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कमज़ोर दिखना भी एक नैतिक शक्ति है

एक दिन दोपहर की चिलचिलाती धूप में, मैं बिल्कुल सामान्य तरीक़े से सड़क पार कर रही थी। तभी अचानक, एक बाइक वाले ने मुझे इतनी ज़ोर से टक्कर मारी कि मैं समय से कुछ इंच पीछे गिर पड़ी। लोगों ने मुझे उठाया, किसी ने पानी दिया, पर मेरा दायाँ हाथ—जो कभी ताक़त का प्रतीक था—अब टेढ़ा था और टूटा हुआ।

अस्पताल में डॉक्टर ने मेरी ओर देखा और बोला, “मेटाकार्पल फ़्रैक्चर (Metacarpal fracture) है, कॉक-अप प्लास्टर लगेगा।” 

मैंने सोचा, यह कोई मेडिकल टर्म है या कोई नई सज़ा? जब प्लास्टर लगा, तो मेरा हाथ एक अजीब कोण पर जम गया, जैसे मैं किसी अदृश्य शक्ति को सैल्यूट कर रही हूँ—या शायद अपने अंदर की जीवित देवी को। यह कोई मेडिकल प्रक्रिया नहीं, बल्कि कोई आदिम जाति का दीक्षा-संस्कार है। मेरा दायाँ हाथ, जो कल तक मोबाइल स्क्रीन पर ज्ञान की उँगलियाँ घुमा रहा था, आज लीमर के पंजे जैसा ऊपर उठा है—जैसे कोई वृक्ष से लटकता हुआ दर्शनशास्त्री। 

लोग पूछते हैं, “दर्द हो रहा है?” मैं कहती हूँ, “नहीं, यह तो विकासवाद की पुनरावृत्ति है। शायद मेरी देह को याद आ गया है कि वह कभी पालतू नहीं, पर्जन्य-पूजक थी।”

आईने में जब पहली बार देखा, तो मेरा दायाँ हाथ इंसानी नहीं, लीमरी लग रहा था। लंबा, उठा हुआ, और अपनी भाषा में कुछ कहता हुआ। मुझे बचपन का वो पन्ना याद आया—“इंसान बंदर से विकसित हुआ है।” मैं सीधे लीमर के पास पहुँच गयी हूँ; उद्विकास—जिसे हम अँग्रेज़ी में Evolution कहते हैं, उस पायदान पर लीमर हमारे प्रथम और अग्रणी पूर्वज हैं। भले ही लोगों के मन में यह प्रश्न उठता हो कि हमारी उत्पत्ति बंदरों से हुई या नहीं—मेरा उद्विकास कुछ समय के लिए लीमर के और भी निकट आ चुका है।

लीमर केवल एक प्राणी नहीं, बल्कि हमारे विकास की स्मृति हैं। ये प्राचीन प्रजातियाँ, जो सिर्फ़ मेडागास्कर में पाई जाती हैं, लगभग 60 मिलियन वर्ष पहले हमारे साझा पूर्वजों से अलग हुई थीं। इनके शरीर की बनावट और व्यवहार आज भी हमें यह दिखाते हैं कि हमारे आदिम रूप कैसे रहे होंगे। लीमरों की ख़ास बात है—इनकी विविधता, कहीं नन्हें से माउस लीमर, तो कहीं वृक्षों पर गूँजता हुआ इंड्री। औरतों के नेतृत्व वाली इनकी समाज व्यवस्था, प्राइमेट्स की दुनिया में एक अद्भुत अपवाद है। इनकी एक आदत और भी दिलचस्प है—कुछ लीमर ख़ास कीड़ों या मिलीपीड्स को चबाते हैं, जिनसे निकलने वाले रसायन उन्हें हल्की बेहोशी या नशे की अवस्था में ले जाते हैं। वैज्ञानिक इसे परजीवियों से बचाव मानते हैं, पर शायद यह उनके ‘आध्यात्मिक प्रयोग’ भी हों। लेमुर हमें यह याद दिलाते हैं कि हमारे भीतर भी एक जिज्ञासु जीव बसा है—जो रहस्य चाहता है, नशा भी, और कभी-कभी... पेड़ों से लटकते हुए दुनिया को उल्टा देखने की हिम्मत भी।

जब से हाथ ऊपर गया है, सोच भी जैसे ऊर्ध्वगामी हो गई है। अब मैं लोगों को नीचे से नहीं, ऊपर से देखती हूँ—जैसे कोई टहनी पर बैठी, आत्मनिरीक्षण में लीन, तटस्थ प्राणी। ऊँचाई का यह नया दृष्टिकोण जीवन के तमाम नाटकों को और भी दिलचस्प बना देता है।

लोगों की प्रतिक्रियाएँ भी विकासवादी कॉमेडी (evolutionary comedy) से कम नहीं रहीं। कोई कहता, “अरे, देख के चला करो” जैसे सड़क पर चलना कोई फिजिक्स का प्रैक्टिकल हो। कोई हँसते हुए बोलता, “बहुत रॉयल लग रही हो!” मानो हाथ नहीं टूटा, बल्कि किसी राज्य की गद्दी सँभाल ली हो। कुछ ने तो सुझाव भी दे डाले कि इसी पोज़ में इंस्टाग्राम रील बनाओ—हैशटैग #LemurLook #PlasterPosh...

लेकिन सबसे मज़ेदार वाक़या तो सब्ज़ी की दुकान पर हुआ था। सब्ज़ीवाले ने पहले सहानुभूति जताई, फिर न जता पाने की बेचैनी में पूछ ही लिया, “बेटा, ये हाथ को क्या हो गया?” मैंने गंभीरता ओढ़ते हुए उत्तर दिया, “ये पिछले जन्म की पूँछ थी, इस जन्म में हाथ बनकर आई है, बस सड़क पर बाइक वाले से टकरा कर फिर से एक्टिवेट हो गई।” उनकी आँखों को देखते हुए, मुझे समझ में आया की व्यंग्य और जोक हर जगह काम नहीं करते हैं, क्योंकि उन्होंने फ़्री वाली धनिया पन्नी से वापस निकाल ली थी। 

एवोल्यूशन (Evolution) की किताबों में डार्विन ने बहुत कुछ लिखा, लेकिन जो नहीं लिखा, वो मेरी टूटी हुई हड्डियों ने मुझे सिखाया। उसने कहा—“Survival of the fittest,” पर शायद वह यह भूल गया कि कभी-कभी सबसे ‘fit’ वही होते हैं, जो अपने दर्द को ‘funny’ में बदल लेते हैं। जब एक्स-रे रूम में अपनी ट्रांसलूसेंट हड्डियों को देखा, तो ऐसा लगा मानो शरीर नहीं, समय की परछाई हूँ। वहाँ मेरी हड्डियाँ थीं, और उनके भीतर कहीं मेरी विफलताएँ, मेरी थकान, और मेरा व्यंग्य चुपचाप चमक रहा था। जैसे शरीर की नहीं, आत्मा की एक्स-रे हो रही हो। तभी विचार आया—क्या इंसान सच में सबसे इवॉल्वड है? या फिर हम एवोल्यूशन की सबसे असमंजस भरी ग़लती हैं? एक जटिल चुटकुला, जो कभी ख़त्म ही नहीं होता? कभी-कभी मुझे लगता कि मैं लेमुर नहीं, कोई प्राचीन फ़ॉसिल हूँ—जिसे समय की नदी ने ग़लती से इस सदी में धोकर किनारे पटक दिया है। और यह कॉक-अप प्लास्टर? यह सिर्फ़ प्लास्टर नहीं, एवोल्यूशन का स्टिकी नोट है—जिस पर लिखा है, “ठहर जा बेटी, बहुत टायपिंग कर ली तूने... अब थोड़ा महसूस कर।

जब आप किसी और की मदद के बिना बटन तक नहीं लगा सकते, तो आपके भीतर स्वतंत्रता की सारी परिभाषाएँ डगमगाने लगती हैं। वह ‘मैं सब कर सकती हूँ’ का स्वाभिमान धीरे-धीरे पिघलता है, और उसके नीचे से एक नई, मुलायम समझ निकलती है—जिसे हम अक्सर पहचान ही नहीं पाते।

“ज़रा पानी दे दो।”

“दीदी, बाल धो दो।”

पहले ये वाक्य आत्मसम्मान पर चोट जैसे लगे। पर धीरे-धीरे ये वाक्य आत्मा की मालिश बन गए। एक स्पर्श, जो कहता था—“तुम्हें सब कुछ अकेले नहीं करना पड़ता।”

पहली बार मैंने थमा हुआ समय महसूस किया।

पहली बार मैंने निर्भर होना सीखा—बिना शर्म के, बिना अपराधबोध के।

माँ ने मेरे बाल सँवारे, दोस्त ने दवाई के पत्ते खोले, और रिक्शावाले ने पानी की बोतल पकड़ाई।

मैंने सीखा—करुणा केवल दी नहीं जाती, कभी-कभी ली भी जाती है। कहने को छोटा काम, पर इंसानियत का भारी दस्तावेज।

एक्स-रे मशीन में जब मेरी हड्डियाँ दिखीं, तो मुझे अपना इतिहास दिखा—टूटी हुई, पर जुड़ने को तैयार।

डार्विन ने कहा था—“Survival of the fittest”. पर इस टेढ़े हाथ ने मुझे सिखाया कि मैं —“Survival of the most cared-for.” भी हो सकती हूँ। जब दायें हाथ से कुछ भी लिखना नामुमकिन लग रहा था, तब मैंने बाएँ हाथ से पेंट ब्रश पकड़ लिया, और वाटर कलर किसी देवता की भाँति अपना स्वरुप ख़ुद ही मुझे दिखने लग गए थे।

यहीं से ethics of care की बुनियाद दिखाई देने लगी। उन हाथों से, जो अब तक निर्भरता का प्रतीक बन चुके थे। जब मैंने पहली बार टेढ़ा-मेढ़ा, अधूरा पर ‘अपना’ कुछ लिखा—तो लगा जैसे मेरी डिवॉल्वड आत्मा फिर से इवॉल्व हो गई है। देखभाल ने मुझे फिर से गढ़ा—कमज़ोर नहीं, ज़्यादा मानवीय बनाकर। अब-जब मैं लोगों को देखती हूँ, तो ऊपर से देखती हूँ—न अहंकार से, बल्कि एक गहराई से। अब-जब मैं स्पून पकड़ती हूँ, तो हल्का झुकाव रहता है—जैसे एवोल्यूशन ने मुझे थोड़ा सिग्नेचर स्टाइल दे दिया हो।

धीरे-धीरे प्लास्टर ढीला होने लगा। डॉक्टर ने कहा, “हड्डी जुड़ रही है।”

पर मुझे लगा—सिर्फ़ हड्डी नहीं, मेरे भीतर की कोई टूटी हुई चुप्पी भी ठीक हुए जा रही है। मैंने अपने उस हाथ को देखा, जो अब भी थोड़ा काँपता है, जैसे पूछ रहा हो—“क्या मैं अब फिर से दुनिया को छू सकता हूँ?”

और मैंने कहा—“हाँ, लेकिन इस बार धीरे से, ध्यान से।”

हीलिंग एक पल नहीं होता, वह एक लय होती है।

अब मैं चीज़ों को तेज़ी से नहीं पकड़ती—ना विचारों को, ना रिश्तों को, ना डेडलाइंस को।
अब मैं धीरे पकड़ती हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि जो चीज़ें हमारे पास रहना चाहती हैं, वे भागती नहीं।

लेमूर बनकर मैंने सीखा कि डिवॉल्व होना भी एक तरह का इवॉल्व होना है।

कमज़ोर दिखना भी एक नैतिक शक्ति है।

देखभाल माँगना कोई अपराध नहीं—बल्कि एक कला है, जो हमें फिर से मनुष्य बनाती है। अब-जब मैं दोबारा चल रही हूँ, लिख रही हूँ, मुस्करा रही हूँ, तो लगता है जैसे एवोल्यूशन ने मुझे एक नोट थमाया हो : “Welcome back. This time, stay soft.”

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