औरंगज़ेब का घरेलू नाम नवरंग बिहारी था
हिन्दवी डेस्क
16 जून 2025
लेख से पहले चंद शब्द
कुछ दिन पहले अपने पुराने काग़ज़ात उलट-पलट रही थी कि एक विलक्षण लेख हाथ आया। पंडित वाहिद काज़मी का लिखा—हेडलाइन प्लस, जुलाई 2003 में प्रकाशित। शीर्षक पढ़कर ही झुरझुरी आ गई। एक सुकून भी मन पर तारी हुआ। इसका शीर्षक था—“औरंगज़ेब का घरेलू नाम नवरंग बिहारी था।”
वर्ष 2007-08 में जब औरंगाबाद गई तो वहाँ कई मंदिरों में जाना हुआ। हर जगह यही सुना कि हिंदू धर्म के विरोधी की तरह कुख्यात मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने कभी कोई मंदिर नहीं तुड़वाया था, बल्कि कई मंदिरों को वह बाक़ायदा ज़कात या इमदाद दिया करता था, जो आज तक चली आ रही थी। उसकी फ़ौज में काफ़ी से ज़्यादा सिपहसलार हिंदू थे, जैसे शिवाजी महाराज की सेना में मुसलमान थे।
अलबत्ता वह संगीत, इश्क़िया शाइरी और नाटक आदि से परहेज़ ही नहीं; नफ़रत करता था और उन पर पाबंदी लगा रखी थी। पर उसका ताल्लुक़ सिर्फ़ हिंदुओं से नहीं था, वह हिंदू और मुसलमान दोनों पर लागू थी। मेरे लिए यह क़तई इत्मीनान की बात नहीं थी। पर बादशाह का धर्म के आधार पर हिंदुओं की मुख़ालफ़त न करना, सुकूनदेह था।
पहले-पहल शायद उन्हीं दिनों मैंने यह लेख पढ़ा और सँभालकर रख लिया। मुझे उसमें उस सचाई की धुन सुनाई दी, जिसे कट्टरपंथी दबाव में लोग जानबूझकर भुला रहे थे।
कालांतर में जैसे-जैसे औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ झूठी तोहमतें मैयार पाती गईं, मुझे यह लेख याद आता रहा। मन था कि उसे लोगों को पढ़वाऊँ और उनकी ग़लतफ़हमी दूर करूँ। उसे खोजा भी पर मिला नहीं। संयोग पर किसी की हुकूमत नहीं चलती। जब लेख को मिलना था तभी मिला—2025 में।
तब तक 2021 में पंडित वाहिद काज़मी का निधन हो चुका था। पंडित की पदवी उन्हें ओशो ने दी थी। वह कई बरसों से ‘अपना घर’ नामक वृद्धाश्रम में रह रहे थे। उनका कफ़न-दफ़न भी वहीं के निवासियों ने किया, घर का कोई आदमी नहीं था। इसलिए उनका वारिस ढूँढ़कर उनका लेख दुबारा प्रकाशित करने की अनुमति लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। तो मैंने इस लेख की विरासत अपने हाथों में ले ली। वह बेहद रसिक तरीक़े से मेरे एहसास की पुख़्तगी करता था।
वैसे काज़मी साहब ने काफ़ी लेख लिखे हैं। सिने-संगीत पर उनकी एक पुस्तक भी है, जो वाणी प्रकाशन ने छापी है। उनकी कहानी ‘लानत’ अपने अँग्रेज़ी अनुवाद में कालीकट विश्वविद्यालय में बीए में पढ़ाई जाती है। पर मुझे यक़ीन है, इस लेख की ज़िम्मेवारी मुझे सौंपने में उन्हें एतिराज़ न होता। बशर्ते पाठक कम से कम अपनी कूपमंडूकता से बाहर निकलने की कोशिश तो करें। सफल हो जाएँ तो क्या कहने।
— मृदुला गर्ग
~लेख~
औरंगज़ेब का घरेलू नाम नवरंग बिहारी था
स्वामी वाहिद काज़मी
यह एक रोचक सच्चाई है कि मुग़ल बादशाहों के जो नाम सामान्यतः प्रसिद्ध हैं, वास्तव में वे उनके मूल नाम नहीं हैं—जैसे बाबर, हुमायूँ, अकबर आदि। ये उनकी उपाधियाँ अर्थात् खिताब भी नहीं हैं, बल्कि ये उनकी प्रतिष्ठा, प्रताप व सम्मान के सूचक अलंकरण अर्थात् लक़ब हैं। हिंदी में इसके लिए एक विशेष शब्द है—‘विरुद’, यथा सम्राट चंद्रगुप्त का विरुद था विक्रमादित्य। अधिकतर बादशाहों के मूल नाम कुछ और हैं। राज्याभिषेक के समय वे लक़ब धारण करके तख़्त पर बैठते थे। बाबर से शुरू करें तो उसका मूल नाम ज़हीरूद्दीन मुहम्मद और लक़ब बाबर है। बाद के बादशाहों के लक़ब सहित नाम इस प्रकार है—अबुलफ़तह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अबूज़फ़र नूरूद्दीन मुहम्मद जहाँगीर, शहाबुद्दीन मुहम्मद शाहजहाँ, अबूमुज़फ्फ़र मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आदि। अंतिम मुग़ल ताजदार का पूरा नाम मुहम्मद सिराजुद्दीन बहादुर शाह अबूज़फ़र तख़ल्लुस था। मूल नाम काफ़ी बड़े होने के कारण केवल इतिहास में दर्ज रह गए और लक़ब संक्षिप्त होने के कारण नाम का स्थानापन्न बनकर प्रचलन पा गए।
बचपन में शहजादों के जो घरेलू नाम रखे जाते थे; वे शहज़ादगी की अवधि तक चलते थे, सो भी महलों के भीतर तक। राज्याभिषेक के समय चूँकि वे बादशाह हो जाते थे; अतः पुराने नाम प्रयोग न करके शाही लक़ब ही प्रयोग किए जाते थे, बड़े-बूढ़े भले उन्हें लाड़ में घरेलू नाम से पुकारते हों। किसी-किसी बादशाह के एक से अधिक लड़के होते थे और शाही दस्तावेज़ों, पत्रों तथा तहरीरों में सभी लक़ब प्रयोग भी होते थे। औरंगज़ेब के यद्यपि तीन लक़ब हैं—ग़ाज़ी, आलमगीर तथा औरंगज़ेब फिर भी; बादशाह बनने के बाद भी उसका घरेलू नाम प्रचलित रहा, यह आश्चर्य की बात है। उसका यह नाम था—नवरंग बिहारी।
घरेलू नाम का आधार
यह जानना रोचक रहेगा कि शहजादों के घरेलू नाम का चयन किसी न किसी आधार पर किया जाता था, जिसमें उसकी पूरी पृष्ठभूमि समाई रहती थी। अकबर के यहाँ 37 वर्षों तक कोई संतान नहीं हुई। जो भी शिशु जन्मता, वह मर जाता था। पुत्र का मुँह देखने को तरसते बादशाह को उसके कुछ हितैषियों ने सलाह दी कि अगर वह अजमेर स्थित ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ (मुईनुद्दीन चिश्ती) के मज़ार पर जाकर मनौती माने तो संभवतः उनका मनोरथ पूर्ण हो जाए। अकबर मज़ार पर पहुँचा और गिड़गिड़ाकर दुआ माँगी, ‘अगर ख़ुदा ने मुझे जीता जागता बेटा अता किया तो आगरा से अजमेर तक पैदल आकर हाज़िरी दूँगा।’
आगरा के निकट क़स्बा सीकरी में प्रसिद्ध दरवेश हज़रत शेख़ सलीम चिश्ती का आश्रम था। अकबर उनकी सेवा में भी पहुँचा और पुत्र-प्राप्ति के लिए उनसे दुआ कराई, संकल्प भी किया—‘मेरे जो पहला पुत्र होगा उसे आपके क़दमों में डाल दूँगा।’ हज़रत ने फ़रमाया—‘जा, उसका नाम मुबारक हो। हमने अपने नाम पर उसका नाम सलीम रख दिया।’ जब अकबर की हिंदू मलिका (जो जयपुर के राजपूत राजा बिहारीमल की बेटी थी) गर्भवती हुई तो अकबर ने उसे शेख़ सलीम के आश्रम में सीकरी भेज दिया। वहीं सन् 1569 ई. में जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम सलीम रखा गया। बाद में अकबर मनौती पूरी करने के लिए आगरा से अजमेर तक पैदल गया और ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ के मज़ार पर हाज़िर होकर शुकराना अदा किया। सीकरी को उसने एक शानदार नगर में बदल दिया और उसका नया नामकरण फ़तेहपुर किया। शेख़ सलीम चिश्ती का वह इतना अधिक सम्मान करता था कि उसने अपने बेटे को कभी सलीम कहकर नहीं पुकारा। वह उसे शेख़ बाबा या शेख़ कहकर पुकारता था। यही शहजादा सलीम सन् 1605 ई. में जहाँगीर का लक़ब धारण कर सिंहासनारूढ़ हुआ।
15 वर्ष की आयु में जहाँगीर की पहली शादी, राजपूत राजा भगवानदास की बेटी से और एक वर्ष बाद दूसरी शादी राजा उदय सिंह की बेटी से हुई। इसी हिंदू रानी से जहाँगीर का तीसरा बेटा शहज़ादा ख़ुर्रम सन् 1591 ई. में पैदा हुआ, जो आगे चलकर अबुलज़फ़र मुहम्मद शहाबुद्दीन शाहजहाँ नाम से सन् 1626 ई. में तख़्त पर बैठा।
औरंगज़ेब का जन्म
शाहजहाँ को नई-नई इमारतें बनवाने और बाग़ात लगाने का बेहद शौक़ था। ताजमहल तो शाहकार है, उसका ज़िक्र क्या; बाक़ी वह जिधर से भी गुज़रता, जहाँ भी ठहरता, कोई नई इमारत या उद्यान तैयार करा देता था। अपने बाप (जहाँगीर) और दादा (अकबर) की भाँति वह भी शाइरों, विद्वानों, कवियों का संरक्षक और ख़ुद भी कला एवं विद्या-प्रेमी था। उर्दू का प्रथम शाइर चंद्रभान ब्राह्मण शाहजहाँ के दरबार का ही एक रत्न था।
प्रसिद्ध नायिकाभेद ग्रंथ ‘सुंदर सिंगार’ का रचयिता सुंदर कवि भी शाहजहाँ के दरबार की शोभा था, जिसने ‘महाकविराय’ की उपाधि प्राप्त की थी। वह स्वयं भी हिंदी में कविता करता था।
शाहजहाँ की सबसे चहेती मलिका थी—मुमताज़ महल (मूल नाम अर्जुमंद बानो)। उसके ही प्रेम का स्मारक है—ताजमहल। अपने पीछे मुमताज़ जो अपनी संतानें छोड़ गई थी, उनमें पाँचवीं संतान जो शहज़ादा था, वही बड़ा होने पर सन् 1657 ई. में अबुमुज़फ़्फ़र मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब नाम से सिंहासन पर बैठा। शाहजहाँ ने अपने इस पुत्र का नाम बचपन में नवरंग बिहारी भी रखा था, जो उसके हिंदी-प्रेमी तथा हिंदी-हृदय होने का प्रमाण है।
यथार्थ के आईने में औरंगज़ेब
अकबर ने अपने शासनकाल में एक निषेधाज्ञा जारी करके गौ-वध को वर्जित कर दिया था। फिर जितने भी मुग़ल बादशाह हुए उन्होंने भी गौ-वध को प्रतिबंधित रखा। औरंगज़ेब भी उनके ही चरण-चिह्नों पर चलता रहा। अंतिम मुग़ल बादशाह ज़फ़र के समय तक गौ-वध प्रतिबंधित था। अँग्रेज़ों ने ही उसे फिर से प्रचलित किया था। राज्याभिषेक से पहले वह जहाँ-जहाँ सूबेदार रहा, मद्य-निषेध को सख़्ती से लागू किया। शराब बेचने-बनाने वालों को कठोर दंड दिए। अँधविश्वासों का कूड़ा-कचरा साफ़ करने-हटाने में लगाया। औरंगज़ेब ने ही ब्रजभूमि में मोर का शिकार न करने का आदेश हिंदुओं के कहने से जारी किया था।
अकबर की भाँति औरंगज़ेब भी गंगा-जल के अलावा कोई और पानी नहीं पीता था। सत्तासीन होने के बाद उसे अनेक कारणों से, दिल्ली से दूर दक्कन में लगभग 26 वर्ष गुज़ारने पड़े, किंतु उसने ऐसा प्रबंध कर रखा था कि वहाँ भी उसे गंगा-जल मिलता रहे। एक बार शाही डाक चालीस दिन बाद गंगा-जल लेकर पहुँची। इस मुद्दत में उसने जैसे-तैसे अपना काम चलाया, किंतु कोई और पानी पीना गवारा नहीं किया।
औरंगज़ेब ने भी अकबर तथा जहाँगीर की भाँति, राजपूत राजाओं से वैवाहिक संबंध बनाकर चलना पसंद किया। उसकी एक पत्नी उदयपुरी बेगम राजपूत राजा की बेटी थी, जिसे वह अपनी तमाम बेगमों में सबसे अधिक पसंद करता था। उसने रानी उदयपुरी बाई पर न कभी धर्म-परिवर्तन के लिए ज़ोर दिया, न उसके धर्म-पालन में किसी प्रकार की कोई बाधा या कठिनाई आने दी। इसी उदयपुरी बाई के गर्भ से उत्पन्न शहज़ादा कामबख़्श को ही वह अपनी सब संतानों में सबसे अधिक चाहता था। इतना ही नहीं, अपने एक अन्य बेटे, शहज़ादा मुअज्ज़म का विवाह बड़ी धूम-धाम से राजपूत राजा रूपसिंह की बेटी से किया था। इन विवाहों का पूर्ण विवरण उपलब्ध है।
औरंगज़ेब हिंदी-प्रेमी था
औरंगज़ेब हिंदी-प्रेमी भी था और हिंदी-कवियों का संरक्षक भी। उसके दरबार में जो हिंदी-कवियों की पूरी मंडली रहती थी, उनमें वृंदकवि सबसे उल्लेखनीय हैं। वीर रस का अमर कवि भूषण भी पहले उसी के दरबार में रहता था। बाद में किसी बात से अप्रसन्न होकर अन्यत्र चला गया था। जिस प्रकार उर्दू-फ़ारसी की एक-एक रुबाई पर उसी प्रकार एक-एक हिंदी पद पर उसने सात-सात हज़ार तक के पुरस्कार दिए थे। कभी-कभी वह स्वयं भी हिंदी में कविता करता था। अपनी सबसे प्रिय, रूप-गुण-संपन्न बेगम उदयपुरी बाई की प्रशस्ति में उसका रचा एक छंद भी मिलता है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं :
तुव गुण उदय रवि कीनो,
याही ते कहत तुम कौं बाई उदयपुरी।
इतना ही नहीं अन्य मुग़ल बादशाहों की भाँति औरंगज़ेब को भी भाषा तथा आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों से प्यार था। उन दिनों जिस नागरी भाषा का प्रचलन था, उसमें संस्कृत शब्द ही चलते थे। शहज़ादा मुअज्ज़म शाह ने एक बार बहुत बढ़िया किस्म के ख़ुशरंग, ख़ुशज़ायक़ा एवं ख़ुशबूदार आम बतौर तोहफ़े उसे भेजे। साथ ही यह गुज़ारिश भी की कि स्वाद तथा सुगंध के अनुरूप वह उनका नामकरण भी करे। औरंगज़ेब ने आम खाए। अच्छे लगे तो उसने आमों की एक क़िस्म का नामकरण किया—‘सुधा रस’ और दूसरी क़िस्म का—‘रसना विलास’।
जिन दिनों औरंगज़ेब दक्षिण में था, बंगाल का एक मुसलमान बड़ी दूर से यात्रा करता हुआ उससे मिलने कृष्णा नदी-तट के इलाक़े में पहुँचा और जब बादशाह के हुज़ूर में हाज़िर हुआ तो प्रार्थना की—‘मुझे अपना मुरीद बना लीजिए।’ औरंगज़ेब को उसकी ऐसी चापलूसी पर ताव आ गया और उसने उस ख़ुशामदी को जिस देशज पद की पंक्तियाँ कहकर फटकारा वे थीं :
टोपी लेन्दी बावरी, देन्दी खरे निलज्ज।
चहा खान्दा बावली, तू कल बंधे छज्ज॥
अर्थात् : तू अपने लंबे बाल छोड़कर फ़क़ीर की टोपी लेना चाहता है। ऐ खरे बेग़ैरत! तेरा घर तो चूहा खोदे जा रहा है और तू उस पर छप्पर छाने की कल्पना करता है।
फ़ारसी का शाइर था औरंगज़ेब
फ़ारसी का शाइर एवं लेखक तो औरंगज़ेब था ही बेहतरीन ख़ुशनवीस (सुलेखक) भी था। फ़ारसी की दो चित्रोपम लिपियों, नस्तालीक़ व शिकस्ता में उसे पूर्ण दक्षता प्राप्त थी। अपनी क़लम से उसने क़ुरआन-ए-पाक की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की थीं। अपने शिक्षक जीवनशाह साहब का वह इतना अधिक सम्मान करता था कि कोई पुत्र अपने पिता का सम्मान क्या करेगा।
सूफ़ी-संत शाह अब्दुल रहीम साहब से वह बेहद प्रभावित था। एक बार उसने उन्हें कुछ ज़मीन भेंट करनी चाही। इस प्रस्ताव पर शाह साहब ने उसे जो पत्र लिखा था, उसका लुब्ब-ए-लुबाब यह था कि ‘सभी संत पुरुष मानते हैं कि जो फ़क़ीर (दरवेश) राजा के दरवाज़े पर जाता है; वह दरवेश नहीं, शैतान है। राजाओं के पास बहुत कम संपदा होती है। यदि तू मुझे कुछ देगा तो तेरे पास बचा क्या रहेगा?’ औरंगज़ेब इस पत्र को सदैव अपनी जेब में रखे रहता था। जब लिबास बदलता तो उसे उसी लिबास में रख लेता था। एकांत में वह उस पत्र को बार-बार पढ़ता और रोने लगता।
सबसे बड़ा आरोप औरंगज़ेब पर हिंदू देव-स्थानों को तोड़ने का है और उसे सुनियोजित तरीक़े से इतना उछाला गया है कि जिसका जवाब नहीं। कम ही लोग जानते होंगे कि जिन कारणों से उसने चंद एक मंदिर तुड़वाए थे, उन्हीं कारणों से उसने मस्जिदों को भी नहीं बख़्शा था। मंदिर-मस्जिद ढहाने के बरअक्स वह मंदिरों का संरक्षक ही नहीं निर्माता भी था। सुविख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने औरंगज़ेब के ऐसे अनेक फ़रमान प्रस्तुत किए हैं, जिनके द्वारा औरंगज़ेब ने कितने ही हिंदू मंदिरों को ज़़मीनें तथा दर्जनों गाँवों की जागीरें प्रदान की थीं। शाही अफ़सरों के नाम कई फ़रमान ऐसे भी हैं, जिनमें हिंदुओं को अपने धर्म पालन करने में किसी भी प्रकार की कठिनाई न होने देने की ताक़ीद की गई है। हिंदू देव-स्थानों के रक्षार्थ उचित व्यवस्था के आदेश दिए गए। इन आदेशों की अवज्ञा या अवहेलना पर दंड के प्रावधान भी थे। इसी प्रकार की गवाही अँग्रेज़ यात्री हैमिल्टन की डायरी भी देती है, जो औरंगज़ेब के समय में भारत-यात्रा पर आया था। औरंगज़ेब का बनवाया हुआ एक विशाल मंदिर चित्रकूट में आज भी शान से सिर ऊँचा किए हुए देखा जा सकता है। प्रादेशिक सरकारों ने राजनयिक अभिलेखागारों में मंदिरों की सहायतार्थ जारी शाही फ़रमानों की मूल प्रतियाँ आज भी सुरक्षित हैं।
नवरंग बिहारी नामकरण
यह ठीक है कि शाहजहाँ अपने बड़े बेटे शहज़ादा दाराशुकोह को गद्दी देना चाहता था, पर यह भी सच है कि वह औरंगज़ेब पर भी जान छिड़कता था। हिंदी-प्रेमी तथा हिंदी-हृदय शाहजहाँ ने ही औरंगज़ेब का नाम नवरंग बिहारी रखा था। पूरे मुग़लकाल में औरंगज़ेब संभवतः अकेला ऐसा बादशाह हुआ है, जिसके पिता ने बड़े चाव से उसका हिंदू नाम रखा। आगे जाकर जब औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ को आगरा के क़िले में नज़रबंद कर रखा था तो शाहजहाँ को सबसे अधिक मानसिक वेदना यही थी कि कैसे चाव-चोंचलों से उसने इसका लालन-पालन किया, कितनी जागीरें, पद-प्रतिष्ठा, जागीरों-इलाक़ों से नवाज़ा। उसी पुत्र ने बूढ़े बाप को नज़रबंद कर डाला। शाहजहाँ के स्वरचित जो सवैया छंद मिलते हैं। उनमें से एक सवैया छंद उसकी इसी मनो-व्यथा से परिपूर्ण और बहुत मार्मिक है :
जनमत ही लखदान दियौ,
अरु नाम धरयौ नवरंग बिहारी।
बालहिं सो प्रतिपाल कियौ,
अरु देस-मुलुकक दियौ दल भारी॥
सो सुत बैर बुझे मन में,
धरि हाय दियौ बंधसार में डारी।
‘साहिजहां’ बिनवै हरि सों,
बलि राजिवनैन रजाय तिहारी॥
ग़ौरतलब है कि वह उदारचेता बादशाह सब्र-शुक्र के उन गहनतम क्षणों में ‘यारब’, ‘अल्लाह’ अथवा ‘परवरदिगार, जो भी तेरी मर्ज़ी में उसी में राज़ी-ब-रज़ा हूँ’ जैसे शब्द न पिरोकर उस सर्वशक्तिमान सत्ता को ‘हरि’ तथा ‘राजीव नयन’ (मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का एक विशेषण) संबोधित कर बलिहारी होता है। यह कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। ऐसा ही पिता अपने लाड़ले पुत्र का ख़ालिस हिंदू नाम चुन सकता है। बहरहाल, औरंगज़ेब का नवरंग बिहारी नाम साबित करने वाली ये पंक्तियाँ अपने आपमें एक प्रमाण हैं।
ऐसा नहीं कि उसका नवरंग बिहारी नाम केवल महलों की चहारदीवारी तक सीमित रहा या बादशाह बन जाने के बाद नहीं चला। इस नाम से उसके ज़माने में उसे दूर-दूर तक जाना जाता था। जहाँ उसके अन्य शाही अलक़ाब तथा उपाधियाँ प्रयोग की जाती थीं, वहाँ उसका नवरंग बिहारी नाम भी मिलता है। इसका सबसे रोचक प्रमाण राजस्थान के ज़िला अलवर में समरा नामक, जो अब ‘देव का देवरा’ कहा जाता है, ग्राम में परस्पर सटे हुए बतियाते मंदिर-मस्जिद के अवशेषों में मिला।
गूजर जाति के एक लोक-गायक खेमा भोपा ने सन् 1702 ई. में यहाँ देवनारायण का एक मंदिर, जिसमें विविध देवताओं की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित थीं और उससे ही सटी हुई एक विशाल मस्जिद का निर्माण कराया था। मस्जिद के छह गुंबद और उनके कलश-रूप में कमल-पंखुड़ियाँ बनाई गईं। मस्जिद में लगा एक शिलालेख फ़ारसी भाषा में और दूसरा शिलालेख देहाती बोली (हिंदी) में है। फ़ारसी शिलालेख का मूल पाठ इस प्रकार का है :
‘मस्जिद-मुअल्ला मुरत्तब आमद दर अहद बादशाह आलमगीर ग़ाज़ी सन जलूस 49 ब-मुताबिक सन् 1114 हिजरी’
अर्थात् : मस्जिदे-मुअल्ला नामक उस मस्जिद का निर्माण बादशाह आलमगीर (औरंगज़ेब) ग़ाज़ी के शासनकाल में, उनके राज्याभिषेक की 49वीं वर्षगांठ पर, तदनुसार सन् 1114 हिजरी में संपन्न हुआ।
हिंदी शिलालेख के पाठ की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं :
‘संवत 1759 जेठ सुदी 14 बीसपत (बृहस्पति) वार पातसाह श्री नौरंगशाहजी, श्रीमंत जागीर दीवान कमर मुहम्मद क़ुलीजी व मियाँ महमद अली जी, राजा भानगढ़ का माधवसिंह व खेमा भरथा गुवाड़ा समरा का भोपा ने मस्जिद बनाई।’
इसका मतलब यह कि औरंगज़ेब का नवरंग बिहारी नाम ऐसा लोक-प्रसिद्ध था कि उसके राज्याभिषेक के बाद पचास वर्ष तक प्रचलित रहा। यहाँ तक कि शिलालेखों तक में प्रयुक्त होता रहा। संभव है इस प्रकार के कुछ और भी शिलालेखों या शाही दस्तावेजों में ‘नवरंग शाह’ नाम मिल जाए। खोज होनी चाहिए।
नवरंग नाम के प्रयोग
जैसा अभी पीछे इशारा किया जा चुका हैं वीर रस के समर्थ एवं सक्षम कवि के रूप में हिंदी काव्य साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठित भूषण वाक़ई प्रतिभाशाली कवि थे। यह अलग बात है कि उन्होंने रीतिकालीन काव्य के तहत शृंगारिक कविता भी ख़ूब की है, किंतु पता नहीं क्यों उनकी शृंगारिक रचनाओं की चर्चा प्रायः नहीं होती है। नामालूम उन नमूनों को परदे में क्यूँ रखा गया है। ख़ैर! कवि भूषण के आश्रयदाता जो राजो-राव-नरेश आदि रहे, उनकी एक लंबी सूची बनाई जाए तो 12-15 नाम शामिल होंगे। उनमें से तीसरा नाम बादशाह औरंगज़ेब का है। हिंदी कविता और कवियों का क़द्रदान होने से औरंगज़ेब ने भूषण को पूरे मान-सम्मान के साथ अपने दरबार में रखा था। इस संबंध में एक घटना प्रसिद्ध है।
एक दिन सारे दरबार में औरंगज़ेब ने कवियों से कहा, ‘‘आप सभी हमेशा मेरी तारीफ़ों से भरी कविताएँ सुनाकर मुझे ख़ुश करने में लगे रहते हैं। क्या मुझमें कोई ऐब, कोई दोष नहीं है!’’ दूसरे लोग तो बादशाह के इस कथन पर भी लगे तारीफ़ें उछालने, किंतु भूषण ने संजीदगी से सादर निवेदन किया, ‘‘मैं आपके अवगुणों से भरी कविता सुनाने को तैयार हूँ, किंतु कविता सुनकर मुझे माफ़ किया जाए।’’ बादशाह राज़ी हो गया। भूषण ने उसी समय यह कवित्त-छंद रचकर सुनाया :
किबले के और बाप बादशाह शाहजहां,
वाको कैद किया मानो मकके आगि लाई है॥
बड़ो भाई दारा वाको पकरि के मारि डारयो,
मेहर हूं नाहि मां को जायो सगो भाई है॥
खाई कै क़सम त्यों मुराद को मनाय लियो,
फेरि ताहू साथ अति किन्हीं तैं ठगाई है॥
‘भषन’ सुकवि कहे सुनो नवरंगज़ेब,
ऐसे ही अनीति करि पातसाही पाई है॥
इसके बाद दूसरे छंद में जब भूषण ने बादशाह की इबादतगुज़ारी को ढोंग बताते हुए उसे ‘सौ-सौ चूहे खाई कै बिलाई बैठी तप के’ कहा (वस्तुतः यह उर्दू कहावत नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली का हिंदीकरण है) तो बादशाह ने कुपित होकर भूषण को क़त्ल करने का हुक्म दे दिया। लेकिन लोगों ने याद दिलाया कि आप उसे जानबख़्शी और मुआफ़ी पहले ही दे चुके हैं। तो उसने अपना हुक्म तो वापस ले लिया और ग़ुस्से से कहा, ‘‘अब तू मेरी नज़रों से दूर हट जा!’’
भूषण फौरन अपने निवास स्थान पर आए, असबाब सँभाला, लादा और चल पड़े! बादशाह ने जब उन्हें इस तरह शहर छोड़कर जाते सुना तो रोकने के लिए हरकारे दौड़ाए। ताकि उन्हें वापस लौटा लाएँ। किंतु घुड़सवार हरकारे भूषण को वापस लौटाने में नाकाम फिर आए। इससे कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि बादशाह ने ग़ुस्से में जो ‘मेरी नज़रों से दूर हट जा!’ कहा इससे उसका मंशा यह नहीं था कि भूषण, दरबार से संबंध-विच्छेद कर शहर ही त्याग जाएँ। जो भी हो ,कहना यह चाहता हूँ कि उक्त छंद में भूषण ने औरंगज़ेब के घरेलू नाम नवरंग बिहारी को हिंदी-फ़ारसी मिलाकर ख़ूबसूरती से ‘नवरंगज़ेब’ प्रयोग किया। इससे यह भी साबित होता है कि ‘नवरंग’ भी काफ़ी प्रचलित था। अगर औरंगज़ेब सचमुच कट्टर और हिंदू-द्वेषी होता तो क्या अपना हिंदुवाना नाम पसंद करता? विदित हो कि ‘औरंगा’ फ़ारसी शब्द है और इसका अर्थ है—राजसिंहासन, बुद्धि, विवेक आदि। ‘ज़ेब’ भी फ़ारसी शब्द है, इसका अर्थ है—शोभा, सज्जा, बनाव, शृंगार आदि। अतः ‘औरंगज़ेब’ का हिंदी में सही अर्थ होगा—राजसिंहासन की शोभा, राजगद्दी का शृंगार, बुद्धि-सज्जा, विवेक-सज्जा आदि।
औरंगज़ेब का आश्रय त्यागकर जब भूषण, शिवाजी के आश्रय में रहने लगे तो मुग़लों के विरोधी और शिवाजी के प्रशस्ति-गायक होना ही था। शिवाजी की प्रशंसा में एक कवित्त-छंद में उन्होंने अंतिम दो पंक्तियों में ‘नवरंग’ को संक्षिप्त कर ‘नौरंग’ प्रयोग किया है। मुलाहज़ा फ़रमाएँ :
तमक से लालमुख सिवा को निरखि भए
स्याहमुख नौरंग सिपाह मुख पियरे॥
अब एक और दिलचस्प बात!
मेरी लाइब्रेरी में ख़ुदा जाने कब से और नमालूम कब का छपा एक पुराना हिंदी शब्दकोश है। इसके आरंभ के सात पृष्ठ और अंतिम हिस्सा ग़ायब होने के बावजूद यह 1026 पृष्ठों में है और इसमें ‘अं’ से ‘क’ तक के ही शब्द हैं। कह सकते हैं कि यह कुल जितना बड़ा होगा, उसका आधा है। इसके पृष्ठ 459 पर ‘नवरंग’ शब्द के दो अर्थ दिए गए हैं—पहला : एक प्रकार की चिड़िया, दूसरा : औरंगज़ेब शब्द का विकृत रूप। ‘नौरंग’ का यह दूसरा अर्थ मुझे सही नहीं लगता, क्योंकि यह ‘नवरंग’ का संक्षिप्त या कहें आम बोलचाल वाला रूप है और नवरंग का अर्थ है—नया नवेला, नए ढंग का! ख़ैर, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि औरंगज़ेब का घरेलू नाम एक शब्दकोश में सहेजकर रखा गया है! क्या इससे यह साबित नहीं होता कि न सिर्फ़ औरंगज़ेब के समय में उसका नवरंग नाम लोकप्रसिद्ध रहा, बल्कि वह औरंगज़ेब का मानो पर्याय बनकर शब्दकोश में भी शतियों की मुद्दत गुज़ारने पर भी सुरक्षित है।
जीवन के संध्या-काल में औरंगज़ेब के शासनकाल का प्रारंभ और अंत सामरिक अभियान के दौरान ही हुआ। सन् 1706 ई. में जब वह दक्कन में था, वार्धक्य के कारण गंभीर रूप से ऐसा बीमार पड़ा कि फिर स्वस्थ नहीं हो सका। जब उसे ठीक से महसूस होने लगा कि यह टिमटिमाता जीवन-दीप अब बुझने वाला है तो उसने शहर क़ाज़ी को चार हज़ार रुपए भिजवाए और लिखा—‘अब मेरा वक़्त क़रीब है। अव्वल मंज़िल तक मुझे पहुँचाने का इंतिज़ाम किया जाए। यह रुपया ग़रीबों और मोहताजों में तक़सीम कर दिया जाए।’
उसके बाद परिजनों के नाम वसीयत थी—‘मेरे कफ़न-दफ़न का इंतिज़ाम उन साढ़े चार रुपयों से किया जाए जो टोपियाँ बनाकर मैंने अपनी मेहनत से पैदा किए हैं; और आठ सौ पाँच रुपये, जो मैंने क़ुरआन नवीसी की उजरत (मज़दूरी, भृति, पारिश्रमिक) से हासिल किए हैं; मेरे मरने के बाद ख़ैरात कर दिए जाएँ।’
औरंगज़ेब की वृद्धावस्था मेरी दृष्टि में सचमुच विचारणीय मामला है। तमाम साज-सज्जा से रहित एक सूना व सादा कमरा। एक अदद जा-नमाज़ एक अदद तस्बीह, वुज़ू करने के लिए मामूली बधना, सादा लिबास। नमाज़, रोज़े, वज़ीफ़े से मिली फ़ुर्सत में कभी टोपियों के पल्ले काढ़े जा रहे हैं, कभी क़ुरआन-ए-पाक की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की जा रही हैं। यही था उसका बुढ़ापा और गोशानशीनी। जो लोग औरंगज़ेब को वलीअल्लाह या दरवेश मानकर रहमतुल्लाह लिखते हैं, उनके पास कौन से तर्क हैं, वे जाने। मैं उनसे नहीं इतिहास लेखक शौक़त अली फ़हमी और असग़र अली इंजीनियर से सहमत हूँ कि औरंगज़ेब न तो हिंदू दुश्मन था और न दरवेश। अक्सर मुझे लगता है कि इस गोशानशीनी, कठोर संयम, ज़ुह्हाद-ओ-तक़्वा और अल्लाह-अल्लाह करके दिन गुज़ारने के पीछे कहीं न कहीं पूर्व कर्मों के लिए प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव रहा होगा। आख़िरी उम्र में पूर्व ‘कर्मों’ का एहसास कुछ शदीद हो जाता है और अमूमन व्यक्ति मानसिक शांति एवं सांत्वना के लिए अनेक प्रकट-अप्रकट उपाय अपनाता है। बहरहाल यहाँ मुझे अमीर हसन आक़िल का एक हस्ब-ए-हाल शे’र अनायास याद आता है :
भारत की तारीख़ उठाकर बाब-ए-औरंगज़ेब पढ़ो
सिर्फ़ कफ़न के पैसे निकले शाहे-आलमगीर के पास
‘आलमगीर’ और ‘ग़ाज़ी’ भी औरंगज़ेब के लक़ब थे
इस प्रकार 90 साल 18 दिन की आयु भोगकर, 50 वर्ष और 27 दिन शासन करने के बाद 20 फ़रवरी 1706 ई. में औरंगज़ेब इस संसार से सिधार गया। उसी दिन उसे बहुत सादे तरीक़े से औरंगाबाद के क़रीब क़ब्रिस्तान में विधिवत् दफ़्न कर दिया गया। न कोई शव-यात्रा और न कोई मातमी जलसा-जलूस। इससे पूर्व किसी भी बादशाह को इतनी लंबी अवधि तक शासन करना नसीब नहीं हुआ था। लेकिन कैसी विडंबना कि दिल्ली के जिस तख़्त के लिए उसने सगे भाइयों को क़त्ल कराया, पिता को बंदी बनाया, बहनों को नाराज़ रखा, कितनी बदनामियाँ झेलीं। उस तख़्त पर बैठना उसे कम ही नसीब हुआ। न दिल्ली में उसका राज्याभिषेक हुआ और न निधन। मरा भी तो दिल्ली से बहुत दूर। अंत में दिल्ली में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई।
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