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दास्तान-ए-गुरुज्जीस

एम.ए. (दूसरे साल) के किसी सेमेस्टर में पाठ्यक्रम में ‘श्रीरामचरितमानस’ पढ़नी थी। अब संबंध ऐसे घर से था—जहाँ ‘श्रीरामचरितमानस’ और ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ पूजा-पाठ के क्रम में पढ़ने के साथ ही, बुज़ुर्गों द्वारा तब भी पढ़ी जाती थी। खा-पीकर सुस्ताने के बाद, वे इन्हें पढ़ते हुए—अपनी अक्षर-ज्ञान से विहीन, पर व्यावहारिक और सामाजिक ज्ञान में अव्वल पत्नियों को ससंदर्भ व्याख्या भी सुनाते थे। इसलिए मेरे लिए तो ‘मानस’ पूजनीय किताब थी/है।

गुरुजी गूढ़ एवं वरिष्ठ ज्ञानी थे तब, जैसा कि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर होते हैं। अवकाश की दहलीज़ लाँघने के पहले का समय जैसे-तैसे काट लेने को विवश... कक्षा में आए। पूरे सेमेस्टर वह यह तय नहीं कर पाए कि मानस पढ़ाएँ या पाँच बार पूरी श्रद्धा से सिर नवाएँ। लिहाज़ा उन्होंने बीच का रास्ता चुना और फिर—‘पत्नी की गोद में सिर रखकर सोने के सुख’ विषय पर व्याख्यान देते पूरा सेमेस्टर फ़ना कर दिया। इस परम सत्य, परम आध्यात्मिक विषय पर व्याख्यान देते हुए—उनकी आँखें सजल होती थीं, अधरों पर हल्की थरथराहट होती थी, मन मुदित होता था और शरीर का रोम-रोम पुलकित, वाणी की मिठास ऐसी की कचरस को भी पीछे छोड़ दें, हाथों की नाज़ुक उँगलियाँ हवा में हारमोनियम बजाने को आतुर हो उठती थीं।

हमारे साथ हमारी परम मित्र भी इस व्याख्यान की साक्षी हैं, क्योंकि यह उसकी भी कक्षा में पढ़ाया गया था।

हमें नहीं पता कि गुरुजी अब इस मिट्टी की दुनिया में, मिट्टी के शरीर के साथ विद्यमान है कि नहीं है। अगर नहीं हैं तो जन्नत में उन्हें ऐश-ओ-आराम मिले और अगर है तो एक बार एस.एन. सुब्रह्मण्यम (लार्सन एंड टुब्रो) से मिल लें और उन्हें भी ज्ञान-गंगा के जल से अभिसिंचित करें कि छुट्टी और आराम कितना ज़रूरी है।

(कुछ दिनों पहले जब यह पोस्ट लिखी गई तो मित्र ने कहा—“लिखिए महाराज!” फिर क्या था। हमारे भीतर उपस्थित गुरुयास्टिक बुलबुले कुलबुलाने लगे और उन्होंने दास्तान-ए-गुरुज्जीस का रूप ले लिया।)

एक

ऐसे ही किसी दिसंबर-जनवरी के सर्द दिनों में जब हमारा मानना था कि नहाना बस खिचड़ी पर होना चाहिए—हम “दई-दई घाम करा, सुगवा सलाम करा” कि सुरमयी पंक्तियों को सुर में लगाते जा रहे थे... जिसे जरतुहे बुज़ुर्ग हकड़ने के विशेषण से विभूषित करते थे और जिनको हमने हमेशा ही चिढ़कउवा सामग्री से अधिक का भाव कभी नहीं दिया। बहरहाल हम जोगियों की तरह मस्त-मलंग हो पाठशाला पहुँचे, बस हमारे पास सारंगी की जगह झोला था।

प्रार्थना शुरू हुई। “वह शक्ति हमें दो दयानिधे" के आर्तनाद से दयानिधि की दया छलक-छलक जा रही थी; जिसे वह बचाने में भरपूर प्रयासरत रहे होंगे, ऐसा हमारा मानना था कि हम शक्ति से संपन्न थे, पर दया हीन थे। जोलहा की पूँछ में रस्सी बाँधकर उड़ाना हो या जोंक पर नमक छिड़ककर मारना या कि मछलियाँ ज़मीन पर रखकर एक कट्ठा पुआल डाल उन्हें भूज देना, या कि लड़ाई में येन-केन-प्रकारेण विजय पाने हेतु दुश्मन ख़ेमे के केशगुच्छों को मुट्ठी में पकड़—उसे गंजा कर देने का गौरवपूर्ण कार्य करना हो, इन सबमें हमने अपना शक्ति प्रदर्शन सौ प्रतिशत किया।

ख़ैर! ईश्वर ने कभी बच्चों की नहीं सुनी है, वह बच्चों को घालू समझते हैं। इस बात में हम डूबकर यकीं करते रहे कि तभी तो उस दिन दयानिधि ने शक्ति गुरुजी को दे दी और दया को जमा-पूँजी की तरह स्वयं के ही पास रखा। गुरुजी की आवाज़ आकाशवाणी की तरह गूँज उठी—“आज के-के नहाय के आयल ह? जे ना नहाय के आयल ह उ एक ओरी हो जाय...” 

पता नहीं हमें बचपन में किस कीड़े ने काटा था कि हम किताबों में लिखी बातों को सच मानते थे, जैसे यही एक बात कि सदा सत्य बोलो। सत्य बोला गया, सच के लिए एक तरफ़ खड़ा होना पड़ा। फिर हम रुई हुए और गुरुजी लबेदा।

हमने उस दिन सच की क़ीमत चुकाई थी।

इतना धुनाने के बाद भी हमारी पीठ छलनी होने से बची रही, जिसका सारा श्रेय हमारी चाची को जाता है जो तब नई दुल्हन थी और उन्होंने मोटे ऊन के रोयें वाले स्वेटर बड़ी मशक़्क़त से तैयार किए थे, कि शायद उन्हें आने वाली विपदा का भान था। हमारे लिए धुना जाने से अधिक दुख उन सखियों-सखाओं के सामने अपमानित होने का था, जो हमसे हर दो मिनट पर कट्टी-बट्टी खेलते थे, जिनमें से एक सखा हमारी बग़ल में बैठता था और उससे हमारा इतना प्रेमपूर्ण संबंध था कि उसे चिकोटी और दाँत काटते हम इस आत्मरक्षक प्रणाली में निपुण हो गए थे, हालाँकि वह भी कम मुक्केबाज़ नहीं था।

धुना जाने की प्रक्रिया समाप्ति के बाद में, हमारे भीतर बदले का शोला भड़कता रहा। तमाम विचार-विमर्शों और कई राउंड टेबल बैठकों में तमाम योजनाओं के धराशायी होने के बाद अंततः हमें एक नारा मिला जो सर्वसम्मति से पास हुआ।

जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि क्रांति में नारों का महती योगदान रहा है, सो हमने साँझ की छुट्टी के समय बुलंद आवाज़ में नारा बुलंद करने की गुप्त योजना बनाई।

छुट्टी हुई। गुरुजी रास्ता पकड़े जा रहे थे। एक कोने में घात लगाए क्रांतिकारियों के दल ने हुँकार भरी—

“गरम पकउड़ी तेल में 
फलनवा साला जेल में”

गुरुजी पलटे, चकपकाए, पलक झपकाएँ, तब तक क्रांतिकारियों का दल फ़ुर्ती के साथ नहर का बीहड़ रास्ता पकड़ चुका था। तब तक इस दल के बालमन मगर वयस्क वाणी को यह ज्ञान नहीं था कि ‘साला’ गाली-गलौज की बगिया में प्रवेश करने का चोर दरवाज़ा है, लिहाज़ा कुछ दिन तक यह गतिविधि अनवरत जारी रही और गुरुजी पकड़ न पाने के शर्मिंदगी के बोझ तले पूरी कक्षा को कूटने की दूसरी महत्त्वपूर्ण योजना तैयार करने में जी-जान से जुट गए।

हम विद्रोह का पहला पड़ाव पूरा करने ही वाले थे कि किसी खार खाए चचा ने घर में चुग़ली कर दी। हम वीरों की टोली जब घर पहुँची तो हमारे स्वागत में हमारी मम्मियाँ दरवाज़े पर खड़ी थीं, (कुछ लोगों के पिता भी)। हमारे ऊपर पहले जलती हुई वाणी का प्रहार हुआ, हमने सुना-सहा, पर जैसे ही क्रोधाग्नि ने अपना भयंकर रुप धारण किया और हम किसी सूक्ष्मजीव की भाँति बस उसमें स्वाहा होने ही वाले थे कि पिता नामधारी जीव ने हमारी रक्षा कर ली। ठीक उसी तरह जैसे हाथी की मगरमच्छ से रक्षा भगवान विष्णु ने की थी।

उस दिन हमने जाना की क्रांति की डगर बड़ी कठिन है। पर चुनना हमें यही है। हम अनवरत हवन करेंगे।

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अगली बेला में जारी...

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