भूलने की कोशिश करते हुए
हरि कार्की
02 मई 2024
मई 2021
हम किसी दरवाज़े के सामने खड़े हों और भूल जाएँ कि दरवाज़े खटखटाने पर ही उन्हें खोला जाता है। ठीक दूसरी तरफ़ तुम जैसा ही कोई दूसरा हो जिसने आवाज़ें पहचाना बंद कर दिया हो और जो उस चौहद्दी को ही दुनिया मान ले। दोनों ओर तुम होगे… भूलते से—भूलना ही जीवन होगा। जिस पल की कल्पना इतना रोमांचित करती हो, कितना ही सुंदर होगा वह भूलने का पल! भूलने का एक पल गुज़रेगा, फिर एक भूली ज़िंदगी और दुनिया की सारी व्यर्थताएँ दरवाज़ों पर ही भूलकर ही ख़त्म कर दी जाएँगी, कुछ याद नहीं रखा जाएगा, शब्द, समय, हवा, जीवन, मृत्यु, मैं—तुम सब…
सितंबर 2003
स्कूटर पर आगे की तरफ़ खड़े होने की जगह होती है। उसमें खड़े होकर कहीं जा पाना—सुख ऐसा ही कुछ होता है, उस समय तक यह बात नहीं जानता था। इतना जानता था कि किसी तरह आगे खड़े होना है ताकि चेहरे पर जो हवा लगती है, उसका मज़ा ले पाऊँ। सड़क के दोनों ओर सालों से जो घर, पेड़—खड़े हुए—हैं, उन्हें पीछे छूटता देख पाऊँ। उस वक़्त एक मुस्कुराहट चेहरे पर रहती थी, जिसकी छाया आज भी मन में कहीं छिपी है, महसूस कर पाता हूँ उस मुस्कान को जब ख़ुद के भीतर छुपे बच्चे के हमउम्र किसी बच्चे को देखता हूँ। एक अदृश्य परदे पर अंकित होती है दिखती है वो मासूम हँसी—लेकिन शीशे के आगे उसको दर्ज कर पाने के लिए आज तक किए गए तमाम प्रयास कभी सफल नहीं हुए।
लगभग दो दशक पुरानी इन स्मृतियों का अंतिम सिरा जब भूलना चाहता हूँ तो अचानक लौट आता हूँ—दुनिया की क्रूरताओं की ओर। दुनिया के तमाम सामाजिक आविष्कारों पर हँसी आने लगती है—हिरोशिमा-नागासाकी का ताप द स्टैचु ऑफ़ डेविड को पिघला देता है, मोनालिसा धूल से भर जाती है। उस रोज़ यातायात के नियमों का हवाला देते लाल, केसरी और हरा रंग थे, वे मिलकर काले होने लगते हैं। तमाम ज़ेब्रा कॉसिंगों पर नुकीले कीलों के अलावा कुछ नहीं दिखता। और मैं इस रंग से हर उस आदमी का चेहरा पोत देना चाहता हूँ, जो उस दिन वहाँ मौजूद था और उनकी दृष्टि उन कीलों से बिगाड़ देना चाहता हूँ ताकि उन्हें न देखने का अभिनय कभी न करना पड़े।
हम अपनी स्मृतियों से कितनी-कितनी बार—कल्पना से, कल्पना में—चीज़ें ठीककर उसे बदल देना चाहते हैं—उसमें कभी 15-20 साल बड़े हो जाते हैं—अपार ताकत लिए, कभी ऐसे रास्ते खोज लेते हैं जिसमें हर मोड़ पर अस्पताल होते हैं। ऐसे देश को गढ़ लेते हैं जहाँ अपराधियों की आँखों से अपराध स्वयं दृश्य हो जाता है और अगली सुबह उसे सज़ा सुना दी जाती है।
कितना-कितना होता है जो नहीं होता, लेकिन स्मृति में उसे होता देख ख़ुद को बार-बार 'सब ठीक है' कहना।
अगस्त 2012
सारी आत्महत्याएँ दुनिया छोड़ने के मक़सद से या मर जाने के मक़सद से नहीं की जातीं। हम भूलना चाहते हैं, चाहते हैं कि इतनी ताक़त हासिल कर पाएँ कि साँस लेना भूल जाएँ। एक ऐसी बात भूलना चाहते हैं जिसे भूलने का विकल्प नहीं होता। स्मृति इच्छा-मृत्यु माँगती है, लेकिन पा नहीं सकती।
डीयू (दिल्ली विश्वविद्यालय) के दिनों में एक ऐसे लड़के से दोस्ती हुई जिसे उल्टा गिनना पसंद था। हम जब बस लेने के लिए साथ जाते तो वह 300 से उल्टा गिनता और हमें 623 नंबर बस मिल जाती। हर महीने को भी वह बचे दिनों से गिनता था, कोई महीना शुरू होता तो कहता—“अब बस 26 दिन और है सिंतबर में… फिर 8 महीने और अप्रैल आने में।“
पहले-पहले लगा वह यह सब मज़े के लिए करता है—हर बात पर ज़्यादा ख़ुश रहता है। उसकी बेसब्र आँखों में कभी दिखा नहीं कि वह कुछ कह रहा है जो मेरे जैसे औसत लड़के लिए उसकी आँखों को पढ़ समझ पाना कहाँ ही आसान था।
साल जाते-जाते उससे मिलना कम होता गया, उसका ख़ुद को ज़ाहिर करना—वह जो होना ही था। 20 की उम्र की आँखों को चमकीला रंग ज़्यादा दिखते हैं, फूल ज़्यादा पसंद आते हैं, उदासियों की जगहें कम दिखती हैं। हर नए दिन में कोई नया गाना, कोई नई फ़िल्म या कोई काम आ ही जाता है।
हमारी वह आख़िरी सर्दी थी उसके साथ—यह हमने कभी नहीं सोचा था। उसने यह सोचने भी नहीं दिया। बस उसके घर से उसको पूछते हुए कॉल आने का सिलसिला बढ़ा और उसका हमसे मिलना कम होता गया।
साल के आख़िरी एग्जाम से पहले वो आख़िरी बार दिखा। वह दिखा और फिर चला गया—जैसे साल चले जाते ख़ुद को आपके साथ छोड़े और आप उसको छू नहीं पाते न छोड़ पाते हैं। उसके साथ क्या हुआ शायद यह लिखना ज़रूरी नहीं है क्योंकि आख़िर हम सब के साथ भी वही होना है। सबका स्थायी पता मिट्टी ही है।
उस समय उसके बारे में सुनते हुए कभी हिम्मत नहीं हुई कि किसी से कुछ पूछ लूँ उसके बारे में या उसके घर नंबर पर फोन मिला लूँ। शायद ठीक ही था…
उसकी बात को दोहराऊँ अगर—“भाई फ़ोन करके तू ही फँसेगा—इसलिए कह रहा हूँ—मन में मान ले कि मैं यहाँ हूँ नहीं। उनको कैसे मालूम होगा कि मैं कहाँ हूँ।“
उसको भूलने की कोशिश में मैं उसको न जाने कितनी बार याद करता रहा। सिर्फ़ उसे नहीं मैंने हर उस चीज़ को भूलने की कोशिश की जो उसके साथ होते हुए हुई थी। कमाल है! भला कैसे लिखे हुए काग़ज़ को दुबारा कोरा करता, ली गई तमाम साँसें किसको लौटाता, हँसे हुए दिनों को कहाँ छोड़ता। सब भूलकर लौटता भी तो अकेले कहाँ लौटता…
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