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इच्छाएँ जब विस्तृत हो उठती हैं, आकाश बन जाती हैं

एक

मैं उन दुखों की तरफ़ लौटती रही हूँ, जिनके पीछे-पीछे सुख के लौट आने की उम्मीद बँधी होती है। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे समंदर का भार कछुओं ने अपनी पीठ पर उठा रखा हो और मछली के रोने से एक नदी फूट पड़ेगी—सागर में।

ये रंगों के नाम लाल, हरा, पीला, काला… भला किसने रखे। मेरे लिए रंग जैसे जीवन के अचम्भे थे। उदासी के दिनों में मैं अमीनाबाद की गलियों में ऐसी साड़ी खोजा करती, जिसके पल्लू पर पतझड़ के चिनार गिरते हों।

उम्मीद का हरा दिखता है, जब पिता खेतों के एक छोर पर खड़े हो निहारते हैं—गेंहूँ की बालियाँ और माँ जब रोटियाँ बेलती है तो समझ की एक नस खुलती है कि भूख का रंग मिल जाता है सबमें।

दोस्तियों में सहूलतें ज़्यादा थीं और दोस्त एक्के-दुक्के।

मैंने जीवन में उपलब्धियाँ कम कमाई हैं और ज़िंदगी के रंग अधिक। जिन्हें हम देख पाते हैं, अस्ल जीवन में वे लोग भी हमें देख-सुन पाते हैं या नहीं या जो हमें देख रहे हैं, वे कई बार हमारी नज़रों से दूर होते हैं—बहुत दूर।

दरअस्ल, जो कहीं नहीं मिलता है; वही ईश्वर हुआ। जो दिख भी जाए तो आँखें मिचमिचानी पड़ें। जो भ्रम है, वही ईश्वर है। जो भ्रम और ‘उसके’ मध्य स्थितिप्रज्ञ है : वह जीवन है।

दो

ज़िंदग़ी के माथे पर एक शाम उगी है। आसमान की पीठ पर शाम का सूरज दर्ज होता है, तब रात की बंजारनें अपनी हिचकियों के सफ़हें पलटती हैं। जिनके काँधे पर धौलाधार का गोदना है। कान की लवों पर देवदार की नुकीली पत्तियों की चिकोटी। मोह के सब मनके, नाड़ी की तबियत पर भारी हो उठते हैं। माथे पर मुँद आता है शिव का तीसरा नेत्र और अधरों पर बुद्ध मुस्कुराते हैं। उस दुनिया में सड़कें इतनी सँकरी हैं कि जैसे सब प्रेमियों के शुरुआती शहर को जाती हों। शहर में कहीं भी खड़े होकर तर्जनी दिखाओ तो नीचे संसार दिखता है। यह स्थिति ही जादू है।

यह तिलिस्म ही तो है। ऐसा तिलिस्म कि एक रोज़ वेंटिलेटर पर महीनों से पड़ा आदमी किसी बिल्ली की तरह दबे पाँव लौट आए जीवन में। हफ़्तों तक घावों पर बीटाडीन के फ़ाहों से मक्खियाँ उड़ाती पत्नी तब्दील होने लगती है प्रेमिका में। छाती पर रात भर पड़ी नॉर्वेजियन वुड इतनी भारी लगने लगती है कि अगर समय रहते उठाई न जाएँ तो आत्महत्या सुख में बदलने लगे। सर्दियों में गली के सब पिल्ले जी जाएँ। कैसा हो कि बारिशों के सब चहबच्चे साबुत रह जाएँ।

ये सब अचम्भे उतने ही महीन होते हैं कि जितना बारीक फ़र्क़ होता है देवदार, चीड़ और कैल की पत्तियों के बीच। जितने देवताओं के चारों हाथ अलग-अलग हुए। कैसे बुडिल खड्ड रावी में उतरते ही नदी हो जाता है। मेरे लिए सब तिलिस्म ही है कि चाहे वह हिंदुस्तान के आख़िरी ढाबे हों या कि जीवन की अंतिम दुकान की मालिक काशी हो।

तीन

देवता स्थान माँगता है। सब कुछ वहीं होना चाहता है, जहाँ उसकी ठीक-ठीक जगह हो। जैसे थोड़ी-सी खिसकी हुई नींद सोना हराम कर देती है। लय से भटक गई एक धड़कन दिल पत्थर का कर जाती है—क्षण भर में। खाने में थोड़ी कम या ज़्यादा जगह घेर ले अगर नमक तो जीभ हज़ार गालियाँ देती है निवाले को। कितनी ही बार प्रेमियों ने प्रेमिकाओं के माथे पर बैठी काली बिंदी ज़रा-सी खिसकाकर नज़र का टीका बनाया होगा भला? नीम होना चाहती है घर के दरवाज़े पर और पीपल पीछे के अहाते में। आँगन अपने बीचोंबीच एक तुलसी का अधिकार माँगता है।

आषाढ़ और भादों के बीच पौष नहीं कूदा करता। हम सुबह को छोड़ रात की प्रतीक्षा करें और विस्मृत कर दें दिन के पुल को? पत्ताविहीन वृक्ष ही जानता है कि पतझड़ पीले रंग का दुःख नहीं, नई पत्तियों की तैयारी है। हम सुखों में दुःख तलाशते रहे। संतुलन में बीनते रहे उदासियाँ। चुप को ग्लानि समझते रहे जबकि चुप्पियाँ किसी समझदारी का बीज भी हो सकती थीं। कोई हँसा तो साथ हँसने के बजाय टीस की एक रेखा खींच ली मन ही मन। होता यह है दुनिया में हर चीज़ स्थान—अपना स्थान—चाहती है, जैसे मृत्यु माँगती है अपना स्थान—जीवन के बीच। जैसे देवता अपना स्थान माँगता है—देवता होकर भी।

चार

शेक्सपियर कहते हैं कि होना है कि नहीं बस यही तो सवाल है।

हर कोई लौट रहा है पर कहाँ? यह कहाँ ही बुद्ध थे और यही गीता में कृष्ण थे। कुछ घरों को लौटते रहे, कुछ क़स्बों को, प्रेमी प्रेमिकाओं के पास लौट आए, जानवर जंगल को। पर कितने लौट पाए अपने अंदर की ओर। और लौटे भी तो ख़ुद को क्या वैसा ही पाया, जैसा छोड़कर गए थे। जाने और लौट आने के बीच का समय ही अस्ल यात्रा थी।

ये जो अंदर की ओर लौटना होता है न, यह बाहर की हर चीज़ से दूर कर देता है। उस हर चीज़ से जिसे आप कभी अपना कह सकते थे। वे स्मृतियाँ कभी जिनके मोह में हुआ जा सकता था। ये जो दिल को अच्छे लगने बसने वाले लोग-यार होते हैं, वे सब आख़िर में चले कहाँ जाते हैं? क्या उस निर्वात में जो खा जाता है हर अच्छी चीज़ को, अच्छे वक़्त और लोगों के भीतर के अच्छेपन को।

‘सोफी का संसार’ में एक लैटिन कहावत का बार-बार ज़िक्र है कि ‘‘याद रखो तुम्हें मरना है।’’ यह मृत्यु-बोध ही मुझे स्मरण कराता है कि जीवन जैसे तीन घंटे का कोई पर्चा ठहरा। जिसके पौने-तीन घंटे जी लेने हैं और बाक़ी बचे में दुहरा लेने हैं जिए गए पौने तीन।

ये लोग नई जगहों पर क्यों नहीं जाते! जहाँ पहले कोई न गया हो। एक ही पृष्ठभूमि वाली तस्वीर में लोगों का बदलते जाना कितना भद्दा और उबाऊ है। पर मर जाना भी तो कोई नई बात नहीं। दुनिया में सदियों से हर कोई मरता आया है। बताकर मर जाने वाले शायद ईश्वर के थोड़ा ज़्यादा क़रीब रहे होंगे।

दरअस्ल, हम सब ज़िंदगी से कहते आए हैं कि बस थोड़ा-सा और साथ बनी रहो या झेल लो। जैसे निर्मल वर्मा ‘अंतिम अरण्य’ में एक जगह कहते हैं कि जो व्यक्ति सचमुच में अकेला होता है, वह ‘प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब’ की तख़्तियाँ नहीं लग़ाता अपने दरवाज़ों पर। अगर लगाएगा भी तो उस पर लिखा होगा : ‘कम वन… कम ऑल…’

पाँच

इच्छाएँ कितनी न्यून हो सकती हैं। इतनी कि जैसे दुनिया का क़दमों के नीचे होना… किसी अदना-सी उपलब्धि के सहारे सबको दिखा देंगे जैसा कुछ, जिस पिता के लिए सौ सवा सौ पन्ने काले कर डालना; पर बिला वजह कभी गले न लग पाना। जैसे किसी पहाड़ पर अपने शहर को याद करते हुए लेमन ग्रीन वाली चिकनकारी साड़ी को ओढ़ लेना और नेरूदा की प्रेम-कविताएँ पढ़ डालना। छुद्र ग्रह जितने विशालकाय पहाड़ के सामने खड़े हो जाना और कहना स्वयं को कि तुम्हारा अस्तित्व एक चींटी से भी छोटा है। ये छोटी-छोटी आकांक्षाएँ एक दिन बड़ी-सी आत्मा वाले इंसानों का दम घोंटकर रख देती हैं।

हम सब छोटे काम कर ले जाते हैं, नहीं कर पाते तो यह कि एक पौधे को रोपते हुए कह पाना उससे कि आज के बाद तुम मेरे हो। फूल को पुचकारकर कहना कि तुमसे जीवन-दर्शन पाया है। प्रेमी को कह पाना कि ख़तों का जवाब ख़त नहीं अलग-अलग की गई यात्राएँ भी हो सकती हैं। एक जानवर को विश्वास दिलाना कि जंगल तुम्हारे घर हैं और इसमें प्रवेश के लिए तुम्हारी अनुमति ज़रूरी है। यह स्वीकारना कि बच्चे जब खेलते हैं तो खेलता है ईश्वर संग-संग।

सहारों के लिए हम दूसरे काँधे ढूँढ़ते रहे जबकि अपने हौसले हम सब ख़ुद ही थे। ठीक वैसे ही जैसे फल में ही उसके बीज छिपा देता है ईश्वर। रौशनी को काटती है रौशनी ही। हम सब क्रांतियों में रत थे। माँ जब चूल्हे में झोंकती है रोटियाँ तो भूख लार उगलती है। पिताओं ने जब सबसे चुप वाले मौक़ों पर बेटियों को गले लगाया। बच्चे सब नियमों को मिटाते जाते हैं रबर से। बचपन की वह रबर क्रांति है। प्रेमिकाओं का भूल जाना पहले प्रेमी का चेहरा। दाँतों से अल्मायिज़र कुरेदते नाना और उनके बूढ़े दाँतों से झरती स्मृतियाँ क्रांति ही तो हैं। हम सब ज़िंदग़ी के पास जाते तो हैं, मगर आहिस्ता-आहिस्ता। जबकि जीवन कहता है कि जहाँ भी मुझे देखो दौड़कर भींच लो।

इच्छाएँ जब विस्तृत हो उठती हैं, तो आकाश बन जाती हैं।

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