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ज़िंदगी के रंगों को धुँधला करता ख़ालीपन

ज़िंदगी—ख़ालीपन को भरने का दूसरा नाम भी है। हर व्यक्ति को अपनी ज़िंदगी में पूरा सम्मान और प्रेम पाने की आकांक्षा होती है लेकिन ज़िंदगी कुछ भी पूरा नहीं देती। कुछ अधूरा-सा छूट जाता है। इस ‘कुछ अधूरा-सा छूटना’ या बने रहना कोई सामान्य-सी बात नहीं होती, वह मन के कोने में गाँठ की तरह बन जाता है जो धीरे-धीरे मनुष्य को ख़ालीपन की तरफ़ ले जाता है।

हम ऐसी स्थिति में अपने भीतर बैठे ख़ालीपन को भरते कैसे हैं, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। और इसी से आगे हमारा व्यक्तित्व भी तय होता है।

अपने ख़ालीपन को कोई मनुष्यता के दायरे में भरता है तो कोई एकाएक मनुष्य विरोधी हो जाता है।

बचपन में भी हम ख़ालीपन से गुज़रते हैं लेकिन उसमें मासूमियत होती है और हम दुनियावी कुटिलता से अनजान होते हैं। फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हमारे मन-मस्तिष्क में सांसारिक दाँव-पेंच कुलाँचे भरना शुरू कर देते हैं।

ख़ालीपन को भरने की प्रक्रिया जटिल होती है। हम समय पर इसे सँभाल नहीं पाते और कुछ अलग ही व्यक्ति बनते चले जाते हैं और जिसमें सहजता, शालीनता और संवेदनशीलता जैसे गुण लुप्त होते जाते हैं। स्वार्थ और व्यग्र निजता हमें सभी के प्रति कठोर बना देती है लेकिन वहीं हमारे भीतर की कोमलता, संवेदनशीलता, तरलता हमें कला सौंदर्य की तरफ़ आकृष्ट भी करती है। कला जो हमारे जीवन में रंग भर सकती है, उसकी तरफ़ भी उन्मुख करती है, हमारे भीतर जन्मती ख़ालीपन की लकीर।

जीवन में ख़ालीपन मनुष्य के साथ चलने वाली एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। दरअस्ल इस प्रक्रिया को हम अपनी-अपनी ज़िंदगी में कैसे बरतते हैं, कैसे उसका क्रियान्वयन करते हैं, सब कुछ इसी पर निर्भर करता है। हमारे ख़ालीपन से हो सकने वाली या बन सकने वाली प्रवृत्ति का केंद्रबिंदु यह प्रक्रिया ही है।

हमारे अंतर का ख़ालीपन अक्सर कुंठा में भी बदल जाता है। यदि समय रहते उसे थाह नहीं पाते और परस्पर संवाद से उसका उपचार नहीं कर लेते। यानी अपने मन को बाँटना और उस गाँठ को खोलना ही इस ख़ालीपन की एक चिकित्सा है जो हमें अपनी रिक्ति को भरने या किसी गहरे अवसाद को थामने में कारगर हो सकती है।

साहित्य में—नाटक में यह ख़ूबी होती है कि वे मनुष्य के भावों का विरेचन करते चलते हैं। अरस्तू द्वारा निर्दिष्ट विरेचन व्यक्ति के भीतर के त्रासद भावों का शमन कर उसे स्फूर्त करता है। तब जब वह किसी नाटक की प्रस्तुति में अभिनीत चरित्र से सामंजस्य कर अपने आगत-विगत को भूल जाता है।

संगीत, नृत्य या चित्रकलाएँ हमारे अंतर के ख़ालीपन को भरकर हमें आश्वस्ति की तरफ़ ले जाते हैं। हम हृदय की कलुषता और उसके ख़ालीपन से बनने वाली कुंठा से बाहर निकल जाते हैं।

बहुधा हम देखते हैं कि मनुष्य की ज़िंदगी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा इस ख़ालीपन को भरने का प्रयास ही है।

ख़ालीपन शब्द संकुचित अर्थ में नहीं लिया जा सकता, उसी तरह जैसे पाप और पुण्य में एक हल्की लकीर खिंच जाते ही पूरा चरित्र ही बदल जाता है। ठीक वैसे ही ख़ालीपन एक सचेतन प्रक्रिया है, संकुचन नहीं।

इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं माना जा सकता है कि अपने जीवन में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति में ख़ालीपन नहीं पाया जाता। ख़ालीपन को विश्लेषित करने की यह एक सतही समझ है।

सच तो यह है कि मनुष्य के अंदर ख़ालीपन किसी भी उम्र में जन्म ले सकता है या हो सकता है। उसका जीवन प्रेम पाने की छटपटाहट में बीत सकता है तो कभी व्यवसायिक, साहित्यिक सफलता या सम्मान के लिए और यह सब जब अलग-अलग रूपों में हो तो उसमें भी संतुष्टि नहीं मिलती। जैसे—जहाँ सिर्फ़ प्रतिष्ठा हो पर स्नेह नहीं, तो यहाँ मशीनीकरण की बू आती है। 

यह भी देखा जाता है कि हम प्रशंसा के इतने भूखे होते हैं कि दूसरों पर हमें अपनी सोच थोपने की बीमारी होती है। उसे पूरा न होते देख हम उस उस व्यक्ति से नफ़रत करने लगते हैं जिसने भी उस मनोकांक्षा का पालन न किया हो या प्रक्रिया में खलल डाला हो। अब यह अलग तरह की कुंठा बन जाती है जो हमारे ख़ालीपन से ही उपजती है।

हम अपनी बेतुकी ज़िदों पर अड़े रहते हैं तिल भर, अपने कहे से पीछे हटने को तैयार नहीं होते। हाँड़ माँस का व्यक्ति एकाएक अपनी ख़ुशी, अपने क्षणिक सुख के लिए बहुतों की ज़िंदगी को ख़तरे में डाल देता है।

जब आपका ख़ालीपन किसी को बर्बाद करने लगे, लोगों को अपने झूठे समूह में शामिल करने लगे, तो आप मनुष्य विरोधी और दूसरे शब्दों में अराजक होते जाते हैं। यह स्थिति भयानक होती है।

हम जानते हैं दुनिया की सबसे ख़तरनाक क्रिया मनुष्य विरोधी होना ही है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अंत तक मनुष्य बचे रह पाते हैं कि नहीं! 

झूठ, दिखावा और सब्ज़बाग़ कुछ लोगों पर इतना हावी हो जाता है कि दूसरे व्यक्ति के हँसने, रोने, बुरा मानने की उसकी ख़ुद की स्थिति को, वो नियंत्रित करने लगते हैं। 
किसी को हथियाने या किसी पद को प्राप्त करने की प्रक्रिया में वे कुटिल से कुटिलतर होते जाते हैं।

आख़िर हम अपना वर्चस्व क्यों क़ायम रखना चाहते हैं? आज तक कौन है जिसके सिर्फ़ प्रशंसक हों? कोई बताए अमरता इस संसार में किसे प्राप्त है?

हम अक्सर सही और ग़लत की परिभाषा में उलझे रहते हैं, जैसे हम जानते हैं सौंदर्य आकर्षण पैदा करता है लेकिन आप उस सौंदर्य से शोषण तक पहुँच जाएँ और शोषण को सही साबित करने के चलते जानवर बन जाएँ...! 

दूसरी तरफ़ आप ‘अपराध’ को व्यक्ति विशेष के बचाव में अपराध ही न मानें! अब सोचें इसमें सही और ग़लत क्या है।

हमारे बने बनाए दृष्टिकोण पर दुनिया नहीं टिकी है। कई संबंधों और उसमें भी स्त्री-पुरुष संबंधों को देखते ही हमारा सदियों से भरा दिमाग़ एक अलग तरह ही रिएक्ट करता है; एक घंटी बजती है उनके दिमाग़ में—टुन्न! और वे अपना निष्कर्ष सौंप कर चले जाते हैं।

अपने ख़ालीपन से आक्रांत दूसरों के जीवन को हतभाग करने पर तुले रहते हैं।  

ये नकारात्मक प्रवृत्तियाँ मनुष्य के भीतर के अवसाद से उपजती हैं, जिसमें वह सबको अपनी ही नज़र से देखने का आदी हो जाता है। और मान बैठता है वह सही, बाक़ी ग़लत।

एक स्त्री का इस धरती पर जो देय माना गया है, उसके इतर कार्य करती स्त्री स्वीकार्य नहीं, वो सामान्य ही नहीं...! यह सोच हमारे समय की सबसे बड़ी व्याधि है। इसमें अप्रेम और अंतर के ख़ालीपन से उपजे छिछलेपन की भारी भूमिका है।

हम चाहत और प्राप्य के द्वंद्व में उलझे रहकर असल जीवन जीना भूल जाते हैं, जिसके कारण हमसे असहमत हुआ व्यक्ति हमें अपना शत्रु नज़र आने लगता है। 

ज़िंदगी ख़ूबसूरत है—इसे प्रेम से जीना और अपनी रिक्ति को संसार के आसंग से भरना सीखना चाहिए हम सबको। इसलिए आवश्यक है कि अपने ख़ालीपन को भरने के लिए थोड़ा अपना विस्तार करें और अपने से बाहरी दुनिया को भी देखें, समझें।

इसका समाधान हम ख़ुद हो सकते हैं, यदि हम अपने आपको और मानवीय बनाएँ, अपने एकांत को ख़ुद से जोड़ें, अपना कमरा तैयार करें अपना विचार सुंदर बनाएँ। अपने स्थान को ख़ुद चुनने का माद्दा रखें।

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