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हे राम : दास्तान-ए-क़त्ल-ए-गांधी

जिससे उम्मीदें-ज़ीस्त थी बाँधी
ले उड़ी उसको मौत की आँधी
गालियाँ खाके गोलियाँ खाके
मर गए उफ़्फ़! महात्मा गांधी!

रईस अमरोहवी 

एक

दिल्ली में वह मावठ का दिन था।

30 जनवरी 1948 को दुपहर तीन बजे के आस-पास महात्मा गांधी हरिजन-बस्ती से लौटकर जब बिड़ला हाउस आए, तब भी हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी।

लँगोटी वाला नंगा फ़क़ीर थोड़ा थक गया था, इसलिए चरख़ा कातने बैठ गया। थोड़ी देर बाद जब संध्या-प्रार्थना का समय हुआ तो गांधी प्रार्थना-स्थल की तरफ़ बढ़े कि अचानक उनके सामने हॉलीवुड सिनेमा के अभिनेता जैसा सुगठित-सुंदर एक युवक सामने आया जिसने पतलून और क़मीज़ पहन रखी थी।

नाथूराम गोडसे नामक उस युवक ने गांधी को नमस्कार किया, प्रत्युत्तर में महात्मा गांधी अपने हाथ जोड़ ही रहे थे कि उस सुदर्शन युवक ने विद्युत-गति से अपनी पतलून से बेरेटा एम 1934 सेमी-ऑटोमेटिक पिस्तौल (Bereta M 1934 Semi-Automatic Pistol) निकाली और धाँय...धाँय...धाँय...!

शाम के पाँच बजकर सत्रह मिनट हुए थे, नंगा-फ़क़ीर अब भू-लुंठित था। हर तरफ़ हाहाकार-कोलाहल-कुहराम मच गया और हत्यारा दबोच लिया गया।

महात्मा की उस दिन की प्रार्थना अधूरी रही।

आज़ादी और बँटवारे के बाद मची मारकाट-लूटपाट-सांप्रदायिक दंगों और नेहरू-जिन्ना-मंडली की हरकतों से महात्मा गांधी निराश हो चले थे।

क्या उस दिन वह ईश्वर से अपनी मृत्यु की प्रार्थना करने जा रहे थे, जो प्रार्थना के पूर्व ही स्वीकार हो गई थी!

दो

दक्षिण अफ़्रीका से लौटकर आने के बाद भारत-भूमि पर गांधी की हत्या की यह छठी कोशिश थी। हत्या की चौथी विफल कोशिश के बाद, जब उस रेलगाड़ी को उलटने की/क्षतिग्रस्त करने की साज़िश रची गई—जब गांधी, बंबई से पुणे जा रहे थे—महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘मैं सात बार मारने के प्रयासों से बच गया हूँ। मैं इस तरह मरने वाला नहीं हूँ। मैं 125 वर्ष जीने की आशा रखता हूँ।’’

इस पर पुणे से निकलने वाले अख़बार ‘हिंदू राष्ट्र’ ने लिखा कि आपको इतने साल जीने कौन देगा? गांधी को नहीं जीने दिया गया। गांधी के हत्यारे और ‘हिंदू राष्ट्र’ के संपादक का एक ही नाम था—नाथूराम गोडसे!

गांधी की हत्या के देशव्यापी असर के बारे में एक अँग्रेज़ पत्रकार डेनिस डाल्टन ने लिखा, ‘‘गांधी की हत्या ने विभाजन के बाद की सांप्रदायिक हिंसा का शमन करने का काम किया। ग़ुस्से, डर और दुश्मनी से उन्मत्त भीड़ जहाँ थी, वहीं ठिठक गई। अंधा-धुंध हत्याओं का दौर थम गया। यह भारतीय जनता की गांधी को दी गई सबसे बड़ी और पवित्र श्रद्धांजलि थी!

तीन

वर्ष 1934 में हिंदुओं की राजधानी पुणे की नगरपालिका में गांधी का सम्मान समारोह आयोजित था। समारोह में जाते हुए गांधी की गाड़ी पर बम फेंका गया, लेकिन संयोग से गांधी दूसरी गाड़ी में थे। बहुत लोग घायल हुए लेकिन गांधी बच गए।

1915 में भारत आने के बाद गांधी पर यह पहला हमला था।

अपने पुत्रवत सचिव महादेव देसाई और पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु से गांधी विचलित थे। आग़ा ख़ान महल से गांधी को जब लंबी क़ैद से रिहा किया गया, तब वह बीमार और कमज़ोर थे। उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए पंचगनी ले जाया गया। वहाँ भी हिंदुत्ववादी नारेबाज़ी और प्रदर्शन करने लगे और एक दिन एक उग्र युवा, छुरा लेकर गांधी की तरफ़ लपक/झपट रहा था कि भिसारे गुरुजी ने उस युवक को दबोच लिया।

गांधी ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से मना किया और उस युवक को कुछ दिन अपने साथ रहने का प्रस्ताव दिया, जिससे वह जान सकें कि युवक उनसे क्यों नाराज़ है? लेकिन युवक भाग गया। इस युवक का नाम भी नाथूराम गोडसे था। यह गांधी की हत्या का भारत में दूसरा प्रयास था!

चार

मोहनदास अब महात्मा था!

रेलगाड़ी के तीसरे-दर्ज़े से भारत-दर्शन के दौरान मोहनदास ने वस्त्र त्याग दिए थे।

अब मोहनदास सिर्फ़ लँगोटी वाला नंगा-फ़क़ीर था और मोहनदास को महात्मा पहली बार कवींद्र रवींद्र (रवींद्रनाथ ठाकुर) ने कहा।

मोहनदास की हैसियत अब किसी सितारे-हिंद जैसी थी और उसे सत्याग्रह, नमक बनाने, सविनय अवज्ञा, जेल जाने के अलावा पोस्टकार्ड लिखने, यंग-इंडिया अख़बार के लिए लेख-संपादकीय लिखने के साथ बकरी को चारा खिलाने, जूते गाँठने जैसे अन्य काम भी करने होते थे।

राजनीति और धर्म के अलावा महात्मा को अब साहित्य-संगीत-संस्कृति के मामलों में भी हस्तक्षेप करना पड़ता था और इसी क्रम में वह बच्चन की ‘मधुशाला’, ‘उग्र’ के उपन्यास ‘चॉकलेट’ को क्लीन-चिट दे चुके थे और निराला जैसे महारथी उन्हें ‘बापू, तुम यदि मुर्ग़ी खाते’ जैसी कविताओं के ज़रिए उकसाने की असफल कोशिश कर चुके थे।

युवा सितार-वादक विलायत ख़ान भी गांधी को अपना सितार सुनाना चाहते थे। उन्होंने पत्र लिखा तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम बुलाया। विलायत ख़ान लंबी यात्रा के बाद सेवाग्राम आश्रम पहुँचे तो देखा गांधी बकरियों को चारा खिला रहे थे। यह सुबह की बात थी। थोड़ी देर के बाद गांधी आश्रम के दालान में रखे चरख़े पर बैठ गए और विलायत ख़ान से कहा, ‘‘सुनाओ।’’

गांधी चरख़ा चलाने लगे! घरर... घरर... की ध्वनि वातावरण में गूँजने लगी।

युवा विलायत ख़ान असमंजस में थे और सोच रहे थे कि इस महात्मा को संगीत सुनने की तमीज़ तक नहीं है। फिर वह अनमने ढंग से सितार बजाने लगे, महात्मा का चरख़ा भी चालू था—घरर... घरर... घरर... घरर... घरर...

विलायत ख़ान अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि थोड़ी देर बाद लगा, जैसे महात्मा का चरख़ा मेरे सितार की संगत कर रहा है या मेरा सितार महात्मा के चरख़े की संगत कर रहा है।

चरख़ा और सितार दोनों एकाकार थे और यह जुगलबंदी कोई एक घंटा तक चली। वातावरण स्तब्ध था और गांधी की बकरियाँ अपने कान हिला-हिलाकर इस जुगलबंदी का आनंद ले रही थीं।

विलायत ख़ान आगे लिखते हैं कि सितार और चरख़े की वह जुगलबंदी एक दिव्य-अनुभूति थी और ऐसा लग रहा था जैसे सितार सूत कात रहा हो और चरख़े से संगीत नि:सृत हो रहा हो!

पाँच

जिस सुबह गांधी चरख़ा चलाते हुए युवा विलायत ख़ान का सितार-वादन सुन रहे थे, उसी दिन दुपहर उन्हें देश के सांप्रदायिक माहौल पर मुहम्मद अली जिन्ना से बात करने मोटरगाड़ी से बंबई जाना था कि अचानक वर्धा के सेवाग्राम आश्रम के द्वार पर हो-हल्ला होना शुरू हुआ। सावरकर टोली यहाँ भी आ पहुँची थी। गोलवलकर भी। वे नहीं चाहते थे कि गांधी और जिन्ना की मुलाक़ात हो। वे सेवाग्राम आश्रम के बाहर नारेबाज़ी करने लगे। पुलिस ने युवकों को गिरफ़्तार करके जब तलाशी ली तो ग. ल. थत्ते नामक युवक की जेब से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ।

यह गांधी हत्या की तीसरी कोशिश थी। उनकी यही कोशिश थी कि जैसे भी हो गांधी को ख़त्म करो!

छह

गांधी की वास्तविक हत्या से केवल दस दिन पूर्व गांधी को मारने की एक और विफल कोशिश हुई। 

एक दिन पूर्व ही गांधी ने आमरण अनशन तोड़ा था। गांधी, संध्या-प्रार्थना कर रहे थे कि दीवार की ओट से मदनलाल पाहवा ने निशाना बाँधकर बम फेंका; लेकिन निशाना चूक गया। इसी अफ़रा-तफ़री में विनायक दामोदर सावरकर और उनके साथी को पिस्तौल से गांधी की हत्या करनी थी, लेकिन वे भाग छूटे।

गांधी फिर बच गए। शरणार्थी मदनलाल पाहवा को पकड़ लिया गया, लेकिन असली अपराधी ग़ायब हो गए। वे मुंबई से सावरकर का आशीर्वाद लेकर रेलगाड़ी से दिल्ली आए थे और दिल्ली के मरीना होटल में रुके थे।

पाहवा से पुलिस ने पूछताछ की तो उसने चेतावनी देते हुए कहा था, ‘‘वे फिर आएँगे!’’

सात

इस बार गोडसे अपने साथी आप्टे के साथ विमान से दिल्ली आया। सावरकर ने इस बार उन्हें वही बात कही, जब 1909 में लंदन में विली की हत्या से पहले धींगरा से कही थी, ‘‘इस बार भी अगर विफल रहे तो आगे मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना।

दिल्ली। बिड़ला हाउस। पाँच बजकर सत्रह मिनट।

धाँय...धाँय...धाँय...!

गांधी मरते नहीं। 

लेकिन इस बार नाथूराम मोहनदास को मारने में सफल रहा!

आठ

भारत लौटने से पूर्व दक्षिण अफ़्रीका में भी गांधी को मारने की कोशिश हुई। जब कड़कड़ाती सर्दी में युवा मोहनदास को रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंका जाता है। यह भी हत्या का ही प्रयास था।

1896 को जब गांधी छह महीने के प्रवास के बाद जहाज़ से अफ़्रीका लौट रहे थे तो वहाँ के अख़बारों ने गांधी के विचारों को तोड़-मरोड़ कर प्रकाशित किया, जिससे वहाँ के गोरे भड़क उठे। जब गांधी का जहाज़ अन्य यात्रियों के साथ डरबन पहुँचा तो प्रशासन ने यात्रियों को तीन सप्ताह तक जहाज़ से उतरने की इजाज़त नहीं दी। बाहर उग्र भीड़ गांधी की प्रतीक्षा में थी।

जहाज़ के कप्तान ने गांधी को कहा, ‘‘आपके उतरने के बाद बंदरगाह पर खड़े गोरे आप पर हमला कर देंगे तो आपकी अहिंसा का क्या होगा?’’

गांधी ने कहा, ‘‘मैं उन्हें क्षमा कर दूँगा। अज्ञानवश उत्तेजित लोगों से मेरे नाराज़ होने का कोई कारण नहीं।’’

आख़िरकार कई दिनों के बाद यात्रियों को जहाज़ से उतरने की इजाज़त मिली। गांधी को कहा गया कि वह अँधेरा होने पर जहाज़ से निकलें, लेकिन गांधी ने इस तरह चोरी-छिपे उतरने से इनकार कर दिया और दुपहर को जहाज़ से निडरता से निकले। भीड़ ‘बदमाश गांधी’ को पहचान गई और लोग गांधी को पीटने लगे। इतना पीटा कि गांधी बेहोश हो गए। 

बड़ी मुश्किल से तब उधर से गुज़र रही डरबन पुलिस अधिकारी की पत्नी ज़ेन एलेक्जेंडर ने बचाया और इससे पूर्व जब गांधी पहली बार अफ़्रीका में जेल से बाहर आए और एक मस्जिद में भारतीयों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे। तब मीर आलम ने पूछा कि असहयोग के बीच सहयोग कहाँ से आ गया। उसने गांधी पर आरोप लगाया कि पंद्रह हज़ार पाउंड की घूस लेकर गांधी सरकार के हाथों बिक गया है। यह कहकर उसने गांधी के सिर पर ज़ोर से डंडे से वार किया। गांधी बेहोश हो गए। मीर आलम और उसके साथी उस दिन गांधी को मार देना चाहते थे, लेकिन गांधी किसी तरह बच गए।

गांधी जब होश में आए तो पूछा, ‘‘मीर आलम कहाँ है? जब पता चला कि उसे पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है तो गांधी बोले, ‘‘यह तो ठीक नहीं हुआ। उन सबको छुड़ाना होगा।’’

जब मीर आलम जेल से बाहर आया तो उसे अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था। बाक़ी ज़िंदगी मीर आलम ने गांधी के सच्चे सिपाही की तरह बिताई।

नौ

“जिस तरह हिंसक लड़ाई में दूसरों की जान लेने का प्रशिक्षण देना पड़ता है, उसी तरह अहिंसक लड़ाई में ख़ुद की जान देने के लिए ख़ुद को प्रशिक्षित करना होता है।”

महात्मा गांधी की हत्या
शहादत थी या आत्म-बलिदान या आत्मोत्सर्ग था
या महात्मा की मृत्यु
सत्य का अंतिम प्रयोग था

या फिर सत्य, अहिंसा और स्वराज के लिए
दी हुई नि:स्वार्थ कुर्बानी!

दस

वास्तविक हत्या के दस दिन पूर्व बम हमले में बच जाने पर गांधी को दुनिया भर से बधाई संदेश मिल रहे थे। लेडी माउंटबेटन ने तार में लिखा, ‘‘आपकी जान बच गई आप बहादुर हैं।’’ 

गांधी ने माउंटबेटन के तार का उत्तर दिया, ‘‘यह बहादुरी नहीं थी। मुझे कहाँ पता था कि कोई जानलेवा हमला होने वाला है। बहादुरी तो तब कहलाएगी, जब कोई सामने से गोली मारे और फिर भी मेरे चेहरे पर मुस्कान हो और मुँह में राम का नाम हो।’’

मरने के बाद भी गांधी को मारने की कोशिशें जारी हैं
लेकिन गांधी मरते नहीं
वे जीवित रहते हैं
जो मृत्यु से डरते नहीं

हे राम!

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