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अंबिकादत्त व्यास

1858 - 1900 | जयपुर, राजस्थान

'भारतेंदु मंडल' के कवियों में से एक। कविता की भाषा और शिल्प रीतिकालीन। 'काशी कवितावर्धिनी सभा’ द्वारा 'सुकवि' की उपाधि से विभूषित।

'भारतेंदु मंडल' के कवियों में से एक। कविता की भाषा और शिल्प रीतिकालीन। 'काशी कवितावर्धिनी सभा’ द्वारा 'सुकवि' की उपाधि से विभूषित।

अंबिकादत्त व्यास की संपूर्ण रचनाएँ

दोहा 2

गुंजा री तू धन्य है, बसत तेरे मुख स्याम।

यातें उर लाये रहत, हरि तोको बस जाम॥

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मोर सदा पिउ-पिउ करत, नाचत लखि घनश्याम।

यासों ताकी पाँखहूँ, सिर धारी घनश्याम॥

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सवैया 1

 

कवित्त 3

 

कुंडलियाँ 3

 

उद्धरण 1

पुनः हिमालय के शिखर पर और समुद्र के तट पर भारतवासियों की विजय पताका फहराए और भारतीयों की भेरी का शब्द फ़ारस-वासियों अरबों, कम्बोज देशवासियों, त्रिवृत्तदेशवासियों, चीनियों, बर्मावासियों, तथा सिंहलदेश-वासियों के कानों तक पहुँचे।

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