हिंदी साहित्य के आउटसाइडर नीलकांत को जानना
गोविंद निषाद
30 नवम्बर 2024

फ़ेसबुक पर एक वीडियो तैरती हुई दिखाई दी। उसमें एक बुज़ुर्ग अपील कर रहे हैं कि कल देवनगर झूसी में आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में शिरकत करें। मैंने तय किया कि इस गोष्ठी में जाऊँगा। मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ से यह जगह कोई दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर है। सबसे ज़रूरी कि यह झूसी में ही है। शहर में होती तो मैं ध्यान भी नहीं देता। कौन जाए शहर की तरफ़। सब तरफ़ बस गड्ढे और धूल का राज है। इतनी धूल कि आँखें मिचमिचा जाती हैं।
मैं और महेंद्र बाइक पर सवार चल पड़े। रास्ता दोनों में से किसी को भी नहीं पता है। हमने गूगल मैप पर रास्ता देखा। इसके वाबजूद कि मैंने अभी ख़बर पढ़ी कि गूगल मैप पर ड्राइव कर रही एक कार पुल से गिर गई क्योंकि पुल आधा ही बना था। गूगल मैप ने जो रास्ता बताया वह छतनाग से होकर जाता है। हम उसी पर निकल पड़े। आगे जाने के बाद समझ नहीं आ रहा है कि जाए कहाँ!
हमने कार्यक्रम के संयोजक को कॉल किया। उधर से उन्होंने लोकेशन भेजने को कहा। हम लोकेशन का इंतज़ार करते रहे। कार्यक्रम में ही आ रहे एक दोस्त से मैंने रास्ता पूछा। उन्होंने लोकेशन भेज दी। हम वहीं-कहीं आसपास हैं लेकिन सही जगह नहीं पहुँच पा रहे हैं। टेक्नोलॉजी पर अत्यधिक निर्भरता ने हमें उलझन में डाल दिया। अब हमने सोचा कि किसी से पता पूछते हैं। आगे देखा एक छप्पर में एक बुज़ुर्ग सोए हुए हैं।
हमने उनसे पूछा, “चाचा आप साहित्यकार नीलकांत का घर जानते हैं। वह बड़े साहित्यकार हैं?”
उन्होंने बड़ी ही बेरुख़ी से जवाब दिया, “उधर जो घर दिख रहे हैं, वे पंडितों के घर हैं, उधर जाइए वहीं-कहीं होगा।”
हम गली में घुस गए। कहीं-कोई नहीं था सिवाय घर के। अब कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। मैंने फिर कॉल लगाया दोस्त को। उन्होंने बताया कि त्रिवेणीपुरम से आगे आओ। फिर मुड़ जाना।
हमने ग़लत रास्ता ले लिया है। ख़ैर वह रास्ता भी ज़्यादा लंबा नहीं है। हम जल्दी ही पहुँच गए। मोड़ पर ही विकास खड़े हैं। उन्होंने साथ चलने को कहा। आगे ही एक गली में नीलकांत जी का घर है।
हम पहुँचे। वहाँ एक खुला मैदान है। उसमें चारों तरफ़ से कुर्सियाँ लगाई गई हैं; गोलमेज़ जैसी। बीच में कुछ पोस्टर रखे हुए हैं और लहक का नीलकांत विशेषांक। एक कुर्सी पर नीलकांत जी अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बैठे हुए हैं। मैंने उन्हें दूसरी बार देखा। वह उसी वेषभूषा में हैं। सिर पर टोपी, कुर्ता और पाजामा, सदरी, पाँव में जूते। हाथ में एक छड़ी।
मेरी आँखें बरबस उनके पैरों की तरफ़ चली गई। उनके एक पैर में मोजे की बजाय पॉलीथीन लिपटा है। मैंने जानना चाहा कि ऐसा क्यूँ है? फिर यह सोचकर छोड़ दिया कि ऐसे तो यह भी सवाल है कि वह एक ही कपड़ा हमेशा क्यूँ पहने रहते हैं। एकदम मस्त-फक्कड़ अंदाज़ में वह किसी फ़कीर या दार्शनिक जैसे लग रहे हैं।
वैसे आप नीलकांत जी को तो जानते हैं ना? नहीं जानते! मैं भी कहाँ जानता था। नाम सुना था। उन्होंने ‘इतिहास-लेखन की समस्याएँ’ शीर्षक से एक किताब संपादित की है, जिसमें प्रतिष्ठित इतिहासकारों के लेख हैं। मैंने इसे पढ़ा है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि उसके संपादक यही नीलकांत हैं।
यह तो एक बात हुई। वह हिंदी के बड़े साहित्यकारों में से हैं। अगर कोई बड़ा परिचय दूँ तो वह होगा कि वह प्रसिद्ध कथाकार मार्कंडेय के छोटे भाई हैं। वैसे उनका ख़ुद का परिचय कम नहीं है। वह हिंदी साहित्य के आलोचक और कथाकार, उपन्यासकार हैं। उन्होंने कई स्तरीय आलोचना, कहानी और उपन्यास की पुस्तकें लिखी हैं। इतना विपुल लेखन करने के बाद भी वह साहित्य में एक गुमनाम नायक की तरह कैसे हैं, यह सोचने का विषय है।
अब तक उनकी एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें ‘सौंदर्यशास्त्र की पाश्चात्य परंपरा’, ‘रामचंद्र शुक्ल’, ‘राहुल शब्द और कर्म’ (आलोचना) ‘एक बीघा ज़मीन’, ‘बंधुआ राम दास’, ‘बाढ़ पुराण’ (उपन्यास), ‘महापात्र’, ‘अजगर बूढ़ा और बढ़ई’, ‘हे राम’, ‘मत खनना’ (कहानी संग्रह) आदि प्रमुख हैं।
मेरी निगाह ज़मीन पर मौजूद शॉल पर रखी लहक पत्रिका के नीलकांत विशेषांक पर टिक गई जिसका शीर्षक है ‘हिंदी साहित्य के आउटसाइडर नीलकांत’। मेरा सोचना सही निकला कि हिंदी-साहित्य में वह आउटसाइडर ही हैं। नहीं तो इतना स्तरीय लेखन करने के बाद भी वह हाशिए पर नहीं होते।
मैंने तय किया कि उनका लिखा कुछ पढ़ते हैं—मैंने गूगल पर खोजा लेकिन बार-बार नीलकांत की जगह पर महादेवी वर्मा की कहानी ‘नीलकंठ’ आती रही। मैं सोच में पड़ गया कि इतने बड़े साहित्यकार और आलोचक हैं लेकिन गूगल पर उनके बारे में नहीं के बराबर जानकारी उपलब्ध है। ऐसे कैसे हो सकता है कि ‘हिंदी समय’, ‘हिन्दवी’ या अन्य वेबसाइट पर इनका लिखा कुछ भी न उपलब्ध हो सिवाय ‘पहली बार ब्लॉग’ पर एक संस्मरण के।
धीरे-धीरे लोग आते गए। कुर्सियाँ भरती गईं। हालाँकि कहने को भले भर गईं लेकिन श्रोताओं और वक्ताओं को मिलाकर लगभग बीस-पच्चीस लोग ही रहे होंगे, जबकि यहाँ सैकड़ों लोग होने चाहिए थे। कम-से-कम उनके बोलने पर तो इतने लोगों के आने की उम्मीद तो की जा सकती है। मेरा वश चले तो मैं पूरे इलाहाबाद को इस छोटे से मैदान में लाकर खड़ा कर दूँ।
गोष्ठियों में आमतौर पर मैंने जो देखा है—उसमें पहले एक मंच होता है जिस पर वक्ता बैठते हैं, बाक़ी लोग नीचे। लेकिन यहाँ सभी मंच पर मौजूद थे—यानी एक बराबरी पर। मैं भी एक कुर्सी पर बैठ गया। सामने इलाहाबाद के बुद्धिजीवी, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता बैठे हुए हैं। वक्ताओं ने बोलना शुरू किया। तय हुआ कि कार्यक्रम का शीर्षक ‘बतकही’ है तो सब लोग बात ही करते हैं। सब लोग घेरा बनाकर ही बैठे हैं तो कोई समस्या भी नहीं।
मैंने सोचा कि ऐसे तो मुझे भी बोलना पड़ेगा। मेरा तो हलक़ सूख जाता है बोलने के नाम पर। ऊपर से विषय—‘आज के दौर में साहित्य’। क्या ही बोल पाऊँगा इस पर मैं; कितना ही समकालीन साहित्य के बारे में जानता हूँ! फिर संचालक ने घोषणा की, “जो बोलना चाहे, बोले; इसके लिए कोई निश्चित क्रम नहीं होगा।”
मेरी साँस में साँस आई। चलो बला टली। हरिश्चंद द्विवेदी ने उन पर आधारित संस्मरणों के आधार पर तत्कालीन इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कई क़िस्सों को समाने रखा। सबसे आश्चर्य की बात थी कि बीच-बीच में वह नाम भूल जाते तभी अचानक से नीलकांत जी नाम बोलते और सभी हतप्रभ कि इन्हें इतने पुराने नाम अभी तक स्पष्ट रूप से याद हैं। वक्ता बोल ही रहे थे कि उन्होंने अपने ख़ास आदमी को आवाज़ लगाई। जैसे ही वह उनके पास पहुँचे, वह पूछ बैठे, “अरे हमार पनवा कब आई?” सभी हँसने लगे।
इस तरह हर वक्ता उन पर आधारित संस्मरणों और क़िस्से साझा करता रहा। बीच-बीच में कोई ट्रेक्टर, बाइक आदि वाहन वक्ताओं की आवाज़ को चीरते हए गुज़रते, फिर नीरव शांति में चिड़ियों की चहचहाहट। इन संस्मरणों में कुछ तो अलग है—आत्मीय हैं, प्रेमवत हैं। जो भी वक्ता बोल रहे हैं, ऐसा लग रहा था कि वह दिल से बोल रहे हैं, दिमाग़ से नहीं।
इन संस्मरणों में नीलकांत जी का व्यक्तित्व निखरकर सामने आ रहा है। नीलकांत जी का पशुप्रेम, एक कुशल कारीगर जो गाड़ी से लेकर घर के दरवाज़े तक को बना सकता है, कथनी और करनी में कोई फ़र्क़ नहीं करने वाला, जिसने अपने ज़मींदार पिता के खलिहान को मज़दूरों के बीच लुटवा दिया और पिता से ज़मीन को वंचितों के बीच बाँटने को लेकर झगड़ गया। बेबाक जो प्रेमचंद को पटवारी की तरह लिखने वाला लेखक बोल सकता था और ख़ुशमिज़ाज स्वभाव; ऐसे न जाने कितनी बातें उनकी बारे में पता चलीं।
इस तरह वक्ताओं ने अपने-अपने संस्मरण से इस शाम को बहुरंगी बना दिया। अंत में जब मैंने देखा कि सभी लोग विषय की बजाय संस्मरण ही सुना रहे हैं तो मेरा मनोबल बढ़ गया। अपने मन को मज़बूत करते हुए कुछ कहना चाहा कि संचालक ने समय की बाध्यता को बताते हुए जल्दी-जल्दी बात रखने को कहा। मैंने तय किया अब छोड़ो भी इसे। मैं यहाँ ही यह बात रख दे रहा हूँ—
“मैं इस तरह की गोष्ठी में आकर ख़ुश हूँ। सबसे ज़्यादा ख़ुशी हमें नीलकांत जी को देखकर हो रही है। मैंने उन्हें अभी पिछले हफ़्ते देखा जब मैं सुबह-सुबह संस्थान जा रहा था। जैसे ही झूसी डाकघर के पास पहुँचा। एक बाइक से उतरते हुए नीलकांत जी दिखाई दिए। मैं पहचान गया। पहले उन्हें फ़ेसबुक पर देख था, उन्हें देखते ही अभिभूत हो गया। जहाँ था वहीं खड़ा होकर उन्हें देखता रहा। वह गाड़ी से उतरे और सहारे से आगे बढ़कर डाकघर जाने लगे। गेट से प्रवेश करते ही वह आँखों से ओझल हो गए। मेरा मन अभी उन्हें और देखने का था। मैं उल्टे पाँव वापस आया गेट के पास आया। उन्हें डाकघर जाते हुए देखता रहा, जब तक कि वह अंदर नहीं चले गए।
मेरा मन फिर नहीं माना। अब मैं डाकघर के अंदर चला गया। वहाँ जाकर उन्हें देखता रहा। जब वह वापस चले गए तब मैं वहाँ से निकला। मैं जानता था कि वह बहुत बड़े साहित्यकार हैं लेकिन मैंने उनका कुछ भी नहीं पढ़ा था, सिवाय इतिहास पर संपादित किताब के। मैं उस दिन बहुत ख़ुश था और इतने बड़े साहित्यकार को देखकर ख़ुशी होती भी क्यों नहीं!”
कुछ इस तरह का होने वाला था मेरा वक्तव्य। अभी तक उनका पान नहीं आया था। उन्होंने एक बार फिर वक्ताओं की परवाह न करते हुए पान लाने की गुहार लगाई। उन्हें बताया गया कि उनका पान आ रहा है। अंत में उनसे कहा गया कि वह कुछ बोलें। चूँकि अभी 90 साल की उम्र में उनकी स्मृति इतनी तेज़ है तो ज़रूर अपने समकालीनों से लेकर अपने से पहले के लेखकों और साहित्यकारों पर बोल सकते हैं। माइक संभालते ही उन्होंने ग़ालिब, अली सरदार जाफ़री, इक़बाल, यशपाल, प्रेमचंद, निराला, नेहरू, राहुल सांकृत्यायन आदि को याद करते हुए लोक भारती से प्रकाशित ग़ालिब पर एक किताब का ज़िक्र करते हुए कहा कि इसे पढ़ना चाहिए।
उन्होंने यशपाल की कहानी ‘फूलो की कुर्ता’ का ज़िक्र करते हुए बताया कि प्रेमचंद के पास भी इस तरह की कहानी नहीं है। यह कहानी मेरा आदर्श है। इस कहानी के समकक्ष अगर किसी कहानीकार का नाम लिया जा सकता है, तो वह रूस के चेखव का। इन दिनों लिखे जा रहे साहित्य को लेकर वह रूखा बोले कि आज जो कुछ भी लिखा जा रहा है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो उद्धरित करने लायक़ हो। साथ में वह इलाहाबाद और समकालीनों पर बोलते रहे। तब तक उनका पान आ चुका था।
शॉल पर रखे पोस्टकार्ड मुझे आकर्षित कर रहे थे। मैंने पोस्टकार्ड छाँटें। तब तक स्पीकर की बैटरी चली गई। आवाज़ अब सुनाई कम दे रही थी। धीरे-धीरे यह बतकही, बतकही में बदल गई। लोग आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। हमने चाय पी। नीलकांत जी की फ़ोटो ली, इसलिए कि गूगल तक पर उनकी कोई ढंग की तस्वीर नहीं है। इस तकनीकी युग में यह बात तो ठीक नहीं है। लोग उनके साथ तस्वीरें ले रहे थे। हम मोटरसाइकिल पर सवार होकर निकल गए। यह दिन हमारी स्मृतियों में हमेशा बसा रहेगा।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
07 अगस्त 2025
अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ
श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत
10 अगस्त 2025
क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़
Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi
08 अगस्त 2025
धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’
यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा
17 अगस्त 2025
बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है
• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है
22 अगस्त 2025
वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है
प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं