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विपश्यना जहाँ आँखें बंद करते ही एक संसार खुलता है

एक

Attention is the new Oil

अरबों-करोड़ों रुपए इस बात पर ख़र्च किए जाते हैं कि हमारे ध्यान का कैसे एक टुकड़ा छीन लिया जाए। सारा बाज़ार, ख़ासकर वर्चुअल संसार दर्शक (पढ़ें : ग्राहक) के इस ध्यान को भटकाने के लिए और अपनी ओर खींचने के लिए जटिलतम गणनाओं में व्यस्त है। हमारा यह भटकाव ही आर्थिक प्रतिष्ठानों का अवसर क्षेत्र है। 

सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, ख़बरों के आउटलेट और विज्ञापन सभी हमारे समय और एकाग्रता के क़ीमती क्षणों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। हमारा ध्यान इस बात को तय करता है कि हम क्या देखते हैं, क्या ख़रीदते हैं और यहाँ तक कि हम कैसे सोचते हैं।

जे. कृष्णमूर्ति के जाने कितने ही प्रवचनों में बात यहाँ से शुरू होती है कि ध्यान क्या है और इसे कैसे करें? किसी छुटपुट इशारे को अगर छोड़ दें तो उनका सारा ज़ोर इस बात पर रहता था कि ध्यान क्या नहीं है। उन्हें भान था कि हम बहुत चालाकी से ध्यान को भी दैनिक जीवन में काम आने वाले एक ऐसे सुविधापूर्ण साधन में बदलना चाहते हैं, जो पूरी ज़िंदगी के तवाज़ुन को छेड़े बग़ैर हमें मानसिक स्थिरता दे दे। 

जीवन जैसा चलता है, चलता रहे और साथ ही हम दरवेश भी बने रहें। ख़ासकर नव-आध्यात्मवाद के 'कल्चर' में ध्यान और साधना का यह क्रैश कोर्स अपनी उपयोगिता में ख़ूब फल-फूल रहा है, लेकिन ध्यान-साधना का महत्त्व है, भले ही यह जीवनशैली न हो। दैनिक जीवन की एक सुविधा में घटाने के बावजूद इसका महत्त्व कम नहीं होता। 

विपश्यना ऐसी ही एक ध्यान प्रणाली है, जिसमें ध्यानाभ्यास करने वाले व्यक्ति को अपनी मानसिक और भावनात्मक स्थितियों का साक्षात्कार करने का अनुभव होता है। इस प्रणाली में ध्यानार्थी अपनी संवेदनाओं को स्थिर रूप से देखने और समझने का प्रयास करता है।

दस दिनों तक प्रतिदिन अलग-अलग हिस्सों में लगभग साढ़े दस घंटे ध्यान करना, आर्य-मौन का पालन करना, संयमित खान-पान, जल्दी जागना-जल्दी सोना, ध्यानावस्था में नियमित बैठने का अभ्यास करना और इसी तरह के क्रम पर विपश्यना के इस दस दिवसीय शिविर के बारे में जहाँ-तहाँ ढेरों जानकारियाँ उपलब्ध हैं। 

लेकिन यह जानकारियाँ ही पहली बार विपश्यना शिविर जा रहे व्यक्ति की यात्रा का रोड़ा हो सकती हैं, क्योंकि यह पूर्वाग्रह का सबब हो सकती हैं। सब पहले से जान लेने और बहुत तैयार रहने की यह इच्छा भी अवरोध हो सकती है।

उदाहरणार्थ, नज़दीक ही एक पत्रकार-संपादक को उनकी वैचारिक पूर्वधारणाओं, बौद्धधर्म, नवयान तथा सामाजिक न्याय जैसे विषयों में उनके अनुभव और रुचि ने उनके विपश्यना को देखने के दृष्टिकोण को प्रभावित किया। वहाँ कुछ उनके अनुरूप नहीं था और वह दस दिवसीय शिविर से चौथे दिन ही बाहर आ गए।

इस सीमा और विडंबना के बावजूद कहूँ तो ताबीज़, गंडे, रक्षासूत्र, तिलक और बाक़ी सभी भिन्न-भिन्न अस्मिताओं के प्रतीक, चिह्न और कर्मकांड विपश्यना शिविर के समक्ष अप्रभावी हैं। यह शिविर या दस दिवसीय ध्यानाभ्यास; बहस, बातचीत, चर्चा, तर्क-कुतर्क और पांडित्य के शग़ल से बहुत सुरक्षित दूरी पर है। 

यहाँ प्रवचन का अधिकतम अर्थ ध्यान करने की प्रणाली और विधि पर हिदायत है। विपश्यना यानि—देखना। देखना और सोचना नहीं, देखना और बोलना नहीं, देखना और जताना नहीं, देखना और सुझाना नहीं। केवल देखना।

लेकिन क्या देखा जाए, क्यों और कैसे?

दो

आँखें दृश्य नहीं, दृश्य का अर्थ देखती हैं।

यह संसार आँखों के लिए लगभग बासी है क्योंकि हम स्मृति की आँख से देखते हैं। हम फूल को फूल और आसमान को आसमान नहीं देख पाते। क्या यह अपरिहार्य मजबूरी है?

हम अपने ही दोहराव की सद-हज़ारवीं नक़ल हैं, या उससे भी कहीं अधिक। दिन या रात कितने भी नए हों, हम अपनी स्मृतियों के सूरज-चाँद ही दोहराते रहते हैं। खिड़की से बाहर देखते-देखते हम भीतर देखने लगते हैं और खिड़की के बाहर का दृश्य गौण हो जाता है।

सोने से जागने के बीच हमारे सारे क्रियाकलाप स्मृति और प्रतिक्रियायों से संचालित हैं। हम आदतों का एक दैनिक क्रम हैं। इतने अधिक परिचित कि पूरी तरह अजनबी।

तीन

मुँह से निकली हर बात जूठी है।

—रामकृष्ण परमहंस

विपश्यना में चुप का महत्त्व है। यह चुप्पी केवल मुँह की चुप्पी नहीं है, इसीलिए इसे मौन नहीं आर्य-मौन कहा गया। यह पूरे शरीर की चुप्पी है। मुँह चुप रहे तो इशारे बोलते हैं, आँखें बोलती हैं। 

भाषा विचारों को अभिव्यक्त नहीं करने का भी साधन है। सब कुछ बोला हुआ अभिव्यक्ति नहीं है, जो बोला जाता है उसमें अधिकतम या तो प्रतिक्रियाएँ हैं या दिशाहीन अतिचिंतन को मिली हुई आवाज़। कई दफ़ा हम 'देखने' से साफ़ बचते हुए 'बोलने' में आश्रय पाते हैं।
 
चार

साँस-उसाँस को देखना, आँख बंद कर के। बस इतना ही। इतना ही सरल, इतना ही कठिन।

आँख बंद करते ही एक संसार खुलता है।

‘एक मंज़र है यहाँ अंदर कि बाहर देखिए’

क्षण भर में ध्यान टूटकर कहीं और जाता है और इसी साँस को आते-जाते देखने और कुछ और न देख सकने की सिफ़त हासिल करने में दिन निकल जाते हैं। जो सबसे निकट है वही सबसे धुँधला।

हमें समय लगता है, इतना ‘देख’ सकने में जाती साँस ठंडी होती है और आती हुई कुछ गर्म। यह जो साँस का अर्थ खुला है, वह बाहर से आया हुआ अर्थ नहीं है। यह पढ़कर, सुनकर, विरासत में मिला हुआ अर्थ नहीं है। इसी साँस को देखना धीरे-धीरे विस्तृत होकर पूरे शरीर को देखने में बदल जाता है। जहाँ त्वचा या उसके भीतर उठते सभी संवेग, संवेदना, अनुभूति को बस ‘देखते’ रहना है। 

देखते रहने के क्रम का अर्थ आगे चलकर अधिक जटिल रूप को देखना है, जहाँ जिसे क्रोध, पीड़ा, दुख आदि हैं। सिद्धार्थ ने दुख को न जाने कितने लंबे समय तक देखा होगा कि उसके लिए दुख केवल एक तरंगों के गुच्छे में बदल गया होगा।

पाँच

कभी प्रतीकात्मक तरीक़े से उत्तरआधुनिकता के सांस्कृतिक आघात के लक्षणों की तुलना सीज़ोफ्रेनिया से की गई थी, जहाँ “अर्थ को संयोजित और व्यवस्थित करने की कड़ियाँ टूट जाती हैं” वहीं हमारे समय का दूसरा लक्षण एकाग्रता और एकाग्रता की क्षमता का भीषण क्षय है।

अहमद हामदी तानपीनार के उपन्यास का एक पात्र कहता है कि ‘सायकोएनालिसिस’ के जन्म के बाद कोई नहीं कह सकता कि वह स्वस्थ है; अर्थात् हम सब किसी न किसी अर्थ में बीमार हैं। स्वस्थ रहना स्पेक्ट्रम में एक स्थिति का नाम है। कोई पूरी तरह से स्वस्थ नहीं है।

मैं भभूतियों और ताबीज़ों के बाज़ार से बचता हूँ, जिसे सेल्फ़-हेल्प या माइंडफ़ुलनेस कहते हैं। जहाँ स्वस्थ होने को लेकर होड़ और मेरिटोक्रेसी है। लोग इलाज खोजते हुए कराह रहे हैं और इलाज खोजते हुए बीमार हो रहे हैं। 

हमारे समयों में अवसाद और चिंताविकार चरम पर हैं। संभव है कि इस चरम की जड़ें सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों, परिवेश और संरचनाओं में निहित हों लेकिन वह अकादमिक शोध का विषय है।

छह

जिन विकृत स्मृतियों को काँधे पर लेकर वर्षों घूमा, उन्हें देखते-देखते ही भंगुर होता पाया और वही नियति अतिरंजित और आनंददायी स्मृतियों की भी हुई। विपश्यना के शिविर में मैं कितना भी सामान लेकर गया, बाहर अपनी साँस देखते हुए लौटा। साँस पर लौटना घर लौटना है। साँस ही आँख है और साँस ही चश्मा।

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