अशोक वाजपेयी : सच्चाई के रूपक
अशोक वाजपेयी
23 जुलाई 2025
समादृत कवि-आलोचक और कला-प्रशासक अशोक वाजपेयी इस बार के ‘हिन्दवी उत्सव’ में कविता-पाठ के लिए आमंत्रित हैं। यहाँ प्रस्तुत है—उनके द्वारा बोले-लिखे जा रहे आत्म-वृत्तांत से कुछ अंश। ये अंश अशोक वाजपेयी और सुपरिचित कवि-गद्यकार-संपादक पीयूष दईया के बीच संवाद से नि:सृत हैं। इस बातचीत में संवादक ने प्रश्न किए, लेकिन प्रस्तुति के क्रम में उन्हें लुप्त कर दिया।
सच्चाई के रूपक
मेरी कविताओं में आते और परम्पर विरोधी लगते युग्म; दरअस्ल, सच्चाई के रूपक हैं। मनुष्य, और कवि की भी सच्चाई, कभी एकरैखिक नहीं होती। एक दिशा में जाने से ऐसा होगा कि उस दिशा में चलते चलेंगे, पर बाक़ी दिशाएँ और उनकी संभावनाओं से अपने को अलग करते चलेंगे। इतिहास और ऐतिहासिक समय की एकरैखिकता, अपने आप में, साहित्य-विरोधी है—इस अर्थ में है कि साहित्य का दिग्बोध, जो उसका लगभग जैविक दिग्बोध है, कई दिशाओं का होगा—वह एकरैखिक नहीं हो सकता। अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता का अंश है :
भीड़ का मत हो डटा रहे
किंतु दिग्विद
पांथ के समुदाय से
तू अकेला मत छूट।
दिग्विद का पंथ अनेक दिशाओं को जानने वाला पंथ है; उससे लेखक या कवि अपने को अलग नहीं कर सकता, नहीं करना चाहिए।
संभावना
मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता हूँ—तथाकथित तर्कवादियों में मैं भी हूँ। लेकिन एक संभावना के रूप में उसे छोड़ भी नहीं सकता। मुझे यह बात बहुत आकर्षित करती है कि यही जीवन एकमात्र जीवन नहीं है, इसी जीवन में कई अनेक जीवन हैं। इस जीवन के इर्द-गिर्द बहुत सारे जीवन हैं; जिनमें चाहे तो जब-तब प्रवेश कर सकते हैं, उससे कुछ निस्बत रख सकते हैं। यही समय के बारे में भी है, कि यही हमारा एकमात्र समय नहीं है। और भी समय हैं और उन समयों से संवाद कर सकते हैं, उनको छू सकते हैं, उनमें जा सकते हैं। इस सबमें अपनी अनिवार्य भौतिक नश्वरता को अतिक्रमित करने का उद्यम है, जिसे मैंने पहले कभी पुनर्भव कहा था। ऐसी कविताएँ हैं; जिनमें नश्वर अंत है, लेकिन उसी कविता के बग़ल में दूसरी कविता नश्वर अंत का अतिक्रमण कर रही है। मैंने अपने पहले कविता-संग्रह का नाम रखते हुए संग्रह को ‘शहर अब भी संभावना है’ कहा था—‘संभावना’ शब्द, एक तरह से, मेरी सारी कविता पर चस्पाँ हो सकता है।
बहुसमयता का बोध
मैं समय-बोध और काल-बोध को अलग-अलग करना चाहता हूँ। काल-बोध से आशय नश्वरता का बोध है। दूसरा ‘समय-बोध’ है, जिसका सीधा आशय समय से है। यहाँ समय और काल के बीच में वैसे ही भेद कर रहा हूँ, जैसे सच और सच्चाई के बीच में भेद करता रहा हूँ। आधुनिक हिंदी साहित्य में काल-बोध अपेक्षाकृत कम है। मुक्तिबोध में काल-बोध के बजाय समय-बोध प्रबल है—उनके यहाँ मृत्यु या अपनी नश्वरता का तीखा एहसास नहीं है और न यह उनकी कविता में व्यक्त हुआ है। दूसरी तरफ़ निराला में अपनी नश्वरता का बोध है—‘आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला मैं अकेला’। शमशेर बहादुर सिंह के यहाँ काल से होड़ है। हिंदी में मृत्यु पर अपेक्षाकृत कम कविताएँ हैं। मैंने कुछ लिखी हैं।
हमारे यहाँ काल-बोध शिथिल है, समय-बोध बड़ा प्रबल है। ज़्यादातर कविता और साहित्य से निकलने वाली समय की मोटी-मोटी अवधारणा ऐतिहासिक समय की है, एकरैखिक समय की है। ऐसे बहुत कम कवि या लेखक मिलेंगे, जिनमें समय का आवर्त्तन या समय एक आवर्त्त है। अज्ञेय के यहाँ है और थोड़ा इधर-उधर मिल जाएगा। लेकिन ऐसा बोध बहुत कम है। हिन्दी साहित्य ने, जानबूझकर या अनजाने, ऐतिहासिक समय को ही समय मान लिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह समय के बारे में भारतीय चिंतन की लंबी परंपरा की अवहेलना करना है। यह समझ में आता है कि परंपरा के अभिप्रायों, अवधारणाओं का पुनराविष्कार तथा प्रश्नांकन हो, लेकिन एक तरह का अज्ञान भी बहुत है। एकरैखिक ऐतिहासिक समय को समय मान लेना जीवन के बहुत सारे स्पंदनों और लयों को अनदेखा करना है, जो हमारे सामान्य दैनिक जीवन में व्याप्त हैं। छोटे-छोटे अनुष्ठान और बहुत सारी चीज़ें हैं, जो समय की ऐतिहासिक धारणा से मेल नहीं खाती हैं और वे साहित्य से भी ग़ायब हैं।
बहुसमयता का बोध ज़रूरी है। हम एक समय में रहते हुए भी कई समयों में रह रहे हैं। किसी भी भारतीय लेखक के लिए बहुसमयता का बोध, मेरे हिसाब से; एक ज़रूरी और पारिभाषिक बोध है, जबकि इसका अभाव है। लेकिन इस कारण यह कहना ठीक नहीं होगा कि आधुनिक हिंदी साहित्य ने महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान साहित्य नहीं रचा, वह रचा गया है—इसमें संदेह नहीं। हाँ, उसके कुछ अभावों की ओर ध्यान नहीं गया है। मैंने अपने स्तर पर थोड़ी-बहुत कोशिश की है कि मैं उत्तराधिकार से अपने को वंचित न करूँ।
समय : काल का प्रतिरोध
दो तरह के एहसास हो सकते हैं। एक एहसास जब मृत्यु का सीधे-सीधे सामना किया और उससे बच गए हों, जैसे कुमार गंधर्व। मैं यह कहता रहा हूँ कि कुमार गंधर्व का बाद का संगीत कालच्छाया में रचा गया संगीत है। वह मृत्यु के बहुत निकट पहुँचकर वापस आ गए थे। यह एक निजी अनुभव के चरम पर पहुँचते हुए एक तरह की कालच्छाया है, लेकिन एक रूपक के रूप में सब काल के आँगन में हैं। हम सबको अंततः मरना है। लेकिन इसका बोध होना अलग बात है। जैसे इसका बोध है कि संसार में हैं—घर, मोहल्ले, पड़ोस, शहर, देश, अंचल, विश्व, ब्रह्मांड में हैं। इसी तरह से हम काल में हैं, काल के दायरे में हैं। जहाँ तक मैं देख पाता हूँ—हिंदी साहित्य में इसका बोध बहुत कम है।
दूसरी तरफ़, यह कहना चाहिए कि काल को अंततः जितना संभव है, समय द्वारा ही स्थगित किया जाता है—यहाँ समय काल की अभिव्यक्ति होने के बजाय उसका प्रतिरोध बन जाता है। समय काल को रोकता है, थामता है।
निजता का स्वीकार
हम सबका निजी समय अलग, विशिष्ट और अद्वितीय है, लेकिन फिर भी हम समय का कुछ न कुछ साझा करते हैं। लेकिन इस साझेपन और इससे संभव होते संप्रेषण को अगर इतना महत्त्व देने लगें और उसका साहित्य और विचार में इतना वर्चस्व हो जाए कि इस बात की सुध तक न रहे कि आपका एक निजी समय है, जो अद्वितीय ही नहीं बल्कि कई अर्थों में असंप्रेषणीय भी है, तो ठीक नहीं है। दुर्भाग्य से, हमारे साहित्य में, यही हुआ है—ख़ासकर प्रगतिशील, जनवादी दौर में। जहाँ यह मान लिया गया कि जो कुछ साझा किया जा सकता है वही सच्चाई है और जो कुछ साझा नहीं किया जा सकता है, वह अगर सच्चाई है भी, तो उसका साहित्य में कोई महत्त्व नहीं है। आख़िर निजीपन की—हमारे साहित्य में, हमारी निजता की इतनी अप्रतिष्ठा क्यों है? निजता का एक स्वीकार यह है कि लगे कि हाँ इस लेखक का एक निजी मुहावरा, निजी शैली है—इसकी प्रशंसा होती है, लेकिन लेखक निज के जीवन पर ध्यान दें और उसको चरितार्थ करने की चेष्टा करें, तो उसकी निंदा होगी। दशकों तक मेरी निंदा होती रही कि मेरा निजता पर आग्रह है—यह अर्थ निकाला गया कि मैं सामाजिक यथार्थ की अवहेलना कर रहा हूँ, जबकि यह सही नहीं था।
काल कोष से शब्द
मानवीय जीवन का एक ध्रुवांत काल है। अंततः यह ध्रुवांत भी एक जैसा नहीं हो सकता। मरते हुए व्यक्ति का अपना अनुभव है; जितना भी हो, वह उसको कभी व्यक्त नहीं कर पाता। इसके लिए समय ही नहीं मिलता। आख़िर वह अनुभव कहाँ जाता है? वह कहाँ बचता है? मैंने ऐसी कल्पना की है कि काल के पास भी एक कोष होगा, कि काल एक कोष है, जिसमें सहस्त्रों अद्वितीय अनुभवों का संग्रह है। इस संग्रह से एक शब्द उठा लिया। कोरोना के दौरान लिखी गई एक कविता का अंश है :
मैं इस तरह लिखता हूँ
काल कोष से उठाता हूँ शब्द
उस समय सभी पर कालच्छाया कुछ ज़्यादा ही काली होकर बैठ गई थी।
कवि की मुश्किल
हर कवि के सामने यह मुश्किल आती है कि उसके लिखने का एक तरीक़ा, एक ढर्रा बन जाता है। वह जैसे ही लिखने बैठता है, वैसे ही वह ढर्रा अपने आप काम करने लगता है। यह समस्या आती है कि कई बार ऐसे अनुभव होते हैं जो उन ढर्रों से ठीक से बँध नहीं पाते—उनकी विशिष्टता और विवरण ठीक उसी तरह से व्यक्त नहीं किए जा सकते; जैसे पहले करते आए हैं, जिसका अभ्यास रहा है। यह अभ्यास बिल्कुल छूटता भी नहीं है; क्योंकि आप ही ने उस तरह की कविता लिखी है, किसी और ने नहीं लिखी है। एक दिन आप तय करते हैं कि पहले की तरह लिखी गईं कविताएँ भाड़ में जाएँ, अब मैं बिल्कुल नए क़िस्म की कविता लिखूँगा। ऐसा कई कवियों ने किया है और अच्छी कविता भी लिखी है। लेकिन ऐसा करना बहुतों के लिए संभव नहीं होता। मेरे लिए भी संभव नहीं है।
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‘हिन्दवी उत्सव’ से जुड़ी जानकारियों के लिए यहाँ देखिए : हिन्दवी उत्सव-2025
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