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एक अँग्रेज़ी विभाग के अंदर की बातें

एक

डॉ. सलमान अकेले अपनी केबिन में कुछ बड़बड़ा रहे थे। अँग्रेज़ी उनकी मादरी ज़बान न थी, बड़ी मुश्किल से अँग्रेज़ी लिखने का हुनर आया था। ऐक्सेंट तो अब भी अच्छा नहीं था, इसलिए अपने अँग्रेज़ीदाँ कलीग्स के बीच अक्सर ख़ामोश रहते थे। इसके दो फ़ायदे थे—पहला तो वह अपनी कमज़ोरी छिपा लेते थे। दूजा अपने साथियों में यह भ्रम पैदा करते थे कि वह किसी सीरियस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। 

“क्या हुआ सर, क्लास नहीं ले रहे आज?” सजीवन ने पूछा। 

वह बिफर पड़े, ऊँची आवाज़ में लगभग मुनादी पीटते हुए कहा, “हाउ डिस्गस्टिंग! पिछले एक हफ़्ते से इन बच्चों को लेटर राइटिंग पढ़ा रहा था। आज जब डिपार्टमेंट पहुँचा तो पता चला कि उन्हीं बच्चों ने हेड को लेटर लिखा है—लेटर टू चेंज द सब्जेक्ट।”

दो

कुँवर ने मास्टर्स में शेक्सपियर के अलावा कुछ नहीं पढ़ा था। वह शेक्सपियर के बारे में कुछ बुरा नहीं सुन सकता था। यहाँ तक कि उसे यह भी क़ुबूल नहीं था कि कोई उनके किरदारों को भी क्रिटिसाइज़ करे। 

एक दिन प्रोफ़ेसर शर्मा ने कहा कि मैकबेथ महज़ कोई एम्बीशियस किरदार नहीं, एक सिरफिरा है। भला ऐसी कौन-सी ख़्वाहिश है, जो दूसरे का क़त्ल करके पूरी हो? 

“मैं आपसे सहमत नहीं हूँ सर...”—कुँवर तपाक से बोल पड़ा। 

प्रोफ़ेसर शर्मा मुस्कुराए। शायद कुँवर की नादानी पर बोले, “तो क्या? मेरी पत्नी भी मुझसे सहमत नहीं रहती।”

तीन

एग्ज़ाम हॉल में नामी प्रोफ़ेसर को जूतम-पैज़ार करता देख छात्र सहम गए। उनमें से एक भाषाविद् थे, तो दूसरे ने पिछले दिनों ही जॉर्ज ऑरवेल का निबंध  ‘रिफ़्लेक्शन ऑन गांधी’ पढ़ाते समय गांधी की अहिंसा पर शानदार लेक्चर दिया था। 

जब प्रोफ़ेसर गुहा तक यह ख़बर नाज़िल हुई या उनके किसी ख़ास स्कॉलर ने इस घटना पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने ऐसे प्रतिक्रिया दी कि जैसे यह तो वह आदतन करते हैं। वह बोल पड़े, “यह कोई नई बात नहीं है बेटा, पिछली बार तो मैंने बीच-बचाव करने की कोशिश की, तो डॉ. राय ने मुझे ही नोच लिया था। बाद में मुझे एंटी-रेबीज का इंजेक्शन लगवाना पड़ा था।”

चार

मैं सिलेबस में हुए बदलाव को देखकर हैरान था। लिटरेचर का हिस्सा काफ़ी कम कर दिया गया था, जबकि लैंग्वेज ने उसकी जगह ले ली थी। 

प्रोफ़ेसर शर्मा, शाम को आर्ट फ़ैकल्टी में टहलते हुए मिले तो मैंने उनसे शिकायत भरे लहज़े में यह सवाल पूछा। वह हमें लिंग्विस्टिक पढ़ाते थे। 

उन्होंने तंज किया, “लिटरेचर से क्या होगा?” 

मैंने कहा, “क़िस्से, कहानी, कविताओं को पढ़कर हम एक बेहतर इंसान बन सकते हैं? लिटरेचर गिव्स अस सरोगेटेड एक्सपीरियंस।” 

“अच्छा?”—वह बोले,  “इस हिसाब से तो आपके प्रोफ़ेसर्स को सबसे बेहतर इंसान होना था! और ऑक्सफ़ोर्ड वालों को तो मसीहा मान सकते हैं न?”

पाँच

मैकमिलन से अँग्रेज़ी में किताब छपने के बाद भी उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी जिसके वह हक़दार थे। बेस्टसेलर होने का ख़्वाब लगभग टूट चुका था। महान् लेखक अपने समय से आगे होता है, यह सोचकर वह ख़ुद को तसल्ली दे रहे थे। 

सुबह-सुबह इस ख़बर ने उन्हें बेचैन कर दिया कि उनके एक साथी ने हिंदी में उपन्यास छापकर ख़ूब वाहवाही बटोरी है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा उसे सम्मानित किया जा रहा है। वह खीझ गए। मेज़ से पेपर हटाते हुए बोले, “अब मीडिया का कोई स्तर नहीं बचा है, वह सत्ता प्रतिष्ठानों की ग़ुलाम है।”

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