जब भावना-प्रधान प्राणी बाह्य वास्तविकता की ओर मुड़ता है और अपनी सहज ईमानदारी के वशीभूत होकर उसके प्रति अपने को ज़िम्मेवार ठहराता है, तभी से उस साहित्य की उत्पत्ति होती है, जिसे हम आदर्शवादी साहित्य कह सकते हैं क्योंकि वह जीवन पर सोचने लगता है। जीवन की ट्रेजेडीज, उसके विरोध और विसंगतियाँ, उसके मन में बैठ जाती हैं।