दिल्ली नायकों की आस में जीती है और उन्हीं की सताई हुई है
निशांत कौशिक 02 अगस्त 2024
जिस तरह निर्मल वर्मा की सभी कृतियाँ बार-बार ‘वे दिन’ हो जाती हैं, कुछ उसी तरह मुझे भी इलाहाबाद के वे दिन याद आते हैं।
— ज्ञानरंजन
एक
...और मुझे दिल्ली के ‘वे दिन’ याद आते हैं, और बेतरतीब याद आते हैं जब लप्रेक, माइक्रो और सूक्ष्म शैली की कहानियाँ शुरू हो गई थीं। मैं ग्रेजुएशन के लिए जामिया मिल्लिया इस्लामिया पहुँचा था। मौसम पर दिल्ली दरबार से लेकर आज तक लोग उतना ही खीझ रहे थे, भद्रलोक तब भी उतना ही ‘कन्सर्न्ड’ था। दिल्ली के बाहर न इतिहास पाठ्यक्रम झाँकता था न इतिहासकार।
यमुना में इतना झाग नहीं था।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, कलकत्ता के हेस्टिंग्स की तरह नदी से लगे छावनी के मुख्यालय की तरह दिखता था। डिप्टी नज़ीर अहमद की दिल्ली का रोमांस अपनी जगह, गली क़ासिम जान के नुक्कड़ का घटिया पान अपनी जगह। चावड़ी बाज़ार के रिक्शेवालों को देखकर लगता था कि अभी बोल पड़ेंगे—“बचो खालसाजी, हटो भाईजी, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा”।
लेकिन गुलेरी के बंबू कार्ट के इक्केवालों की ज़बान वाली अमृतसरी नमी और नम्रता यहाँ नहीं थी। इस शहर का इतिहास साम्राज्यों को पचाने और पटक देने का है। दिल्ली नायकों की आस में जीती है और उन्हीं की सताई हुई है। क्रम आज भी ज़ारी है।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया की इमारतों में इतिहास बहुत था, रहस्य कम। मुझे सपाट चीज़ें उबा देती हैं इसीलिए बार-बार विश्वविद्यालय से बाहर भागता था। फिर भी कुछ जगहों के नाम बहुत आकर्षित करते थे जैसे; गुलिस्ताने ग़ालिब, गुलशने ख़ुसरो, दबिस्ताने-ज़ाकिर। सराय जुलैना से महारानी बाग़ के रास्ते में तैमूर नगर पड़ता था। तैमूर नगर से तैमूर-लंग का कोई नाता नहीं। बल्कि इस जिज्ञासा से सराय जुलैना में जुलैना का अर्थ ज़रूर खुल गया था।
जामिया में उर्दू एक अनिवार्य विषय था। सहपाठियों में से कई अपनी ही लिखी उर्दू वापिस नहीं पढ़ पाते थे। उनका यह भरम भी जाता रहा कि ग़ालिब को समझने का असल रोड़ा उर्दू या फ़ारसी है। उस्मानी तुर्की पढ़ते हुए पहली बार उरूज़, बह्र या छंदशास्त्र से परिचय हुआ। दोस्त को एक दिन झल्लाते हुए बोला कि पता होता कि इतना कठिन है यह विषय तो कैल्कुलस पढ़ लेता। दोस्त ने पूछा, आर यू श्योर अबाउट कैल्कुलस?
दो
इस बात का सत्यापन न ज़रूरी है न ही संभव कि अकबर-बीरबल कथाओं के ‘क़िस्सा-कल्चर’ में अकबर के हाथ से एक दुर्लभ इत्र ज़मीन पर गिर गया था, जिसे बीरबल ने देख लिया था और शर्मसार अकबर ने इसकी ‘भरपायी’ के लिए इत्र के हौज़ बनवा दिए। बीरबल ने उन्हें बताया कि बूँद से गया, हौज़ से वापिस नहीं आता।
हौज़-ख़ास से इस बात का कोई लेना देना नहीं है।
हौज़-ख़ास के पास हौज़-आम ढूँढ़ना या कनॉट प्लेस के पास झुग्गियाँ ढूँढ़ना बढ़िया शग़ल है। मुझे उसके पुरानेपन में कोई दिलचस्पी नहीं है। ऐसी अतीतलिप्त जगहें इसीलिए भी ख़ास होती हैं कि वह छिप सकने और चुप होने का भरपूर मौक़ा देती हैं, जिसकी उस वक़्त सख़्त ज़रूरत थी।
हौज़-ख़ास और ग्रीन पार्क ही ख़ान मार्किट की ओर इशारा करते थे। उस वक़्त ‘ख़ान-मार्किट गैंग’ पद चलन में नहीं था। इस नाम से सिर्फ़ केंद्रीय सचिवालय से ख़ान मार्किट मेट्रो का तीन मिनिट लंबा रन, ख़ान-चाचा की बिरयानी और फ़क़ीरचंद बुक स्टोर पता था। लेकिन यह कोई चमकीली और ख़ास जगह थी, क्योंकि यहाँ से भद्रलोक के लगभग सभी रास्ते खुलते थे।
मैं बदरपुर बॉर्डर, आज़ादपुर मंडी और नजफ़गढ़ कभी नहीं गया। मैं हर उस जगह नहीं गया या नहीं जा सका जिसके लिए उत्तरी-दिल्ली, पश्चिमी-दिल्ली और दक्षिणी-दिल्ली जैसे स्थानसूचक शब्द इस्तेमाल किए जाते थे। मैं चिराग़-दिल्ली गया और सराय काले-खाँ भी।
तीन
जामिया में आज की ही तरह छात्र-राजनीति प्रतिबंधित थी। मदन गोपाल सिंह का कार्यक्रम था और एम. के. रैना संचालन कर रहे थे। कार्यक्रम के समाप्त हुए कुछ ही समय हुआ था। छात्रों के समूह में से एक युवक ने एम. के. रैना की ओर उन्हें छात्रों की समस्यायों पर परचा थमाने के लिए दौड़ लगाई। सामने गार्ड को आता देख वह सकपका गया और परचा निगल गया।
‘अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में’
हालाँकि गार्ड सिर्फ़ खैनी खाने के लिहाज से उस किनारे अँधेरे में आया था। छात्र ने रैना जी से हाथ मिलाया और कहा—“के. के. सर आप ने ‘तारे ज़मीं पर’ में भी बहुत अच्छी एंकरिंग करी थी।”
हमने इस प्रसंग के बहुत दिनों बाद ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ देखी, उसके बाद के. के. रैना और एम. के. रैना के नाम को लेकर कभी उलझन नहीं हुई।
चार
अपनी किताब ‘ज़रगुज़श्त’ के अँग्रेज़ी अनुवाद पर बोलते हुए मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी ने कहा था कि ‘तर्जुमे का अमल ऐसा ही है जैसे अच्छे जमे हुए मलाईदार दही से दुबारा दूध बनाना।’
जामिया में मैंने ढेरों अनुवादक देखे। जो बारामासी अनुवाद करते थे। अनुवाद का बहुत काम तो छात्र-जीवन की गुज़र-बसर के लिए होता था जिसमें गुणवत्ता बहुत नहीं लेकिन गति थी। हर रोज़ होते सनसनीखेज़ उत्तरआधुनिक ख़ुलासों और नव-वाम के नए-नए व्याख्यानों की प्रतियाँ किताबों की दुकानों के बाहर सप्लीमेंट की तरह बीस-बीस रुपए में बिकती थीं।
इनका हर रोज़ अनुवाद होता और कुछेक पैसों का जुगाड़ भी होता रहता। मैं अमृतराय के ‘आदिविद्रोही’ से आतंकित था, शरद चंद्रा द्वारा अनूदित कामू की कहानियों ‘निर्वासन और आधिपत्य’ से चिढ़ा हुआ और राजेंद्र यादव के अनुवाद ‘अजनबी’ पर फ़िदा था। अल्बेयर कामू के ‘अजनबी’ की शुरूआती पंक्तियों में ‘Black’ का ज़िक्र है, जिसे राजेंद्र यादव ने हिंदी में ‘ग़मी के कपड़े’ किया और Mr. Anti Christ को ‘दुश्मने-ईसा साहब’।
मुझे इस बात में रूचि है और कोफ़्त भी कि हिंदी का हर अनुवादक पहले लेखक है बाद में अनुवादक। फिट्सजेराल्ड, कौंस्टैंस गार्नेट, एरदा ग्योकनार, मौरीन फ्रीली या जे रुबिन आदि, सभी अपने अनुवादों के लिए जग-प्रसिद्ध हैं, लेकिन इनकी ख़ुद की कृतियाँ शायद ही कोई उतनी ही रूचि से पढ़ता होगा जितना कि उनके किए हुए अनुवाद। भारत में हालाँकि यह तस्वीर बीते चार सालों में तेज़ी से बदली है।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक किताब स्टॉल में मैंने हेनरी और मोपासाँ की हिंदी में अनूदित कहानियाँ ख़रीदीं। किताब-फ़रोश ने बताया कि इन किताबों का अनुवादक वह ख़ुद है। हेनरी, मोपासाँ और ख़लील जिब्रान की रॉयल्टी किसको देने की ज़रूरत है?
गुणवत्ता जैसी भी हो, वह किताबें मेरे पास आज भी सुरक्षित हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या वह कुछ और भी लिखते हैं? उनके जवाब पर मैंने सिर तो हिलाया लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर कुछ सुन नहीं सका, ट्रेन से उतरी भीड़ का शोर दिल्ली जंक्शन की लाल दीवारें सोख लेने तक सुनती रहीं...
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