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'माई री मैं का से कहूँ' : स्त्रियों के अंतर्मन की पुकार

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग–अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 1 और 2 सितंबर को विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ पर आधारित नाटक 'माई री मैं का से कहूँ’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :

विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (माई री मैं का से कहूँ)—स्त्री की इच्छा, भावनाओं और सामाजिक मर्यादाओं के बीच के द्वंद्व की कथा है। आज के प्रगतिशील समाज के सामने, जो स्त्रियों को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने और बराबर अधिकार प्रदान करने की बात करता है। उसकी सबसे बड़ी विषमता या विडंबना को लेखक अपने शब्दों में कुछ यूँ सामने रखता है “लुगाई की अपनी मर्ज़ी होती ही कहाँ है, मसान ना पहुँचे तब तक मेढ़ी, और मेढ़ी से सीधी मसान”

विज्ञान और बुद्धि के उत्कर्ष पर पहुँचने का दावा करने वाले इस समाज में, स्त्री आज भी अपने मानसिक और शारीरिक अधिकारों के इस्तेमाल के लिए स्वतंत्र नहीं है। बल्कि उसे अपनी हर इच्छा-अनिच्छा को पुरुष प्रधान विचारों से तोलना पड़ता है| स्त्री का समूचा व्यक्तित्व, समूचा अस्तित्व कब से दो हिस्सों में बँटा हुआ है। जन्म से लेकर विवाह तक उसके सारे अधिकार उसके माँ-बाप के पास होते हैं और विवाह के बाद पति और बच्चों के पास।

स्त्री की भावनाएँ, उसकी इच्छाएँ, उसकी सारी स्वतंत्रता... उसकी सारी संभावनाएँ समाज की बनाई दो मर्यादित चौखटों तक आज भी सीमित है। स्त्री के अस्तित्व का सारा आकाश आज भी फैला है सिर्फ़ और सिर्फ़—“मेढ़ी से मसान तक”

स्त्रियों की इस सामाजिक अवस्था पर लिखी गई एक प्रगतिशील कहानी है—‘दुविधा’।

स्त्रियों को हमने आज तक एक स्त्री के रूप में नहीं स्वीकारा है। शायद, इसलिए हम उन्हें कभी समझ नहीं पाए! हमने उन्हें बेटी, बहन, बहु, माँ, प्रेमिका और ना जाने कितने अनगिनत रिश्तों में सहेजा है। और उन्हें उन रिश्तों के अनुरूप लगभग स्नेह और सम्मान भी देते रहे हैं। लेकिन हमने कभी विचार किया है कि जिन्हें हम किसी एक ख़ास रिश्ते और विशेष नाम से पुकारते हैं—वह एक स्त्री है। 

उसके भीतर स्वयं को लेकर अनंत इच्छाएँ हो सकती हैं! वह क्या चाहती है? हमने ना कभी पूछा, ना ही पूछना ज़रूरी समझा! इसे हमारा दुर्भाग्य कहें? या फिर नासमझी? यह आप तय कीजिए।

हमारी माँ, माँ होने से पहले एक स्त्री है। और एक स्त्री होने के नाते उन्हें पूरा हक़ है, अपने मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक सुख के बारे में सोचने का। लेकिन हमारे समाज में इन चीज़ों के बारे में बात करना भी मर्यादा के विरुद्ध माना जाता है। तो फिर हम स्त्रियों की किस आज़ादी की बात कर रहे हैं? जबकि उन्हें सबसे बुनियादी सुखों और अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है।

आजकल हर ओर किसी-ना-किसी रूप में सोशल मीडिया से लेकर आम बोलचाल की भाषा में इस एक शब्द को काफ़ी प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है :

“अरे चाहिए क्या औरत को?”

क्या इस एक वाक्य से गुज़रते हुए अथवा इसे बोलते हुए हमने कभी सोचा कि हम क्या बोल रहे हैं? क्यों बोल रहे हैं? मैं दावे से कह सकता हूँ कि आपने ऐसा नहीं सोचा होगा। लेकिन मैं अनुरोध करता हूँ कि अब ज़रूर सोचिएगा—“आख़िर एक औरत को क्या चाहिए होता है?”

संभव है कि हर किसी के पास इस बात के भिन्न उत्तर हों। लेकिन उन जवाबों में से कोई भी जवाब पूर्णतः सही होने का दावा पेश नहीं कर सकता। ईश्वर जो अपनी अराधना में माँग करता है, स्त्रियाँ बस वही अपने लिए चाहती हैं। वह संसार भर की दौलत नहीं चाहती है। उसे नहीं चाहिए पहाड़ों से भी ऊँचे महल और ना ही भौतिक सुखों की अन्य चीज़ें। अपने प्रीतम की प्रीत और उसकी स्नेह दृष्टि, उससे मिलने वाले सम्मान मात्र से वो फूले नहीं समाती है। लेकिन हम पुरुष इस सामान्य-सी आधरभूत ज़रूरत को कभी नहीं समझ पाए। बदले में हमने उन्हें ना जाने क्या-क्या देने का प्रयास किया और हमेशा यह दोहराते रहे—“अरे चाहिए क्या औरत को?”

विजयदान देथा की कहानी पर आधारित, कथा गायन, वाचन शैली में प्रस्तुत संगीतमय नाटक—‘माई री मैं का से कहूँ’ दर्शकों को गुदगुदाता है और साथ ही साथ दर्शक इसे देखते हुए सुबकते भी हैं।

अजय कुमार के निर्देशन में रा. ना. वि. रंगमंडल के कलाकार इसकी प्रस्तुति में एक अलग रंग और अद्भुत ढंग में नज़र आए। नाटक एकदम नपे-तुले संगीत, प्रकाश, अभिनय, गायन और वाचन के साथ मिलकर प्रेक्षागृह में उपस्थित सभी दर्शकों के भीतर मद्धम-मद्धम उतरता है। इसके लिए निर्देशक अजय कुमार विशेष बधाई के पात्र हैं। जिन्होंने सहजता से इसे प्रस्तुत किया।

नाटक संगीत-धुनों के साथ शुरू और ख़त्म होता है, जिसे आप साथ लेकर लौटते हैं। अंत का वह एक दृश्य जिसने सांकेतिक रूप से यह बता दिया कि स्त्रियों का अभी तक सचमुच कितना उत्थान हुआ है—में अभिनेताओं की मेहनत साफ़ झलकती है। 

दूल्हा अपनी दुल्हन को ब्याह कर अपने गाँव लौट रहा होता है। रास्ते में एक पेड़ की छाँव में सुस्ताने के लिए पालकी नीचे उतारता है। उसी पेड़ पर एक भूत रहता है। दुल्हन के रूप पर मोहित होकर वह उससे प्रीत कर बैठता है। लेकिन उसे यह बात बताए कैसे? दुल्हन को जीत ले जाए कैसे? 

उसको कई युक्तियाँ सूझती है, लेकिन भूत होते हुए भी उसे यह मालूम है कि स्त्री मन स्नेह से जीता जा सकता है, बल से नहीं! भूत पर दुल्हन के प्रति स्नेह कुछ इस क़दर हावी हो जाता है कि पालकी के आँखों से ओझल होते ही भूत बेहोश हो जाता है। प्रीत का सुख और दुख दोनों मधुकर होते हैं। जिनसे मन का धागा जुड़ा हो, उससे मिली चोट भी ईश्वर का आशीर्वाद लगता है।

जिस स्त्री की एक झलक भूत में भावना के संचार का माध्यम बनी। उसका दूल्हा रास्ते भर केवल हिसाब-किताब में लगा रहा। उसे इस बात की अधिक चिंता थी कि विवाह में कुल कितनी रक़म ख़र्च हुई। दुल्हन रास्ते भर इस इंतज़ार में रही कि दूल्हा अब शायद उसकी ओर देख ले। लेकिन निर्मोही उंगलियों में ना जाने क्या जोड़ता रहा। 

दो शब्द बोलने की बारी आई तो दुल्हन सकपकाई कि हो ना हो प्यार के दो मीठे बोल अब बोलेगा। लेकिन जब मुँह खोला—घर परिवार की प्रतिष्ठा और समाज की मान-मर्यादा की दुहाई का पाठ पढ़ाकर, “अगले पाँच वर्षों के लिए बाहर ज़रूरी काम से जा रहा हूँ”—इस बात का फ़रमान सुना दिया। 

दुल्हन बेचारी अवाक्, हक्का-बक्का, काटो तो ख़ून नहीं जैसी अवस्था में सँभलते हुए बोली, “आपके बिना मेरे पाँच वर्ष कैसे गुज़रेंगे?”

स्त्रियाँ सदा इसी प्रश्न के उत्तर के लिए भटकती रहीं कि आख़िर ईश्वर ने उसे ऐसा क्यों बनाया है? हर कोई उसे सुना कर, बता कर, समझा कर, सिखा कर… चला जाता है। कोई उससे नहीं पूछता है कि उसे क्या चाहिए? उसकी पसंद क्या है? 

बहरहाल कहानी आगे बढ़ती है... दूल्हा जब प्रदेश के रास्ते में होता है तो पुनः उसी पेड़ से होकर गुज़रता है, जिस पर भूत विश्राम करता है। दूल्हे को देखकर भूत नीचे आता है, और नई-नवेली दुल्हन को छोड़कर प्रदेश जाने का कारण पूछता है। लेकिन कोई भी उत्तर ना पाकर वह दूल्हे का रूप धरकर, सेठ जी की हवेली से होते हुए दुल्हन के सेज पर पहुँच जाता है।

हमारा समाज यदि भूत के बराबर भी स्त्रियों का मान कर ले, तो शायद औरतों के भीतर से डर ख़त्म हो जाए। भूत में असीम ताक़त है, वह चाहे तो कुछ भी कर सकता है। दुल्हन को अपनाने के उसके पास कई तरीक़ें हैं। लेकिन उसे दुल्हन से प्रीत है, और प्रीत मन जीतने के लिए सदा सहजता और स्नेह का मार्ग बतलाता है। जिसके लिए सत्य का दामन थामे रखना ज़रूरी है। 

भूत की सारी कहानी सुनने के बाद दुल्हन असली दुविधा में आ जाती है। एक तरफ़ सामाजिक बंधनों से बंधी हुई सुहागन और दूसरी ओर एक स्त्री मन जिसकी गाँठे खोले बिना ही दूल्हा प्रदेश चला गया है। जिसे तनिक भी चिंता नहीं हुई, दुल्हन के मन और देह की।

हमारे समाज में एक पुरुष यदि किसी के साथ शारीरिक, मानसिक अथवा भावनात्मक संबंध में रहे तो वह हमारी आँखों को नहीं खटकता है। लेकिन इनमें से कोई भी एक काम यदि स्त्री करे तो हमारे ऊपर मानों पहाड़ ही टूट पड़ता है। जबकि स्त्री और पुरुष दोनों की सारी ज़रूरतें बराबर ही है। जबकि इनमें से कुछ जरूरतें तो स्त्रियों की पुरुषों से अधिक ही है।

अंततः वह भूत के स्नेह को स्वीकार करती है और चार वर्ष के साथ में एक बच्ची की माँ बनकर ख़ुशी-ख़ुशी जीवन व्यतीत करती है। लेकिन उसके जीवन से सुख का अंत बहुत जल्दी हो जाता है। जब दूल्हा प्रदेश से लौटकर वापस गाँव आता है।

एक ही शक्ल के दो लोगों को देखकर गाँव में सेठ जी का परिवार कौतूहल का विषय बन जाता है। अंत में यह तय होता है कि इस मामले को राजा के पास ले जाया जाए, वही इसका उचित न्याय कर सकते हैं। लेकिन रास्ते में गड़रिए के रूप में एक फ़क़ीर के हाथों सारा न्याय हो जाता है। भूत तो ठहरा भूत, उसे भूतों की दुनिया का पूरा हाल पता था। लेकिन अपनी प्रीत की ख़ातिर इतने समय तक इंसानों के बीच रहकर भी इंसानों से चालबाज़ी और फ़रेब ना सीख सका। और गड़रिए के बहकावे में आकर एक पोटली में क़ैद कर लिया गया। भूत का हार जाना, क़ैदी होकर अंतिम सांस तक अपनी प्रियतमा से मिलने की गुहार लगाना। प्रीत पर हमारा यक़ीन और पुख़्ता करता है। 

भूत के प्रीत की कहानी यहीं समाप्त होती है। लेकिन स्त्रियों के साथ हमेशा जो होता है, वह होता रहेगा; इसकी एक झलक निर्देशक हमें सांकेतिक रूप में दिखाते हैं—जब मंच पर सभी अभिनेत्रियाँ पुनः अपने घूँघट नीचे गिरा लेती हैं। उनके संसार का आकार अब भी घूँघट के आकर का है, जबकि उसे समस्त संसार से अधिक बड़ा होना चाहिए था। 

अभिनेताओं की बात करें तो सूत्रधार शिल्पा भारती, मधुरिमा तरफदार, सत्येंद्र मलिक, अंकुर सिंह कहानी की जान हैं। जो कभी चुलबुली, तो कभी गंभीर होकर, हँसते-मुस्कुराते, बहुत थोड़ा रुलाते हुए कहानी सुनाते जाते हैं। भूत बने मजिबुर रहमान एक उम्दा अभिनेता हैं। वह अपने किरदार के अनुरूप अपनी देह की भाषा को बदलते हैं, जो उनके अभिनय को थोड़ा बेहतर बनाता है। 

दूल्हा बने अनंत शर्मा, अखिल, सुमन कुमार पुरुष प्रधान समाज के नियमों पर चलने वाले पक्के पुरुष लग रहे थे। दुल्हन बनीं पूजा गुप्ता, रीता देवी, शिवानी भारतीय के माध्यम से हर स्त्री के अंतर्मन की पुकार दर्शकों के भीतर एक टीस बनकर उठती रहेगी। सेठ और सेठानी की भूमिका में विक्रम और शाजिया थे। इसके अतिरिक्त गड़रिए की भूमिका में सुमन कुमार थे, जो अंत में आते हैं और अंत तक रहते हैं। जिनके अनोखे न्याय से दर्शक को दर्शन का एक नया पाठ मिलता है। 

इसके अतिरिक्त इस नाटक की धड़कन संगीत है। जिसे निर्देशक अजय कुमार के द्वारा बड़े ही प्यार से सहेजा गया है। एक-एक सुर, एक-एक ताल से जैसे लगता है कि कहानी को शाबाशी मिल रही हो। प्रकाश परिकल्पना दृश्य को निखारने में भरपूर योगदान देता है।

अंततः एक बात कहना आवश्यक लग रहा है कि हमने अब तक स्त्रियों को माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेयसी और बहुत कुछ समझा। लेकिन एक स्त्री के रूप में उसके मन की थाह लेने की नहीं सोची। शायद इसलिए हम माँ के मन को समझ पाए स्त्री मन को नहीं...

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