एक साधक रचनाकार
अरुण कमल
01 जनवरी 2026
मैं विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। उनके उपन्यासों ने जीवन को नए ढंग से देखना सिखाया है। यथार्थ को अलग-अलग तरीक़े से कैसे व्यक्त किया जा सकता है, यह बताया है। उनके सारे उपन्यासों ने हिंदी उपन्यासों के समग्र चरित्र को बदल दिया। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में वह लिखते हैं, “हाथी चला जा रहा था और हाथी के बराबर की ख़ाली जगह पीछे छूटती जाती थी।” सोनसी जो इस उपन्यास की नायिका है, वह स्वर्णाभूषण पहनकर कसौटी वाले पत्थर पर लेटती है और उसके हटते ही पत्थर स्वर्णाभा से भर जाता है, इसका अद्भुत वर्णन है—इस उपन्यास में। यहाँ संभोग का भी एक अद्भुत वर्णन है जिसमें एक वृक्ष अपनी जड़ों, तने और पत्तियों सहित उतरता है।
विनोद जी का यह उपन्यास अनेक पुष्पों को निचोड़कर निर्मित की गई इत्र की एक बूँद की तरह है। यहाँ यथार्थ का निचोड़ है जो फ़ैंटेसी में प्रकट होता है। यह जादुई यथार्थवाद नहीं है। यह फ़ैंटेसी भारतीय आख्यानों, ‘कथासरितसागर’ और मुक्तिबोध के सृजन का एक नया रूप है। अगर यह कलावादी होना है तो यह वास्तव में एक बहुत बड़ी बात है, क्योंकि कलावादी बूर्ज्वाजी के विरोधी होते हैं, वे पूँजीवाद के विरोधी होते हैं, वे कला के व्यावसायीकरण के विरोधी होते हैं और सत्ता और नैतिक वर्जनाओं के भी विरोधी होते हैं। इस अर्थ में कलावादी होने को मैं एक बहुत बड़ी बात मानता हूँ। हिंदी में जिन्हें कथित रूप से कलावादी कहा जाता है, कला उनके यहाँ बहुत कम है। वे न ही जीवन के बारे में कोई ख़ास समझ रखते हैं और न ही कला के बारे में। इस तरह से देखें तो वे कलावादी नहीं हैं।
विनोद कुमार शुक्ल एक बड़े उपन्यासकार-कवि हैं और उन्हें किसी ने बनाया नहीं है; वह ख़ुद बने हैं, क्योंकि लेखक को कोई बना और बिगाड़ नहीं सकता। वह ख़ुद बनता है—
मोहि को मोहि कवित्त बनावत।
विनोद कुमार शुक्ल इतने बड़े लेखक हैं कि उनको कोई क्या बनाएगा। वह साधक हैं। इन सब चीज़ों से निरपेक्ष हैं। एक सामान्य शहर में एक औसत ज़िंदगी जीते हुए, उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। उनके यहाँ भाषा लिखने और देखने के तरीक़े से पैदा होती है।
एक बार जब मैं उनके साथ था। मैंने देखा वह सुबह-सुबह उठकर टहलते हुए एक स्कूल की तरफ़ चले गए हैं और एक फूल के नज़दीक जाकर उसे सूँघ रहे हैं—बिना उसे छुए, बिना उसे तोड़े। ऐसा व्यक्ति ही लिख सकता है—‘खिलेगा तो देखेंगे’।
विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ भी मुझे बेहद प्रिय हैं। उनकी लंबी कविता ‘रायपुर बिलासपुर संभाग’ और आदिवासी जीवन पर लिखी गई अन्य कविताएँ मुझे बहुत पसंद हैं। कुछ कविताएँ तो उनकी मुझे रोज़ ही याद आती हैं, जैसे जब वह अपनी एक कविता में कहते हैं :
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़, खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुर्सत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा—
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा...
जब कभी अहंकार मुझसे उत्पन्न होता है, मैं एक ज़रूरी काम की तरह इस कविता को पढ़ता हूँ। इससे मुझे शांति और शक्ति मिलती है। इतनी बड़ी शक्ति यह कविता मुझे देती है कि क्या बताऊँ। विनोद जी बतौर व्यक्ति भी बहुत सादे और सरल इंसान हैं। विनोद जी इतने अच्छे हैं कि शराब भी नहीं पीते। कभी किसी की निंदा या शिकायत करना उनके स्वभाव में ही नहीं है। एक बार मध्य प्रदेश में एक काव्य-पाठ में एक कवि बहुत ख़राब पढ़ रहा था, हुआ यह कि उसे रोका जाए। लेकिन विनोद जी ने ऐसा करने से मना किया। उन्हें लगा कि उसे रोकना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कल इन्हीं में से कोई बहुत अच्छा कवि निकलेगा।
विनोद जी की ज़रूरतें बहुत सीमित हैं। इतनी कम ज़रूरतों वाले लेखक मैंने बहुत कम देखे हैं। विनोद जी और मैं पाँच-सात दिनों तक भी भीड़ में भीड़ से अलग रह सकते हैं, रहना भी हुआ है। एक प्रसंग याद आता है—मैं और विनोद जी साथ थे। एक व्यक्ति मेस में हमसे पहले खाना खा गए थे। विनोद जी ने कहा कि इस आदमी ने 22 हरी मिर्चियाँ खाईं। मैंने देखा उस व्यक्ति के छोड़े हुए थाल में हरी मिर्च की 21-22 डंडियाँ पड़ी हुई थीं। इतना सूक्ष्म निरीक्षण है उनका। सब कुछ को देखने का उनका जो ढंग है, वह इतना अलग है कि क्या कहूँ, इसलिए ही तो मैं उन्हें इतना प्यार करता हूँ। मनुष्य और प्रकृति सब कुछ को उन्होंने नए सिरे से देखना सिखलाया है। उनकी रचनाओं में हास्य और व्यंग्य भी बहुत अनूठा है।
एक बार दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान भी मैं और विनोद जी साथ थे। कार्यक्रम की समाप्ति पर यह हुआ कि मैत्रेयी पुष्पा जी अपनी कार में सबको छोड़ देंगी। कुछ और लोग भी थे। मैत्रेयी पुष्पा जी की कार पूरी भर गई थी, मैंने कहा कि मैं पीछे-पीछे ऑटो से आता हूँ, आप लोग जाइए, लेकिन मैत्रेयी जी का आग्रह कि वह सबको छोड़ देंगी। तब याद है कि विनोद जी मुझे अपनी जाँघ पर बैठाकर लाए थे। कार से उतरने के बाद मैंने देखा विनोद जी हल्का-सा लँगड़ा रहे थे। मुझे बाद में पता चला कि उनकी उसी जाँघ जिस पर वह मुझे बैठाकर लाए थे, कभी गहरी चोट लगी थी। मुझे बहुत गहरा खेद है। यह दुख मेरी ज़िंदगी के बड़े दुखों में से एक है कि मेरी वजह से कभी विनोद जी को कष्ट हुआ।
विनोद जी श्रमजीवी लोगों से प्यार करने वाले एक अद्भुत इंसान हैं। उन्होंने हिंदी उपन्यास के मुहावरे को बदल दिया। उन्होंने सब कुछ को एक नई दृष्टि दी। उनके यहाँ दृष्टि से सृष्टि संभव होती है। वह एक महान् भारतीय साहित्यकार हैं।
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यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘पाखी’ [अक्टूबर 2013, विनोद कुमार शुक्ल पर एकाग्र] से साभार है। विकुशुयोग के अंतर्गत प्रकाशित अन्य लेख यहाँ पढ़िए : ‘नहीं होने’ में क्या देखते हैं | हिंदी का अपना पहला ‘नेटिव जीनियस’ | सामान्य जीवन-प्रसंगों का कहानीकार | इसे ‘विनोदकुमारशुक्लपन’ कहूँगा | कितना बहुत है पर... | विडंबना, विस्मय और वक्तव्य | प्रत्यक्ष पृथ्वी की चाहना | वह भाषा के ईश्वर हैं | वाक्य-विनोद-विन्यास-शुक्ल
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