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संत शिवदयाल सिंह

1818 - 1878 | आगरा, उत्तर प्रदेश

'राधास्वामी सत्संग' के प्रवर्तक। सरस और हृदयग्राह्य वाणियों के लिए प्रसिद्ध।

'राधास्वामी सत्संग' के प्रवर्तक। सरस और हृदयग्राह्य वाणियों के लिए प्रसिद्ध।

संत शिवदयाल सिंह के दोहे

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बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।

और कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥

जीव जले विरह अग्नि में, क्यों कर सीतल होय।

बिन बरषा पिया बचन के, गई तरावत खोय॥

क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन।

गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई पावे चैन॥

मैं तड़पी तुम दरस को, जैसे चंद चकोर।

सीप चहे जिमि स्वाति को, मोर चहे घन घोर॥

गुरु भक्ति दृढ़ के करो, पीछे और उपाय।

बिन गुरु भक्ति मोह जग, कभी काटा जाय॥

एक जन्म गुरु भक्ति कर, जन्म दूसरे नाम।

जन्म तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निजधाम॥

मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट।

झीने बंधन चित्त के, कटें नाम परताप॥

काल मता वेदांत का, संतन कहा बनाय।

सत्तनाम सतपुरष का, भेद रहा अलगाय॥

जिन सतगुरु के बचन की, करी नहीं परतीत।

नहि संगत करी संत की, वह रोवें सिर पीट॥

बिन सत गुरु सतनाम बिन, कोई बाचे जीव।

सत्त लोक चढ़कर चलो, तजो काल की सीव॥

गुप्त रूप जहँ धारिया, राधास्वामी नाम।

बिना मेहर नहिं पावई, जहाँ कोई विश्राम॥

राधास्वामी गाय कर, जनम सुफल कर ले।

यही नाम निज नाम है, मन अपने घर ले॥

सन्त दिवाली नित करें, सत्तलोक के माहिं।

और मते सब काल के, यों ही धूल उड़ाहिं॥

राधास्वामी रक्षक जीव के, जीव जाने भेद।

गुरु चरित्र जाने नहीं, रहे करम के खेद॥

जिनको कंत मिलाप है, तिनं मुख बरसत नूर।

घट सीतल हिरदा सुखी, बाजे अनहद तूर॥

संत दिवाली नित करें, सतलोक के माहिं।

और मते सब काल के, योहिं धूल उड़ाहिं॥

भव सागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर|

नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोई सूर॥

अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न।

शब्द छनाहू पाइया, भँवरगुफा की धुन्न॥

मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट।

झीने बंधन चित्त के, कटें नाम परताप॥

मोटे जब लग जायं नहिं, झीने कैसे जाय।

ताते सबको चाहिये, नित गुरु भक्ति कमाय॥

मोटे जब लग जाय नहिं, झीने कैसे जाय।

ता ते सब को चाहिये, नित गुरुभक्ति कमाय॥

राधास्वामी नाम, जो गावे सोई तरे।

कल कलेश सब नाश, सुख पावे सब दुख हरे॥

बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।

और कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥

वेद बचन त्रैगुन विषय, तीन लोक की नीत।

चौथे पद के हाल को, वह क्या जाने मीत॥

यह करनी का भेद है, नाहीं बुद्धि विचार।

बुद्धि छोड़ करनी करो, तो पाओ कुछ सार॥

संत दया सतगुरु मया, पाया आद अनाद।

गत मत कहते ना बने, सुरत भई विस्माद॥

लोक वेद में जो पड़े, नाग पाँच डस खाय।

जनम-जनम दुख में रहें, रोवें और चिल्लाय॥

हक्क़ हक्क़ सतनाम धुन, पाई चढ़ सच खंड।

संत फ़क़र बोली जुगल, पद दोउ एक अखंड॥

गुप्त रूप जहाँ धारिया, राधास्वामी नाम।

बिनो मेहर नहिं पावई, जहाँ कोई बिसराम॥

कोटि कोटि करूँ बंदना, अरब खरब दंडौत।

राधास्वामी मिल गये, खुला भक्ति का सोत॥

सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया जाय।

देह रूप मिथ्या तजा, सत्त रूप हो जाय॥

संत मता सब से बड़ा, यह निश्चय कर जान।

सूफ़ी और वेदांती, दोनों नीचे मान॥

सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया जाय।

देह रूप मिथ्या तजा, सत्तरूप हो जायं॥

जब आवे सुत देह में, देह रूप ले ठान।

जब चढ़ उलटे सुन्न को, हंस रूप पहिचान॥

सतगुरु संत दया करी, भेद बताया गूढ़।

अब सुन जीव चेतई, तौ जानौ अतिमूढ़॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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