाक़े को बैंडिट क्वीन और पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्मों में देखा और नरेश सक्सेना की असमाप्त कविता ‘चंबल’ को पढ़ा या सुना है। पाठ के अंत में कवि अक्सर कहते कि दोस्तों, कविता अभी समाप्त हुई नहीं हुई है। चंबल कथाओं की नहीं, किवदंतियों की नदी है। असमाप्त कविता जैसी नदी। चंबल कविता के हवाले से कहा जाए कि नदी कैसी है—
चंबल के तट तीर्थ नहीं हैं
उसके बारे में प्रसिद्ध है
दरस करे तो रागी होय
परस करे तो बागी होय
करे आचमन मूड़ सिराए
चंबल तो बड़ भागी होय
इक्कीसवीं सदी में चंबल का मानवीकरण यानी मूर्तिकरण हो चुका है। कोटा में अथाह पैसा बहाकर रिवर फ़्रंट बना दिया गया है। राजस्थान में विकास के नाम पर जो कुछ होता है। स्थानीय कला-संस्कृति को मिटाकर हेरिटेज लुक दिया जाता है। यह कला-संस्कृति का राजतंत्रीकरण है। कोटा से दूर चंबल कैसी है? यह कैसे बताया जा सकता है। चंबल कटी-फटी और क्षत-विक्षत है और विषम और भयावह आकृतियाँ निर्मित करती है। वह कंदराओं के बीच से साँय-साँय करती हुई निकलती है। मैं सोचता था कि इसे दिन में देखूँ कि इसे रात में देखूँ। नदी को पास से देखूँ और इतनी दूर से देखूँ कि दूर तक जाती दिखाई दे। मैं उस बच्चे की तरह देखूँ जिसने पहली बार नदी को देखा हो या फिर उस आदिवासी की तरह जिसने नदी के किनारे प्राचीन कंदराओं में अपना घर बनाया हुआ है या रेत के उस आदमी की तरह जिसके लिए नदी का होना एक सपना है। मैं चंबल से दरस से रागी हो गया।
अरावली जितनी पुरानी है उतनी ही चंबल। यह राजस्थान में जब प्रवेश करती है एक बाँध के रूप में दिखाई देती है। राणा प्रताप सागर से निकलकर जहाँ नदी पुनः बहती हुई दिखाई देती है। वहीं एक ऐतिहासिक क़स्बा भैंसरोडगढ़ है जो मेवाड़ के इतिहास का साक्षी है। यहाँ चंबल और बामनी नदी का संगम है। जेम्स कर्नल टॉड ने ऐसा कहा है कि किसी भैंसाशाह नाम के व्यापारी ने क़िला बनाया था। जो संगम के पास पहाड़ी पर बना है। प्राचीन क़िले का रूप अलग है, आधुनिक किला होटल बन चुका है। वहीं राजस्थान का सबसे ऊँचा वाटर फ़ॉल है। यह जगह इतनी गहराई में है—कोई अनुमान भी नहीं कर सकता कि यहाँ वाटर फ़ॉल भी होगा लेकिन पानी कंदराओं में गिरता है। इसे राजस्थान के सबसे ऊँचे जल-प्रपात के रूप में जनरल स्टडी की किताबों में पढ़ा।
ख़ैर जगह सुंदर भी है और भयानक भी। जब पहली गया तो दो-तीन घंटे वहीं भटकता रहा। यहीं एक कंदरा में कच्चा चूल्हा, मसाले और तेल जैसे कुछ ज़रूरी सामान रखे थे। कंदरा की दीवारों पर इस्तेमाल की हुई टीकी लगी हुई थी। एक बिस्तर भी, मैंने सोचा यहाँ कोई तो रहता है। तभी एक छोटे कद का आदमी दूर से आता दिखाई दिया। मैंने अपने पास आने का इंतज़ार किया, वह अपनी धुन में गुफ़ा की ओर तरफ़ बढ़ गया। उसने एक मटमैले रंग का कोट पहन रखा था। कभी-कभी कुछ लोगों को देखकर लगता है, जितनी जगह पर रहते हैं-घूमते हैं—वहीं तक उनकी दुनिया है, वहीं उनकी धरती है, वहीं उनका देस है। बाक़ी सब उसके लिए निरर्थक है। मैंने सोचा इस आदमी से फिर कभी मिलूँगा। विनोद कुमार शुक्ल की कविता की याद आई—
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
एक दिन दोपहर का समय था। दिन रविवार। मैं कंदरा में पहुँचा तो वह खाना खा रहा था। मेरी और उसकी भाषा में इतनी दूरी थी कि बातचीत को सहज संवाद में नहीं बदल पाया। उसके सुख-दुख अलग हैं मेरे अलग। मुझे लगा एक समय में हम अलग-अलग सदी जी रहे हैं।
एक रात घड़ी में बारह चुके थे और आकाश में चाँद पूर्णिमा के क़रीब था। ख़ाली बैठे आदमी के पास ख़यालों के अलावा क्या काम होता है। न जाने क्यों, यह ख़याल आया कि रात में नदी कैसी दिखती है, उसे देखना चाहिए। शराब पीने के बाद जितने उल्टे ख़याल आते हैं—उनमें से एक यह भी था। नदी वाली सड़क पर एक आदमी शराब के नशे में लेटा था। एक स्त्री बहुत कोशिश कर रही थी कि कैसे भी करके उसे घर तक लेकर चली जाए। मैं अपने ठिकाने से दूर नदी पर जा रहा था ताकि मैं चट्टानों पर खड़ा होकर नदी को देख सकूँ। रात के शांत वातावरण में पानी और हवाओं की साँय-साँय आवाज़। रात, पानी और हवा का ऐसा रूप मैंने बारिशों के अतिरिक्त यहीं देखा। चट्टान पर घंटों लेटा रहा और यही सोचता रहा—
इस बहती नदी में पड़े पत्थर का
पानी से कोई रिश्ता तो है
इस निर्जन में खड़े पेड़ का
किसी से कोई वास्ता तो है
दिनोंदिन सूखती जा रही टहनी का
जीवन से कोई नाता तो है
न जाने कितनी चीज़ों से रब्त बना रहता है
इस संसार में
सिर्फ़ हमारा ही कुछ नहीं बचा
जिसे कोई नाम दिया जा सके
जनवरी फिर लौट कर आ गई है। जबकि शुरू से कुछ नहीं होता। न दिन वैसे होते है न कोई साल। सिर्फ़ नाम लौटकर आते हैं। यदि कुछ लौटकर भी आता तो सबसे पहले तुम्हें आना चाहिए था। हमें पता था कि हम नहीं मिलेंगे। भ्रम और आशा दोनों शब्दों ने कितना सहारा दिया कि आज हम जीवित हैं। इस नदी के शहर में रहते हुए तुम्हारी कद-काठी की एक बंजारन स्त्री मिलती है। उसके देस-भाषा का सहारा है। जीवन का क्या आकलन करना है? यह जैसा होता है वैसा ही होता है।
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