Font by Mehr Nastaliq Web

मोहब्बत की फ़ेहरिस्त से ग़ायब मुमताज़-शाहजहाँ

ताजमहल के दीदार की मेरी कभी ख़्वाहिश ही नहीं हुई। इसमें ताजमहल की कोई ख़ता भी नहीं, बस हालात ज़रा ज़ालिम बनते गए और जब भी ताज का ज़िक्र आया तो मुँह का ज़ायक़ा कसैला हो गया।

ज़िंदगी की पहली पारी का शुरुआती दौर था, ज़रूरत भर का होश संभाल लिया था। शायद आठवीं क्लास में थे, तो उर्दू के किसी अख़बार में साहिर की नज़्म 'ताजमहल' पढ़ ली। उम्र के हिसाब से कलाम बहुत वज़नी था। ज़्यादातर बातें समझ से बाहर थीं। आधी-अधूरी समझ में जो बात चुभी वह यह थी—

दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ

...और फिर कभी उस ख़ूनी संगमरमर को सफ़ेद न महसूस कर सके। ताज का ख़याल आया तो हड्डी से चिपके, सूखी, स्याह चमड़ी वाले संगमरमर ढोते मज़दूरों का मंज़र निगाह में घूम गया। संगमरमर की सिल्लियों में उनके पेवस्त जिस्म महसूस किए। चार सौ बरस पहले की ये घुटी हुई कराहें अपने शहर में सुनाई दीं। हर बार लाइट एंड साउंड वाले इस मंज़र की झलक और शोर ने सातवें अजूबे के हुस्न को स्वाहा कर दिया। यह इमारत मेरे लिए एक हॉन्टेड महल बन गई। बात बचपन से जुड़ी थी तो इसे भूलना भी मुमकिन नहीं था।

भला हो हाजी युसूफ़ साहब का जिन्होंने इसके हुस्न और दूसरी हक़ीक़तों से रूबरू कराया। हाजी साहब थे तो दादा के दोस्त मगर पूरा घर उनसे मिलने का तलबगार होता था। इल्म का खज़ाना थे वह। मीर अनीस के मर्सिये हों या दुनिया के नक़्शे पर फिज़ी कितने लैटीट्यूड और लॉन्गीट्यूड पर है, यह भी उन्हें पता था। शेक्सपीरियन लैंग्वेज के जानकर भी थे, साथ यह ख़बर भी रखते थे कि देव कोहली ने किस वाहियात गाने पर कितनी भारी रक़म चार्ज की है। 

गोया हाजी साहब उस वक़्त मेरे मेंटर थे। जब हम मेंटर का मतलब भी नहीं जानते थे। ताजमहल पर मेरे तास्सुरात जानने के बाद उन्होंने ताज की ख़ूबसूरती, दुनिया में उसकी क़द्र, फ़ुल मून लाइट में उसके बेमिसाल हुस्न और बतौर अजूबा उसकी अहमियत का जो नक़्शा खींचा, उसने नफ़रत की लकीर तो नहीं कम की मगर उसके बराबर में जुस्तुजू का एक बीज रोप दिया था। 

हाजी साहब की हिदायत थी कि ज़िंदगी में एक बार ताज महल ज़रूर देखना। उसे देखना तो है, मगर इसलिए नहीं कि दुनिया का सातवाँ अजूबा बना, मोहब्बत की मिसाल है और बहुतों की रोज़ी रोटी भी, बल्कि इसलिए देखना है कि हाजी साहब की हिदायत है।  

फिर बहुत सारे दिन गुज़र गए, इतने कि ज़िंदगी की दूसरी पारी में दाख़िल हो गए। हालात की उठापटक और कशमकश में ताजमहल की नफ़रत और उसे देखने की हिदायत दिल में फ्रीज़ रही। हाजी साहब नहीं रहे तो यह हिदायत जैसे जज़्बात से जुड़ गई। 

इस बीच ताजमहल से एक और नज़रिया ऐसा जुड़ा जो नफ़रत वाले ख़ाने में घर कर गया। पता नहीं कौन सा जादू था, इस इमारत में और क्या तासीर थी इसकी मोहब्बत में; जो शादी-शुदा जोड़े पर मुसल्लत किए गए इश्क़ का सिंबल बन गया। 

मोहब्बत के इस मंदिर को पीठ दिखाकर अपनी तस्वीर खिंचाने वाले कितने ही जोड़ों की कोल्ड-वॉर से लेकर सर फुटौव्वल की गवाह मेरी याददाश्त रही है। जो मियाँ-बीवी घर पर एक दूसरे की शक्ल देखना बर्दाश्त नहीं करते, उनकी दीवार या रैक पर ताज महल के साथ मुस्कुराती और मोहब्बत लुटाती तस्वीर में हम हिपोक्रेसी से ज़्यादा कुछ न देख सके। इस टोटके के असर में सिर्फ़ वही नहीं थे, जो अपने बजट से चवन्नी-चवन्नी जोड़ कर इस फ़ोटो-पॉइंट तक पहुँचे थे; बल्कि सास डायना की नाकामयाब शादी का हश्र देखने के बाद शायद प्रिंस विलियम और केट मिडल्टन ने भी यहाँ फ़ोटो खिंचवाने में अपनी ख़ैरियत जानी। 

1992 में जब डायना ने ताजमहल की अकेले सैर करते हुए तस्वीर खिंचवाई थी और उस वक़्त प्रिंस चार्ल्स बेंगलुरु में अपनी एक मीटिंग अटेंड कर रहे थे। तब मीडिया की कवरेज ऐसी थी जैसे ताज की शान में गुस्ताख़ी हो गई हो। आज वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया होता तो इस रिश्ते की नाकामयाबी पर एक झमाझम बैक ग्राउंड म्यूजिक के साथ ‘डायना और प्रिंस चार्ल्स को लगा ताज शाप’ हैशटैग वाली ऑफ़-बीट ख़बर ज़रूर चलाता। 

तमाम कोशिशों के बावजूद ताज को लेकर हम कभी भी पॉजिटिव नहीं हो सके। जब-जब साहिर के कलाम से दो-चार हुए, ख़ुद को ताज के बख़िये उधेड़ने में घिरा पाया। इस सोच का नतीजा था कि शक की सुई शाहजहाँ तक पहुँच गई। अब यह सवाल सामने था कि शाहजहाँ का यह शाहकार ग़म में बना या ख़ुशी में? बेशुमार धन दौलत अगर क़ब्र पर ख़र्च की गई है तो यक़ीनन मौत पर बहुत ख़ुश होंगे। क्यूँकि ग़म फ़क़ीरी की राह ले जाता है। मगर यहाँ उजड़ी मोहब्बत ने बदहवास नहीं किया; बल्कि धन दौलत और हुक़ूमत की बदौलत सातवें अजूबे की तामीर कर डाली। 

और गुस्ताखी माफ़! शाही ख़ज़ाना उड़ेलने और अवाम पर भारी टैक्स लगाने के बावजूद लैला-मजनूँ, शीरी-फ़रहाद, रोमियो-जूलियट की फ़ेहरिस्त में कभी भी मुमताज़ और आपका नाम नहीं मिला। 

ये सारे सवाल शाहजहाँ के दौर में उठे होंगे, मगर शहंशाह के ख़ौफ़ ने उन्हें भस्म कर दिया होगा। मीडिया और सोशल मिडिया के बग़ैर आप ने जैसा चाहा अपनी मोहब्बत का डंका पीटा। कई साहिर उस वक़्त भी हुए होंगे मगर या तो ख़ामोश रह गए होंगे या आपने करा दिया होगा। 

सदक़े इस डेमोक्रेसी के जो दिल बात बाहर ला सके और शुक्रिया उस अख़बार का जहाँ शकील बदायूँनी से पहले साहिर को पढ़ा, वरना मेरे कोरे दिमाग़ पर लिखा होता—

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है

इसके साये में सदा प्यार के चर्चे होंगे
ख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

25 अक्तूबर 2025

लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में

हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

06 अक्तूबर 2025

अगम बहै दरियाव, पाँड़े! सुगम अहै मरि जाव

एक पहलवान कुछ न समझते हुए भी पाँड़े बाबा का मुँह ताकने लगे तो उन्होंने समझाया : अपने धर्म की व्यवस्था के अनुसार मरने के तेरह दिन बाद तक, जब तक तेरही नहीं हो जाती, जीव मुक्त रहता है। फिर कहीं न

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

27 अक्तूबर 2025

विनोद कुमार शुक्ल से दूसरी बार मिलना

दादा (विनोद कुमार शुक्ल) से दुबारा मिलना ऐसा है, जैसे किसी राह भूले पंछी का उस विशाल बरगद के पेड़ पर वापस लौट आना—जिसकी डालियों पर फुदक-फुदक कर उसने उड़ना सीखा था। विकुशु को अपने सामने देखना जादू है।

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

31 अक्तूबर 2025

सिट्रीज़ीन : ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना

सिट्रीज़ीन—वह ज्ञान के युग में विचारों की तरह अराजक नहीं है, बल्कि वह विचारों को क्षीण करती है। वह उदास और अनमना कर राह भुला देती है। उसकी अंतर्वस्तु में आदमी को सुस्त और खिन्न करने तत्त्व हैं। उसके स

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

18 अक्तूबर 2025

झाँसी-प्रशस्ति : जब थक जाओ तो आ जाना

मेरा जन्म झाँसी में हुआ। लोग जन्मभूमि को बहुत मानते हैं। संस्कृति हमें यही सिखाती है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, इस बात को बचपन से ही रटाया जाता है। पर क्या जन्म होने मात्र से कोई शहर अपना ह

बेला लेटेस्ट