जब तक संपूर्ण मनुष्य को लेकर हम न चलेंगे, तब तक उसके किसी एक ही अंश को सर्वप्रधान बनाकर हम संपूर्ण को खंडित कर देंगे। जब तक हम आज के युग के पीड़ित मनुष्य की संपूर्ण आत्मसत्ता का चित्रण नहीं करते, उसके वास्तविक सुख-दु:ख, उसके संघर्षों और आदर्शों का अंकन नहीं करते, उसके अनिवार्य भवितव्य और कर्त्तव्य का मार्ग प्रशस्त नहीं करते, तब तक नई कविता का कार्य अधूरा है।